(मिथिलाक परम्परामे तन्त्रक महत्त्व सर्वविदित अछि। एतय तान्त्रिकलोकनि एहि विधिसँ अपन समस्त दैनिक कर्म करैत साधना करैत छथि। पाठकलोकनिक आग्रह पर एहि ठाम तान्त्रिक विधिसँ आह्निक कृत्य देल जा रहल अछि। एतय सभसँ पहिने ई कहि देब आवश्यक जे जे केओ दीक्षा लए चुकल छी हुनके लेल ई आह्निक कर्म अछि। अदीक्षित कें एहिमे अधिकार नै अछि। तें सभसँ पहिने मिथिलाक तान्त्रिक परम्पराक अनुरूप दीक्षा लए ली।)

(एतय प्रामाणिकताक दृष्टिसँ बाबू ललितेश्वर सिंह द्वारा सम्पादित तन्त्राह्निक-पद्धतिसँ ई विधि देल जा रहल अछि। पुस्तक खरिदबाक लेल सम्पर्क करी।)

दीक्षा विधि पढबाक लेल एतए दबाउ।>>

।।अथ तन्त्राह्निकः प्रारम्भः।।
प्रणम्य कालीं कमलासनादिसमर्चितामर्च्चकसिद्धिदात्रीम्।
लोकोपकाराय करोम्यदीर्घं तन्त्राह्निकं मैथिलवाक्सुबोधम्।।1।।
प्रातःकृत्यं तथा स्नानं सन्ध्यावन्दनमेव च।
तर्प्पणं पूजनं रात्रिकृत्यं संक्षिप्य लिख्यते।2।।

अथ प्रातःकृत्यम्।।
सूर्योदयसँ 4 दण्ड पूर्व ब्राह्ममुहूर्त मध्य उठि मुख नेत्र प्रक्षालित कय वस्त्रान्तर पहिरि माथ पर सहस्रदल कमल मध्य गुरुक ध्यान करी। यथा,

स्त्रीगुरुक ध्यान
सहस्रारे महापद्मे किञ्जल्कगणशोभिते।
प्रफुल्लपद्मपत्राक्षीं घनपीतपयोधराम्।।
प्रसन्नवदनां क्षीणमध्यां ध्यायेच्छिवां गुरुम्।
पद्मरागसमाभासां रक्तवस्त्रसुशोभनाम्।
रत्नकङ्कणपाणिञ्च रक्तनूपुरशोभिताम्।
स्थलपद्मप्रतीकाशपादद्वन्द्वसुशोभिताम् ।
शरदिन्दुप्रतीकाशां रत्नोद्भासितकुण्डलाम्।।
स्वनाथवामभागस्थां वराभयकराम्बुजाम्।।
केसरगणसँ शोभित जे सहस्रकमल तत्र स्थिता कमलक फूलसन नेत्र ओ स्थूल पयोधर तथा प्रसन्नमुखी ओ पातर डाँड़ तथा पद्मराग (माणिक माने लालमणि)सदृश कान्ति, रक्तवस्त्र पहिरने अत्यन्त सुशोभिता। रत्न सँ जड़ित कङना हाथमें पहिरने ओ रक्तनूपुर पैरमें पहिरने ताहिसँ सुशभिता थलकमल सन लाल दूनू पैर सँ सुशोभिता शरद् ऋतुक चन्द्रमासन स्वच्छ तेजोवती दूनू कान में रत्नरचित कुण्डलसँ उद्योतिता ओ स्वकीय पुरुषक वाम भागमे स्थिता दूनू हाथ मे वर ओ अभय धारण कयने गुरुक ध्यान करी।

।। पुरुष गुरुक ध्यान।।
शशाङ्कायुतसंकाशं वराभयलसत्करम्।
शुक्लाम्बरधरं श्रीमच्छुक्लमाल्यानुलेपनम्।।1।।
वामोरौ रक्तशक्त्या च युतन्देवाख्यमध्ययम्।
शिवेनैक्यं समं नीय ध्यायेत् परगुरुं शिवम्।।2।।
माथपर सहस्रदल कमल मध्य अयुत (दश सहस्त्र चंद्रमा सदृश देदीप्यमान दुनू हाथमे वर ओ अभय धारण कयने स्वच्छ वस्त्र पहिरने श्वेत माला धारण कयने ओ श्वेत चंदन लगौने। वाम जाँघ स्थित रक्तवर्ण अपन शक्तिसँ सय्युँत गुरुदेव कें शिवक संग ऐकीकरण कय। शिव स्वरूप एतादृश परगुरुक ध्यान करी।।

एहि तरहक ध्यान कय मानसोपचारें पूजा करी यथा
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं गुरवे समर्प्पयामि।
एहि मन्त्रें कनगुरिआ ओ अंगुठाक संयोगरूप मुद्रासँ गंध दय

हं आकाशात्मकं पुष्पं गुरवे समर्प्पयामि ।
एहि मन्त्रें अंगुठाक योगरूप मुद्रासँ ‘‘पुरुष’’ दय

यं वाय्वात्मकं धूपं गुरवे समर्प्पयामि ।
एहि मन्त्रें तज्र्जनी ओ अंगुठाक योगरूप मुद्रासँ ‘‘धूप’’ दय

रं वह्न्यात्मकं दीपं गुरवे समर्प्पयामि ।
एहि मन्त्रें मध्यमा ओ अंगुठाक योगरूप मुद्रा सँ ‘‘दीप’’ दय

वं अमृतात्मकं नैवेद्यं गुरवे समर्प्पयामि ।
एहि मन्त्रें अनामिका ओ अंगुठाक योगरूप मुद्रासँ ‘नैवेद्य’ दय।

‘ऐं, ई गुरुमन्त्र 1000 या 108 अथवा 10 वा 8 बेरि जप कय समर्प्पण करी। तखन
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
यया चोन्मीलितञ्चक्षुस्तस्यै[1] श्रीगुरवे नमः।।

(1. ….यया चक्षुरुन्मीलितन्तस्यै नित्यं नमो नमः। ई मातृकाभेदतन्त्रमे पाठान्तर अछि। ओ पुरुषगुरुक प्रणाम मे ” “चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः“ एहि तरहक ऊह कर्तव्य। आचारो एही तरहक अछि।)

ई मन्त्र पढ़ि प्रणाम कय हुनक आज्ञा लय। मूलाधारसँ ब्रह्म रन्ध्रपर्य्यन्त साढे़ तीनि आवर्त्तक आकार छैन्हि जनिका, एतादृशी ओ इष्टदेवतारूपा तेजोवती मूलाधारवासिनी कुण्डलिनीक ध्यान करी। यथा

ध्यायेत् कुण्डलिनीशक्तिं विशतन्तुस्वरूपिणीम्।
प्रसुप्तां भुजगाकारां सार्द्धत्रिवलयान्विताम्।।
मुखे मुखन्तु सय्योँज्य स्वयम्भूलिङ्गवेष्टिनीम्।
वह्नीन्द्वर्क्कतडित्पुञ्जप्रभां चैतन्यरूपिणीम्।

तखन ‘हूँ, ई अंकुश रूप मन्त्रसँ कुण्डलिनीकें उठाय वायु अग्निक योगमे चैतन्य कराय ब्रह्ममार्गे अर्थात् ब्रह्मनाड़ी द्वारा ‘हंसः, एहि मन्त्रें दीपशिखाकार जीवात्माक संग मूलाधार स्वाधिष्ठान मणिपूरक अनाहत विशुद्ध आज्ञा एहि षट्चक्रक भेदन कराय जीवकेँ परमात्माविषैं सय्युँक्त कराय भेदन कराय जीवकें परमात्माविषयें सय्युँक्त कराय उक्त मानसोपचारें आराधना कय मूलमन्त्र यथाशक्ति जपि जपक समप्र्पण कय ‘सोऽहं, एहि मन्त्रें जीवात्मा ओ कुण्डलिनीकें अपन अपन स्थानमें आनि प्रणाम करी। यथा

प्रकाशमानं प्रथमे प्रयाणे प्रति प्रयाणेऽप्यमृतायमानाम्।
अन्तःपदव्यामपि सञ्चरन्ती मानन्दरूपामवलाम्प्रपद्ये।।
एहि मन्त्रें प्रणाम कय। तखन हुनक तेजोमय अपन शरीरक चिन्ता करी यथा।

अन्तदेवी न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहन्न शाकभाक्।
सच्चिदानन्दरूपोऽहं नित्यमुक्तस्वभाववान्।।
परदेवेन हृदये प्रेरितस्तत्करोम्यहम्।
न मे किञ्चित् कदाचिद्वा कृत्यमस्ति जगत्त्रये।।
जानामि धर्म्मन्न च मे प्रवृत्तिर्ज्जानाम्यधर्म्मन्न च मे निवृत्तिः।
कयाऽपि देव्या हृदि संस्थयैव यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।
एहि मन्त्र सभसौं। तखन
त्रैलोक्यचैतन्यमयीश्वरेसि श्रीपार्वति त्वच्चरणाज्ञयैव।
प्रातः समुत्थाय तव प्रियार्थं संसारयात्रामनुवर्त्तयिष्ये।।
एहि मन्त्रें प्रार्थना कय।
समुद्रमेखले देवि पर्व्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।।
प्रियदत्तायै भूम्यै नमः।।
एहि मन्त्रें पृथ्वीक प्रणाम कय ये श्वास तत्काल चलैत रहै से पैर पहिलें भूमि मध्य दय दोसर पैर दी। तखन
क्लीँ कामदेवाय नमः।
एहि मन्त्रें दतमनि अभिमन्त्रित कय करी।।

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