(स्रोत- पं. रमाकान्त ठाकुर कृत पौरोहित्यकर्म्मसार। ई रमाकान्त ठाकुर लोहना गामक निवासी छलाह आ महाराज रमेश्वर सिंहक आज्ञासँ मिथिलामे उपयोगक लेल कर्मकाण्ड पर प्रामाणिक पुस्तक लिखने रहथि।)

एहि विधिकें मिथिलामे मन्त्र-ग्रहण सेहो कहल जाइत छैक। ई तान्त्रिक परम्परामे दीक्षा थीक। एकरे मिथिलासँ बाहर गुरुमुख होएब कहल जाइत अछि। एहि प्रकारें दीक्षा लेलाक बाद ओ व्यक्ति ओहि मन्त्रक साधना करबाक अधिकारी भए जाइत छथि। व्यवहारमे ई अछि जे जे मन्त्र नै नेने छथि ओ उपनयनमे सेहो आचार्य नै भए सकैत छथि। जेना ब्राह्मणमे उपनयन अनिवार्य अछि तहिना मिथिलामे सभ वर्णमे दीक्षा आवश्यक मानल गेल अछि।

दीक्षा की होइत अछि?

गुरुक मुँहसँ अपन इष्टदेवताक मन्त्र ग्रहण करब दीक्षा थीक। संग्रह ग्रन्थमे एकर लक्षण कहल गेल अछि-
दीयते ज्ञानमत्यन्तं क्षीयते पापसञ्चयः।
तस्माद्दीक्षेति सा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्तववेदभिः।।
दिव्यं ज्ञानं यतो दद्यात् कुर्यात् पापस्य संक्षयम्।
तस्माद् दीक्षेति सा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्ववेदिभिः।।

संग्रह ग्रन्थमे दीक्षाक आवश्यकता कहल गेल अछि जे सभटा जपक जड़िमे दीक्षा अछि। परम तपस्याक सेहो जड़ि दीक्षे थीक। जाहि कोनो आश्रममे रही दीक्षा लए कें सुखपूर्वक निवास करी। विना दीक्षा नेने जे केओ किछु जप, पूजा-पाठ आदि काज करैत छथि हुनका ओ फल नै भेटैत छनि, जेना पाथर पर बाओग कएल बीया नै जनमै छै। हे देवी, जे दीक्षा नै नेन छथि हुनका सिद्धि नै भेटै छनि आ ने उत्तम गतिए भेटैत छनि। तें सभ तरहें गुरुक मुँहें दीक्षा ग्रहण करबाक चाही।

एहि अर्थवादसँ सिद्ध होइत अछि जे दीक्षा आवश्यक अछि। एकर बाद दीक्षाक विना कोन-कोन दुर्गति होइत छैक तकरो वर्णन ग्रन्थ सभमे भेटैत अछि।
एतए ई बुझबाक चाही जे मिथिलाक परम्परामे दीक्षाक महत्त्व बेसी अछि। पुरुष अपन मायसँ लेथि, मायक नै रहला पर पितामही, पितिआइन आदिसँ सेहो लेबाक परम्परा अछि। स्त्रीगण अपन सासुसँ दीक्षा लेथि, ई उत्तम पक्ष थीक आ शिष्ट परम्परामे अछि।

कोन देवताक मन्त्र ग्रहण करी?

मिथिलाक किछु परिवारमे परम्परा अछि जे हुनक वंशमे केओ समर्थ साधक भए गेल छथि आ हुनके मन्त्र ओहि समस्त कुलमे देल जाइत अछि। ई कौलिक मन्त्र कहबैत छैक। संगहि इहो परम्परा छैक जे सात पीढी धरि जँ एके मन्त्रक दीक्षा किनकहु वंशमे छनि तँ ओएह मन्त्र हुनका लेल कौलिक मन्त्र होइत अछि। अपन दियाद-बादमे पता लगावी जे कौलिक मन्त्र छैक अथवा नहिं। जँ कौलिक मन्त्र अछि तँ ओही मन्त्रक दीक्षा ली।

जँ कौलिक मन्त्र नै अछि तँ दीक्षा नेनिहार व्यक्तिक नाम, राशि आ नक्षत्रक आधार पर मन्त्र अँटाओल जाइत छैक। ओहि लेल कोनो पण्डितसँ सम्पर्क करी। पं. गङ्गाधर मिश्र द्वारा सम्पादित म.म. अमृतनाथक कृत्यसारसमुच्चयक परिशिष्ट भागमे मन्त्र अँटएबाक विधि विस्तारपूर्वक देल अछि। संगहिं इसहपुर गामक पं. माधव झा सेहो मन्त्र अँटएबाक लेल एकटा नीक पोथी मैथिलीमे प्रकाशित कएने रहथि। कोनो नीक ज्योतिषी सेहो शास्त्रक अनुसार मन्त्र अँटाए दए सकैत छथि।

मिथिलामे दशमहाविद्यामेसँ कोनो एक देवीक मन्त्र लेबाक परम्परा अछि। इएह “इष्टदेवता” कहबैत छथि आ हुनक मन्त्र जे गुरु कानमे देने छथि ओ “इष्टमन्त्र” कहबैत अछि। पद्धतिमे जतए कतहु “मूलमन्त्र” “मूलम्” शब्द रहैत अछि, ओतए एही मन्त्रक संकेत बुझबाक चाही।

मन्त्र लेलाक बाद कहियो इष्टदेवताक नाम आ हुनक मन्त्र दोसर व्यक्तिक सोझँ नै बाजी। केवल गुरुक संकेत कएल जा सकैत छैक।

दीक्षाक लेल शुभ समय

गौतमीय तन्त्रक अनुसार मास आ ओकर फल एहि प्रकारें कहल गेल अछि
चैत्र- दुःख
वैशाख- रत्नक प्राप्ति
ज्येष्ठ- मृत्यु
आषाढ- बन्धुनाश
श्रावण- कामनासिद्धि
भाद्र- सन्ततिक नाश
आश्विन- सुख
कार्तिक- मन्त्रसिद्धि
अग्रहायण- मन्त्रसिद्धि
पौष- शत्रुसँ कष्ट
माघ- विद्या-बुद्धिक लाभ
फाल्गुन- सभ कामनाक सिद्धि
एकर अतिरिक्त मलमासमे दीक्षा नहिं ली।

जँ आश्विनक नवरात्रमे दीक्षा ली तँ ओहि समयमे दुर्गा घरे-घरे रहैत छथि तें मास आ नक्षत्र आदिक कोनो विचार करबाक आवश्यकता नहिं। तें आसिनक नवरात्रमे मन्त्र लेब सभसँ बेसी प्रचलित अछि।

किनकासँ दीक्षा लेबाक चाही ?

पितासँ दीक्षा नै लेबाक चाही। मातामह (नाना)सँ सेहो दीक्षा नै ली। सोदर छोट भाइसँ सेहो दीक्षा नै ली आ शत्रुक दिस जे छथि तिनकहुसँ दीक्षा नै लेबाक चाही। पत्नी पतिसँ दीक्षा नै लेथि। पिता बेटा-बेटीकें दीक्षा नहिं देथि। भाइ सेहो भाइकें दीक्षा नै देथि। मिथिलामे संन्यासीसँ सेहो दीक्षा लेबाक निषेध अछि। वनमे रहनिहार लोकसँ सेहो दीक्षा नै लेबाक चाही, संगहि जे विरक्त भेल छथि हुनकोसँ दीक्षा नै लेबाक चाही।

महिलासँ लेल दीक्षा शुभ फल दैत अछि आ मातासँ लेल दीक्षा तँ आठ गुना अधिक फल दैत अछि। आ जे मन्त्र स्वप्न मे भेटि जे ओतए तँ कोनो विचारे नै करबाक चाही।
तीर्थमे आ ग्रहणकालमे समयक लेखा-जोखा नै करबाक चाही। मुदा चन्द्रग्रहणमे सूर्य, विष्णु आ शक्तिक मन्त्र नै ली।

आनठाम गृहस्थकें संन्यासी, वैरागी आ वानप्रस्थी दीक्षा दैत छथि से नीक बात नहिं। गृहस्थ कें गृहस्थ आ संन्यासी कें सन्यासी, वानप्रस्थी कें वानप्रस्थी आ वैरागीकें वैरागी दीक्षा देथि सैह उत्तम पक्ष थीक। शास्त्र एकरे नीक कहैत अछि।

एहि प्रकारें जँ कोनो तरहें सम्भव हो तँ पुरुष माय, पितिआइन, पितामही आदि सँ दीक्षा लेथि आ महिला सासुसँ दीक्षा लेथि। ई उत्तम पक्ष थीक। मिथिलामे कुलगुरुक सेहो परम्परा अछि। गाममे किछु गृहस्थ परिवार कुलगुरुक रूपमे होइत रहलाह अछि। अपन वंश-परम्पराक कुलगुरुसँ सेहो दीक्षा लेल जा सकैत अछि।

दीक्षाक विधि

पूर्व दिन गुरु आ शिष्य एकभुक्त करथि। पुरुष जँ पुरुष कें दीक्षा देथि तँ दूनू पूर्व दिन केश सेहो कटाबथि।
दोसर दिन प्रातः गुरु आ शिष्य अपन नित्य-पूजा कए, नवीन आ विना काटल जोड़ा वस्त्र पहीरथि। एक खण्ड धोती पहीरि दोसर खण्ड कें तौनी जकाँ ओढि लेथि।
गुरु सुन्दर आसन पर पूब मुँहें बैसि देल जाए वला मन्त्र ओहि मन्त्रक देवताक पूजा करथि आ यथाशक्ति ओकर जप करथि।
तकर बाद शङ्खकें बैसकी पर राखि ओहिमे जल भरि अक्षत दए ओहि शङ्खक पूजा करथि।
तकर बाद सभ प्रकारें तैयार शिष्यकें अपन आगाँमे पश्चिम मुँहें बैसावथि। आठ टा दूबि लए ओहि शंखक जलसँ आठ बेर मूलमन्त्र जपैत शिष्यक माथ पर जल देथि।
परम्पराक अनुसार एकर बाद शिष्य पानक पात, सुपारी, आर आन फल एवं किछु टाका बाँसक कोनियाँमे लए गुरुक पयर पर राखथि।

एकर बाद जाहि घरमे मन्त्र देल जा रहल अछि, ओहिघरसँ गुरु आ शिष्यक अतिरिक्त सभकें हटाए एकान्त करी।
तखनि गुरु शिष्यक माँथकें वस्त्रसँ झाँपि शिष्यक माथ पर अपन दहिना हाथ राखि आठबेर देल जाएवला मन्त्रक जप करथि।
पुरुष शिष्यक दहिना कानमे तीन बेर आ वामा कानमे एक बेरि
महिला शिष्यकें वामा कानमे तीन बेरि दहिना कानमे एक बेरि
मन्त्र कहथिन्ह।
तकर बाद मन्त्रक जप करबाक विधि आ देवताक पूजा लेल विशेष विधानक उपदेश देथि।
तकर बाद शिष्य ओहि मन्त्रसँ ओहि देवताक पूजा करथि।
तकर बाद शिष्य यथाशक्ति मन्त्र जपि देवताकें समर्पित कए गुरुकें सेहो यथाशक्ति दक्षिणा देथि।
देवताकें समर्पित करबाक मन्त्र-
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत् कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्महेश्वरि।।

गुरुदक्षिणाक संकल्प

कुश तिल आ जल लए-
ॐ अद्य कृतैतद् अमुकमन्त्रसंगतार्थं हिरण्यम् अग्निदैवतम् अमुकगोत्राय अमुकशर्मणे ब्राह्मणाय गुरवे दक्षिणां तुभ्यम् अहं संप्रददे।
एहिसँ गुरुक हाथमे कुश, तिल आ जल दी।

गुरु ई मन्त्र पढथि- ॐ स्वस्ति
तकर बाद गुरुकें यथाशक्ति रुपया, सोना आदि अर्पित करी। गुरु कें दण्डवत् प्रणाम करी।
गुरु ई मन्त्र पढैत शिष्य कें उठाबथि-
ॐ उत्तिष्ठ वत्स मुक्तोसि सम्यगाचारवान् भव।
कीर्ति-श्रीः-कान्तिमेधायुर्बलारोग्यं सदास्तु ते।।

तखनि गुरु पूजित देवताक विसर्जन करथि। शिष्य हुनका भोजन कराबथि। संगहिं आनो ब्राह्मण, कुमारि आ ऐहब-सुहब कें खुआबथि तखनि स्वयं भोजन करथि।

इति दीक्षाविधि

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