मिथिला की गंगा के तट का माहात्म्य, चौमथ घाट एवं सिमरिया के सन्दर्भ में

Ganga Mata
मिथिला की गंगा का तट

यह आलेख 2016 ई. में बेगूसराय, संग्रहालय के वार्षिकोत्सव के अवसर पर पढ़ा गया है)

हाल के कुछ वर्षों में पाण्डुलिपियों के अध्ययन एवं प्रकाशन के क्रम में मुझे रुद्रयामल तन्त्र के एक अंश के नाम पर परवर्ती काल में लिखी दो रचनाएँ मिलीं हैं, जिनमें मिथिला के इतिहास एवं भूगोल पर कुछ सामग्री है। एक रचना रुद्रयामलसारोद्धारे तीर्थविधिः के नाम से है जिसका प्रकाशन मैथिली साहित्य संस्थान की शोधपत्रिका मिथिला भारती के नवांक 1 में हुआ है। इसमें कुल 98 श्लोक हैं। इसमें अधिकांश वर्णन मिथिला से बाहर के तीर्थों काशी प्रयाग, गंगा-सरयू संगम क्षेत्र आदि का है, किन्तु घटना चक्र के केन्द्र में मिथिला का गंगातट है, जो बेगूसराय जिला में अवस्थित चमथा घाट है।

ध्यातव्य है कि यह प्रक्षिप्त अंश है, क्योंकि रुद्रयामल तन्त्र की रचना कम से कम 10वीं शती से पहले हो चुकी है। एसियाटिक सोसायटी में ब्रह्मयामल तन्त्र की एक पाण्डुलिपि 1052 ई. में प्रतिलिपि की गयी उपलब्ध है,  जिसमें रुद्रयामल तन्त्र उल्लेख हुआ है। अतः हाल में रुद्रयामल के नाम पर जो तीन अंश उपलब्ध हुए हैं, उनमें से कोई भी अंश आन्तरिक साक्ष्यों के आधार पर 12वीं शती से प्राचीन नहीं हो सकता, अतः इन्हें ऐतिहासिक दृष्टि से परवर्ती प्रक्षेप ही माना जायेगा, जिसकी रचना किसी क्षेत्रीय विद्वान् के द्वारा की गयी है, फलतः इन अंशों में जो भी उल्लेख है वह स्थानीय इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण है।

रुद्रयामलसारोद्धारे तीर्थविधिः के अनुसार पाण्डवग्राम (वर्तमान समस्तीपुर जिला का पाँड गाँव) का एक व्यापारी सुधामा तीर्थाटन करना चाहता है वह अपने गुरु से पूछता है कि मुझे शास्त्र के अनुसार कहाँ कहाँ कैसे तीर्थाटन करना चाहिए। इस प्रश्न पर गुरु उसे तीर्थविधि का उपदेश करते हुए कहते हैं कि अपने घर के सबसे निकट में जो मन्दिर हो वहाँ पहले दर्शन करें फिर अपने गाँव के निकटवर्ती किसी महानदी के तट पर जाकर तीन रात्रि बितावें। इसके बाद हर प्रकार से पवित्र होकर वहाँ से अन्य तीर्थों के लिए यात्रा प्रारम्भ करें।

इस अंश में पाण्डवग्राम से निकटवर्ती गंगातट का स्थान निरूपित करते हुए गुरु उपदेश करते हैं कि गंगा के किनारे एक शेमलग्राम है, जो शाल्मली यानी सेमल के वन के बीच है, वहाँ चतुर्मठ तीर्थ है। हर प्रकार से पवित्र इस तीर्थ पर जाकर तुम तीन रात्रि गंगातट का सेवन करो तब आगे की यात्रा पर निकलोगे। इस उपदेश पर गुरु चतुर्मठ तीर्थ की स्थापना के बारे में कहते हैं कि पूर्व में विदेह के किसी राजा ने भी यहाँ से तीर्थयात्रा आरम्भ की थी। वे जब यहाँ पहुँचे तब इस शेमलग्राम में घनघोर जंगल था, जिसमें ऋषि-मुनि तपस्या कर रहे थे और गंगा का निर्मल तट बहुत सुन्दर था। राजा को यह सब बहुत अच्छा लगा तो उन्होंने यहाँतक पहुँचने का मार्ग बनवाया, चार मठों का निर्माण कराया और तीर्थ पुरोहितों को बसाया। फिर यहाँ के तपस्वियों के साथ धार्मिक चर्चा करते हुए इसी घाट पर तीन रात्रि विताकर नाव से काशी की ओर निकल गये। गंगा और सरयू के जलमार्ग से यात्रा कर वे पुनः अपने दे लौटने के लिए इसी घाट पर उतरे। राजा जब यहाँ पहुँचे तो एक घटना घट गयी। लोगों ने निकटवर्ती गाँव में तुर्कों के द्वारा लूट-पाट का समाचार सुना। राजा थके हुए थे, साथ में सेना भी अधिक नहीं थी, अतः वे चिन्तित हो गये। उऩकी चिन्ता देखकर ऋषि-मुनियों ने कहा कि यह शाल्मलीवन परम पवित्र है, यहाँ जो भी दुष्ट आते हैं वे भगवान् विष्णु की माया से वन में भटककर नष्ट हो जाते हैं। अतः वे तुर्क लोग भी अपने आप नष्ट हो जायेंगे। आपको चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं है। राजा के द्वारा पुनः इस वन के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर ऋषि-मुनि बतलाते हैं कि यह वही स्थान है जहाँ समुद्रमन्थन के बाद देवताओं ने पंक्ति में बैठकर अमृत पीया था। इस तीर्थ की महिमा स्वयं भगवान् शंकर ने कही है। रुद्रयामलसारोद्धार के इस अंश में अमृतपान का केवल संकेत है।

यह संकेतित अंश हमें रुद्रयामलोक्तामृतीकरणप्रयोग नामक लघु रचना में उपलब्ध होता है, जिसका प्रकाशन 2011 ई. में डा. विद्येश्वर झा एवं डा. श्रवण कुमार चौधरी के सम्पादन में हिन्दी अनुवाद के साथ दरभंगा में हुआ है। यह भी तीर्थयात्राविधि के समान ही परवर्ती रचना है। किन्तु इस अंश के आन्तरिक साक्ष्य के आधार पर इसका रचनाकाल 12वीं से 15वीं शती  के बीच माना जा सकता है। इस अंश में भी भयंकर आक्रान्ताओं के द्वारा बलपूर्वक लोगों को दास बनाने का उल्लेख हुआ है। लेकिन यह तीर्थयात्रा विधि से कुछ प्राचीन प्रतीत होता है। क्योंकि गंगातट के जिस स्थान पर अमृतीकरण प्रयोग में केवल सघन वन की चर्चा है वहाँ तीर्थविधि में चार मन्दिरों की स्थापना, सडक-निर्माण आदि का भी उल्लेख है जो परवर्ती विकास है। इतना तो निश्चित ही है कि महाकवि विद्यापति से पहले ही चौमथ घाट का धार्मिक महत्त्व स्थापित था, अतः वे गंगालाभ के लिए यहीं आ रहे थे किन्तु मार्ग में ही उनका देहावसान हो गया, जो स्थान विद्यापति नगर के रूप में चमथा घाट से उत्तर है।

अमृतीकरणप्रयोग में विशेष रूप से समुद्रमन्थन की कथा आयी है। कथा के अनुसार मन्दार पर्वत के पास जब मन्थन से अमृत का घडा निकला तब दैत्यों के राजा बलि उसे झपट कर भाग गया और अपनी राजधानी बलिग्राम (वर्तमान बलिया) जाने के लिए पश्चिम की ओर चला। दैत्य लोग हल्ला करते हुए निकले। देवता भी उन्हें खदेडने लगे। इसी क्रम में बलि ने गंगा के उत्तरी तट से होकर भागने का प्रयास किया, किन्तु यहाँ शाल्मलीवन में आकर भटक गया। उसके साथ चल रहे सभी दैत्य आपस में झगडने लगे कि रात में ही हमलोग अमृत बाँटकर पी लेते हैं। इसी समय भगवान् विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर वहाँ पहुँचे तो सारे दैत्य उस रूप पर मोहित हो गये और अमृत पिलाने के लिए मोहिनी को ही आग्रह करने लगे। मोहिनी ने कहा कि यह अमृत है, रात्रि में इसे पीने के बजाय कल प्रातःकाल गंगा में स्नान आदि करके पीना बेहतर रहेगा। सारे दैत्य उनकी बात मान गये। रात में बलि ने वहीं ठहरने की व्यवस्था की। प्रातःकाल जबतक दैत्य लोग स्नान कर तैयार होते तब तक सभी देवता भी वहाँ पहुँच गये। इसपर मोहिनी ने बलि से कहा कि गृहस्थों का कर्तव्य है कि आये हुए अतिथि को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करे। अतः इन देवताओं को सबसे पहले बैठाना चाहिए। मोहिनी के रूप से मोहित दैत्यों ने इसे भी स्वीकार कर लिया। योजनानुसार सभी देवता गंगा के तट पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। उनकी पंक्ति हिमालय तक पहुँच गयी। इससे उत्तर बलि एवं दैत्य गण बैठे।फिर अमृत बाँटने तथा राहु के द्वारा छल करने की कथा जो हर जगह है वहीं यहाँ भी कही गयी है। अंतर इतना है कि राहु का सिर काटने के बाद जब दैत्यों ने फिर विष्णु से अमृत घट छीनने का प्रयास किया तो उन्होंने इसी शाल्मलीतीर्थ में खाली घडा फेंक दिया। घडा में जितना अंश अमृत का लगा हुआ था उससे यहाँ की गंगा अमृतमयी हो गयी और तीर्थ महिमामण्डित हो गया।

इस कथा के अनुसार अमृत का बँटवारा उसी स्थान पर हुआ था, जहाँ बाद में मिथिला के राजा ने चतुर्मठ तीर्थ की स्थापना की। वहाँ चार मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख है।

इस प्रकार रुद्रयामल के स्थानीय परवर्ती प्रक्षेप के आधार पर ऐतिहासिक दृष्टि से चमथा घाट का महत्त्व स्पष्ट होता है।

तस्माच्छेमलग्रामं       जाह्नवीतीरसंस्थितम्।
शाल्मलीवनसंच्छन्नं  मुनिभिः सेवितं शुभम्।।26।।
वैदेहकैः  सदा(सेव्यं गन्त)व्यं    प्रथमं   त्वया।
स्थाण्वीश्वरं शिवं नत्वा गच्छ गंगातटं प्रति।।27।।

     सुधामोवाच

सुर(म्यो सेमल)ग्रामः सुरम्यं   जाह्नवीतटम्।
रम्या  सरिद्वरा तत्र धर्मस्तिष्ठति  देहवान्।।28।।
केनेदं  निर्मितं  तीर्थं  केनेदं  ख्यापितं भुवि।
तत्सर्वं  श्रोतुमिच्छामि  पुरावृत्तं  शुभप्रदम्।।29।।

     गुरुरुवाच

कश्चिद्  वैदेहको  राजा  प्रजापालनतत्परः।
धर्मिष्ठः साधुशीलश्च  बभूव भुवि विश्रुतः।।30।।
वार्द्धक्ये ज्येष्ठपुत्राय राज्यं दत्वा  विधानतः।
गन्तुं तीर्थानि भूयांसि  मुक्तिक्षेत्राणि भूतले।।31।।
स   च  विप्रं  पुराणज्ञं   धर्मकर्मबहुश्रुतम्।
कृत्वा सहायं  प्रययौ  तीर्थानि  सपरिच्छदः।।32।।
शाल्मली  तरुसंच्छन्ने  स्नानार्थं  समुपागतः।
दृष्ट्वाश्रमान् मुनीनां तु  रेमे स मन्त्रिभिः सह।।33।
त्रिरात्रं  संव्यतीयाय  तत्र  कृत्वा निजाश्रमम्।
तेन मार्गाश्च  कृताः तीर्थिकाश्च प्रतिष्ठिताः।।34।।
तस्माच्छेमलग्रा(मो) भूतले        सुप्रतिष्ठितः।
चत्वारो   मठास्तत्र   राज्ञा  निर्मिताः शुभाः।।35।।

…………………………………………………..

संप्राप्य   शेमलग्रामं   परं  मुदमवाप  सः।
वीक्ष्य हर्षान्विताः सर्वे तीर्थिकाः समुपागतम्।।60।।
मंगलानि   समाचक्रुः  स्वस्तिवाचनतत्पराः।
राजा स्वदेशं सम्प्राप्य स्वस्थोऽभूद् विनयान्वितः।।61।।
तस्मिन्नेव  क्षणे  दिक्षु  भयार्तानां भयंकरः।
सम्मर्दः  प्रथितस्तत्र   जनानां शोककारकः।।62।।
सर्वे  विस्मयं  जग्मुः श्रुत्वा कोलाहलं परम्।
किमभूदिति  संज्ञातुं  भेजिरे धावकाः दिशः।।63।।
ते  चागत्य  तुरुष्कानां लुण्ठकानां भयंकरम्।
वृत्तान्तं        कथयामासुर्जनसंहारकारकम्।।64।।
तीर्थयात्राश्रमक्लान्तो  राजाभूदति  दुःखितः।
शस्त्रास्त्ररहिताः  सर्वे  हताशाः ग्लानिमादधुः।।65।।
दृष्ट्वा  भीतं   नृपं  प्राहुर्मुनयस्ते तपोधना।
शोकं मा कृथाः  राजन्  धैर्यं धेहि महामते।।66।।
यास्यन्ति संक्षयं शीघ्रं तुरुष्काः धनलुण्ठकाः।
आगमिष्यन्ति   ते  शीघ्रमत्रैव  सपरिच्छदाः।।67।।
अस्य तीर्थ  प्रभावेण सर्वे यास्यन्ति संक्षयम्।
शाल्मलीवृक्षसंच्छन्ने भ्रान्ताः यास्यन्ति निर्बलाः।।68।।
विष्णोर्माया  भगवती  यया संमोहितं जगत्।
मोहयिष्यति  तान्  पापानत्रैव  शाल्मलीवने।।69।।
समुद्रमथनाज्जातमपहृत्य         सुधाघटम्।
दानवा  आगता  अत्र   पूर्वकाले  नृपोत्तम।।70।।
वनेऽस्मिन् तेऽपि दिग्भ्रान्ताः सुधां पातुं कृतोद्यमाः।
मोहिन्या   मोहिताः  सर्वे   तेनुर्वैरं   परस्परम्।।71।।
विष्णोः    प्रसादादत्रैव  पश्चाद्देवगणास्ततः।
चक्रः सम्यक् सुधापानं दानवाश्च प्रवंचिताः।।72।।
ततः   कालादिदं तीर्थं ख्यातं भुवि महामते।
तस्मान्नाद्य   भेतव्यं   तुरुष्कास्तु  परस्परम्।।73।।
युद्धं कृत्वा स्वयं सद्यो यास्यन्ति धनवंचिताः।।

राजोवाच

अहो किमिति माहात्म्यं कथितंमे त्वया मुने।
तीर्थस्यास्य पुरावृत्तं  भीतिर्मे  निर्गता क्षणात्।।74।।
अथान्यदपि  माहात्म्यं  यदि तीर्थस्य विद्यते।
तदहं     श्रोतुमिच्छामि    पुरावृत्तान्तदर्शन।।75।।

मुनिरुवाच

अस्य तीर्थस्य माहात्म्यं स्वयं रुद्रेण भाषितम्।
गौर्या  पृष्टो  हिमवति  कैलाशशिखरे पुरा।।76।।
धन्वन्तरित्रयोदश्याः माहात्म्यं प्रथितं भुवि।
कार्तिके कृष्णपक्षे तु सवितोदयगामिनी।।77।।
त्रयोदशी तिथिः साक्षाद्धनारोग्यविवर्द्धिनी।
घटं संस्थाप्य यः कश्चित्पूजां कृत्वा विधानतः।।78।।
आत्मानमभिषिंच्यैव रोगमुक्तो भवेन्नरः।
एतद् व्रतस्य माहात्म्यं रुद्रेण प्रथितं भुवि।।79।।
तदहं कथयिष्यामि शृणु राजन् समासतः।।

इति रुद्रयामलसारोद्धारे तीर्थयात्राविधाने प्रथमोऽध्यायः।

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