“धार्मिकाध्यात्मिक संस्कृत विश्वविद्यालय
(सूर्योदय पत्रिका, 1942ई. के अंक से उद्धृत। मैंने यहाँ अपना कुछ नहीं लिखा है। केवल इसे सभी लोग पढ़ लें और तब देखें कि इतिहास को कितना छुपाया गया है।)
२- श्रीभारतधर्ममहामण्डलकी श्रीमथुराजी में रजिष्ट्री होते ही आर्य-संस्कृतिकी रक्षा, पूज्यपाद महर्षियोंकी प्राचीन शिक्षा-प्रणालीका यथासम्भव प्रचार, सनातनधर्म और वर्णाश्रमधर्मका वर्तमान देशकालके अनुसार विस्तार और आध्यात्मिक ज्ञानकी अभिवृद्धिके शुभ अभिप्रायसे उसी समय इस महासभाकी सुव्यवस्थाके साथ ही साथ ‘विद्यापरिषद्’के नामसे यह संस्था श्रीमथुरापुरीमें संस्थापित हुई थी। तदनन्तर काशीपुरीमें जब श्रीमहामण्डलका कार्यालय आया, तो इस विश्वविद्यालयका कार्य “श्रीवाराणसी विद्यापरिषद् के नामसे चलता रहा।
तत्पश्चात् जब बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटीकी स्थापना हुई, उस समय गवर्नमेण्ट हिन्द के सम्मुख तीन विश्वविद्यालयोंकी योजनाएँ रक्खी गई। यथा-
1. स्वर्गीय श्रीमान् माननीय मालवीयजीकी योजना,
2. माननीया श्रीमती एनीबेसेन्ट की योजना और
3. श्रीवाराणसी-विद्यापरिषद्की.योजना।
वाराणसी-विद्यापरिषद् की योजनाको स्वर्गीय महाराजाधिराज रमेश्वरसिंह बहादुरने स्वयं अपने दस्तखतोंसे उपस्थित किया था। भारत-गवर्नमेन्टने इन तीनों योजनाओंके पेश होनेपर यह मत प्रकट किया कि, तीनों जबतक एकमत होकर हमारे सम्मुख नहीं आयेंगे, तबतक विश्वविद्यालयकी राजाज्ञा नहीं दी जायेगी।
तदनन्तर ऐक्य स्थापनके शुभ अभिप्रायसे तीनों दलोंके विशिष्ट व्यक्तियोंकी एक सभा दरभङ्गा राजभवन इलाहाबादमें हुई, जिसके सभापति श्रीमान् महाराजाधिराज दरभङ्गा थे। श्रीमान् माननीय मालवीयजी भी उस सभामें उपस्थित थे। माननीया एनी वेसेंट महोदयाके प्रतिनिधिगण भी उपस्थित थे। क्योंकि वे उन दिनों मद्रासमें थीं। मतैक्यमें बाधा हुई श्रीमहामण्डल के व्यवस्थापक श्रीस्वामीजीने यह प्रस्ताव किया था कि, अन्य दोनों स्कीम पश्चिमी यूनिवर्सिटीकी नकल है, इस कारण दोनोंका एकमत होना सम्भव है और होना उचित भी है, परन्तु श्रीमहामण्डलके स्वजातीय विश्वविद्यालयकी जो योजना है, वह वर्तमान समयकी यूनिवर्सिटियोंसे विलक्षण है।
इस कारण उचित यह होगा कि, श्रीमहामण्डलके प्रधान सभापति श्रीमान मिथिलाधिपति महाराजाधिराज रमेश्वरसिंहजी महोदयको अन्य दोनों योजनाओंके सभ्यवृन्द अपना सभापति बना लेवें तथा दोनों एकमत होकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयकी स्थापना करें।
इस शुभ प्रस्तावको सबने प्रसन्न होकर स्वीकार किया था और वर्तमान बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटीकी स्थापना हुई थी। श्रीमहामण्डलने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटीकी स्थापना में इस प्रकारसे पूर्ण सहयोग और सहायता देकर अपने धार्मिक विश्वविद्यालय के मङ्गलमय कार्यको यथा देशकालपात्र जारी रखा।
स्वर्गीय लार्ड मिण्टो जब हिन्दुस्थानके बायसराय थे, उन्होंने श्रीमहामण्डलके पदधारियोंको परामर्श दिया था कि, गवर्नमेन्टकी चलाई हुई विद्याप्रचार की जो नाना योजनाएँ हिन्दुस्थानमें हैं, उनसे पूर्ण रूपसे अलग रहकर महामण्डल अपने ढङ्ग पर सद्विद्या विस्तारकी एक योजना बनावे, तो बहुत अच्छा होगा। यद्यपि महामण्डलके संचालकोंकी ऐसी इच्छा पहलेसे ही थी, तथापि विज्ञ स्वर्गीय लाई मिण्टोके इस सत्परामर्शसे श्रीमहामण्डलके कार्यकर्ताओं को विशेष उत्साह हुआ। दूसरी ओर हिन्दुस्थानके नाना प्रान्तोंमें जो अनेक विश्वविद्यालय स्थापित हैं, उनमें ईश्वर-ज्ञानविहीन धार्मिक शिक्षासे रहित तथा सबको बलपूर्वक एकही रास्तेसे चलाने की जो प्रणाली जारी है, वह अतिभयजनक है। इस प्रकारके अनेक विचारोंके वाद तथा काशीमें अखिल भारतीय ब्राह्मण महासम्मेलनके प्रस्तावके अनन्तर अखिल भारतीय धार्मिकाध्यात्मिक संस्कृत विश्वविद्यालय (आल इण्डिया रिलीजस ऐण्ड स्पिरिचुअल यूनिवर्सिटी) की वर्तमान रूपमें स्थापना की गई। इसका शुभ कार्य धीरे धीरे अग्रसर हो रहा है।”