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    • जानकीपूजाविधि, (जानकीसहस्रनाम सहित), लेखक- पण्डित श्री शशिनाथ झा

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      September 21, 2021
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      मानवीय संवेदनाओं को समेटती डा. धीरेन्द्र सिंह की मैथिली कविताएँ- "कदमों के ...

      September 6, 2021
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      मनबोधकवि कृत कृष्णजन्म (प्रबन्धकाव्य), डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
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      विद्यापति कृत कीर्त्तिलता, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
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    • विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      विद्यापति कृत कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका, डा. शशिनाथ झा द्वारा सम्पादित

      May 2, 2021
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    • अपभ्रंश काव्य में सौन्दर्य वर्णन

      अपभ्रंशकाव्य में सौन्दर्य वर्णन -डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
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    • डाकवचन-संहिता

      डाकवचन संहिता (टिप्पणी-व्याख्या सहित विशुद्ध पाठ, सम्पूर्ण)- डॉ. शशिनाथ झा

      April 30, 2021
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    • मातृनवमी

      मातृनवमी के दिन क्यों कराते हैं पितराइन भोज

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      ‘पितर’ के अर्थ में ‘अग्निष्वात्ताः’ शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है?

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Home›इतिहास›History of Panji in Mithila and its relevancy

History of Panji in Mithila and its relevancy

By Bhavanath Jha
September 11, 2019
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a folia of palm leaf

पंजीक इतिहास आ ओकर प्रासंगिकता

मिथिलाक पंजी एकटा आनुवंशिक विवरणी थीक, जाहिमे व्यक्तिक परिचयक लेल निम्नलिखित छह सूचना देल गेल अछि- पिता, मातामह एवं माता के मातामहक नाम आ एहि तीनूक मूल-ग्रामक नाम। एहि प्रकारें माता एवं पिता दिस सँ प्राप्त आनुवंशिक गुणक आधार पर कोनो व्यक्तिक पूर्ण विवरण एहिमे लिखल गेल अछि। संगहि कोनो व्यक्तिक विरुद, जेना- महामहोपाध्याय, सदुपाध्याय, उपाध्याय, वैयाकरण, मौहूर्तिक, कवि, कविराज, भाषाकवि, धर्माधिकरणिक, पार्णागारिक आदि आस्पद सभ भेटैत अछि जाहिसँ हुनक व्यक्तित्व सेहो जानल जा सकैत अछि।
बादमे आबि एही आधार पर दूषण पंजी सेहो लिखाएल जाहिमे त्याज्य परिवारमे वैवाहिक सम्बन्ध कएनिहार व्यक्तिकें इंगित कए हुनक वंश-परम्परा लिखाएल। मुदा ई सभ मूल पंजीक अनुप्रयोग छल। एहि आलेखमे पंजीक इतिहास, इतिहासक दृष्टि सँ पंजीक उपयोग आ एकरा सम्बन्धमे पसरल अथवा पसारल गेल भ्रान्ति आ पंजीकें आधुनिक उपयोगक लेल सक्षम बनएबाक भावी गतिविधि सभक विवेचन हमर अभीष्ट अछि।

पंजी-परम्परा कहियासँ?

  • वाल्मीकीय रामायणक बालकाण्डमे राम-जानकी विवाहक अवसर पर वर आ कन्याक कुलक वर्णन आएल अछि। एहि प्रसंग मिथिलाक दिससँ शतानन्द कहैत छथि जे हे मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ, कन्यादान करबाक काल कुलीन व्यक्ति अपन कुलक वर्णन करैत छथि तें अहूँ ई सुनू। एहिसँ सिद्ध होइत अछि जे मिथिलामे एकर परम्परा बड़ प्राचीन कालसँ अछि।
  • सातम शतीमे कुमारिल भट्ट सेहो तन्त्रवार्तिक (1.2.2) मे एकर उल्लेख कएने छथि जे “महाकुलीन लोकनि विशेष रूपसँ प्रयास कए अपन रक्षा करैत छथि। एही कारणें राजा आ ब्राह्मण सभ अपन पिता पितामह आदिक परम्परा कें स्मरण रखबाक लेल समूहलेख्य बनौलनि। संगहि प्रत्येक कुलमे गुण आ दोष रहैत छैक तें ओकरा देखैत वैवाहिक सम्बन्धक लेल प्रयास कएलनि अथवा ओहि कुलक त्याग कएलनि।” एहिसँ स्पष्ट होइत अछि जे मिथिलामे सातम शतीमे सेहो वैवाहिक सम्बन्ध बनेबामे पंजी लीखि रखबाक परम्परा छल, जकर नाम समूहलेख्य छल।
  • कर्णाट राजवंशक शासक हरिसिंहदेवक जन्म 1213 शक संवत् अर्थात् 1294 ई.मे भेल छल। हुनक जन्मसँ 32 वर्षक बाद ब्राह्मणलोकनि एहि पंजीकें फेरसँ सुव्यवस्थित कएलनि, जे विश्वचक्र कहौलक। एहि कालमे मूल आ ग्राम निर्धारित करबाक संकेत भेटैत अछि। ई सूचना 16म शतीमे पडुआ वंशक रघुदेव अपन ग्रन्थक आरम्भिक श्लेकमे दैत छथि। संगहि  कहैत छथि जे जकरा प्राचीन कालमे विश्वचक्र कहल गेल छल से हमरासनक ब्राह्मणकें देल गेल।
  • उपर्युक्त रघुदेव 16म शतीमे उपलब्ध सामग्रीक आधार पर  पंजीक निर्धारण कएलनि, जे आधुनिक पंजीक आधार-ग्रन्थ थीक।
  • खण्डवलाकुलक माधव सिंह बहुत रास सामाजिक सुधारक काज कएलनि। एहि कालमे अबैत-अबैत हमरालोकनि वैवाहिक सम्बन्धक सीमामे संकीर्णता आबए लागल अछि। एहि कालसँ पूर्वक उपलब्ध पंजीमे ई संकीर्णता हमरालोकनि नहिं देखैत छी। एहिसँ प्रतीत होइत अछि जे एहि कालमे सेहो पंजीमे कोनो ने कोनो निर्धारण अवश्य कएल गेल अछि

एहि ऐतिहासिक विवेचनसँ हमरालोकनि देखैत छी जे पंजीक परम्परा मिथिलामे अदौ सँ रहल अछि। मुदा एकटा पैघ भ्रान्ति छैक जे पंजीक व्यवस्था (?) हरिसिंहदेवक आरम्भ कएल थीक। आ पंजीक लेल हरिसिंहदेवी व्यवस्था शब्दक सेहो प्रयोग बहुत दिन धरि होइत रहल अछि। एतय पंजीक संग हरिसिंहदेवक सम्बन्ध पर किछु विचार आवश्यक प्रतीत होइत अछि।

अनेक इतिहासकारक बीच ई भ्रान्ति पसरल अछि जे हरिसिंहदेव पंजी-व्यवस्था आरम्भ कएलनि। प्रो. रमानाथ झा लिखैत छथि-
“महाराज हरिसिंहदेव ने व्यवस्था दी की सभी ब्राह्मणों के परिचय संगृहीत किये जायं और उन्हें खास-खास विशिष्ट पंडितों के जिम्मे कर दिये जायं। वे पंडित-जन ही अधिकार का निर्णय करें और निर्णय करके ”अस्वजन-पत्र” लिखकर दें जिसके बाद ही विवाह हो और वही विवाह प्रामाणिक हो। यही व्यवस्थापन ”पंजी-प्रबन्ध” है। संगृहीत परिचय जिसमें प्रत्येक विवाह और विवाह की सन्तानों के नाम और नये सम्बन्ध बराबर जोड़े जाते रहे हैं “पंजी” कहलया। जिन पंडितों को ये संगृहित परिचय सौंपे गये वे “पंजीकार” कहलाये। अधिकार का निर्णय करके अस्वजन-पत्र लिख कन्या-पक्ष बाले को देना कि अमुक कन्या के साथ विवाह करने का अधिकार अमुक वर को है “सिद्धांत” कहलाया।
अतएव स्पष्ट है कि हरिसिंहदेव ने कुछ नया नहीं किया। वस्तु यह पुरानी थी। हरिसिंहदेव ने इसमें इतना ही संशोधन किया कि जो समूह-लेख्य पहले व्यक्ति स्वयं ही रखा करते थे उसे अब ”एकत्र” करके कितने विशिष्ट व्यक्तियों के हाथों में दे दिया। जो पहले वैयक्तिक था वह अब राजकीय हो गया। दूसरी बात यह हुई कि बिना पंजीकार की अनुमति प्राप्त किये वैवाहिक सम्बन्ध अवैध समझा जाने लगा। और तीसरी बात यह कि प्रत्येक वैवाहिक सम्बन्ध पंजीकारों की अनुमति से होने से पंजी में सभी उल्लेखों के समावेश की सुविधा हो गयी। (मैथिल ब्राह्मणों की पंजी-व्यवस्था)

नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतसभक आधार पर आ पंजी-प्रबन्धक कर्ता रघुदेवक द्वारा देल गेल सूचनाक आधार पर ई सिद्ध होइत अछि जे हरिसिंहदेवक नाम केवल तिथि-निर्धारणक लेल लेल गेल अछि। जेना केओ अपन जन्मक वर्षक सम्बन्धमे कहैत छथि जे हमर जन्म भूकम्पक घुरती साल भेल छल, तँ एतए भूकम्पक संग हुनक जन्मक सम्बन्ध भूकम्प सँ मानब भ्रान्ति थीक। वास्तविकता ई अछि जे रघुदेवक अनुसार हरिसिंहदेवक जन्मक 32 वर्षक बाद पंजीक समेकित लेखन आरम्भ भेल आ हरिसिंहदेव 26-29म वर्षमे तुगलक आक्रमणक कारणें अपन राजधानी सिमरौनगढ़ छोड़ि नेपालक उपत्यकामे भागि गेलाह। पराजित आ भागल अवस्थामे ओ मिथिलामे केना पंजीक लेल राजकीय आदेश पारित करताह से सहज खण्डित भए जाइत अछि।

मिथिलाक इतिहासमे हरिसिंहदेव कोन वर्ष पराजित भए भागि गेलाह तकरो निर्धारणमे भ्रान्ति अछि। म.म. परमेश्वर झा लिखैत छथि जे – अन्ततोगत्वा महाराज हरिसिंहदेव अपन राजधानी छोडि जङ्गल पहाड़क शरण लेलन्हि। एहि अवसरक श्लोक अछि-
वस्वब्धिबाहुशशिसम्मितशाकवर्षे पौषस्य शुक्लदशमी क्षिति(रवि) सूनुवारे।
त्यक्त्वा सपट्ट(त्त)नपुरीं हरिसिंहदेवो दुर्दैवदर्शित पथो गिरिमाविवेश।।

म.म. परमेश्वर झाक अगिला उक्तिसँ संकेत भेटैत अछि जे ई श्लोक पंजी-प्रबन्धक थीक। ओ एतए वस्वब्धिबाहुशशिसम्मितक स्थान पर बाणाब्धिबाहुशशिसम्मित पाठान्तरक उल्लेख कएने छथि। ई श्लोक सिमरौनगढक स्थानीय परम्परासँ सेहो उपलब्ध भेल अछि, जेकर प्रकाशन एसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगालक शोधपत्रमे 1835 ई.मे पृ, संख्या 121 पर भेल अछि।  एहि आलेखक लेखक बी.एच. हॉगसन, जे नेपालमे रेजिडेंट रहथि ओ एसियाटिक सोसायटीक सम्पादक कें सूचित करैत छथि जे यद्यपि हिन्दू पंचांगक अनुसार 1322 ई.मे हरिसिंहदेवक पराजय भेल आ सिमरौनगढ परित्यक्त बनल, ओतहि मुसलमानी परम्पराक अनुसार 1323 ई. भेटैत अछि, मुदा ओ सिमरौनगढक परम्परासँ प्राप्त दू टा श्लोक कें प्रामाणिक मानैत छथि जाहिमे 1245 शकसंवत् अर्थात् 1323ई. उल्लिखित अछि। हॉगसन सिमरौनगढक स्थापना आ परित्यागक सम्बन्धमे ई दू श्लोक उद्धृत करैत छथि-
रामस्य वित्तं नलराजवित्तं पुरूरवावित्तमलर्कराज्ञः।
ह्रदात्समुद्धृत्य निपात्य नागं श्रीनान्यदेवो निरमात्स्वगर्तम्।।
बाणाब्धियुग्मशशिसम्मितशाकवर्षे पौषस्य शुक्लनवमीरविसूनुवारे।
त्यक्त्वा स्वपट्टनपुरं  हरिसिंहदेवो दुर्दैवदर्शितपथाथ गिरिं विवेश।।
अर्थात् राम, राजा नल, पुरूरवा आ राजा अलर्कक धन जे नागसँ रक्षित पोखरिमे राखल छल तकरा पोखरिसँ निकालि नागकें पराजित कए राजा नान्यदेव वास्तुक खात बनौलनि अर्थात् महल बनएबाक लेल निञों खुनलनि। बाण-5, अब्धि-4, युग्म-2, शशि-1 (वाम भागसँ गणनाक कारणें 1245) शाकेमे पौष शुक्ल नवमी शनि दिन हरिसिंहदेव अपन पट्टनपुर छोडि दुर्भाग्य द्वारा देखाओल गेल रास्तासँ पहाड़मे प्रवेश कएलनि।

एहि पाठक अनुसार हरिसिंहदेव शाके 1245 मे अर्थात् 1323 ई. हारि कए अपन राजधानी छोडि भागि गेलाह। 

महामन्त्री कर्म्मादित्यक क्रियाकलाप

हरिसिंहदेवक एहि पराजय-तिथिक समर्थनमे आरो ऐतिहासिक साक्ष्य अछि जे हरिसिंहदेवक पितामह रामसिंहक समयसँ मन्त्री रहल, अत्यन्त प्रतिष्ठित वृद्ध कर्म्मादित्य जखनि हाबीडीहमे रामसिंहक पत्नी सौभाग्यदेवीक आज्ञासँ हैहट्टदेवीक मूर्तिक स्थापना 212 लक्ष्मण संवत् अर्थात् 1331 ई. मे कएल तखनि ओ हरिसिंहदेवक नाम धरि नहिं लेलनि। वस्तुतः 1323 ई.क बाद सिमरौनगढक स्थान पर हमरालोकनि दरभंगा जिलामे कर्म्मादित्यक द्वारा कएल गेल काज सभ देखैत छी। ओएह कर्म्मादित्य तिलकेश्वरमठक निर्माणकर्ता कहल गेल छथि आ ओकर एक शिलालेखसँ संकेत भेटैत अछि जे तिलकेश्वर मठक परिसरमे हुनक दाह-संस्कार 1258 शक संवत् अर्थात् 1336 ई.मे कएल गेल। एतावता सिद्ध होइत अछि जे 1323-24 ई.मे हरिसिंहदेवक हारिक बाद अपन प्रजाकें देखबाक लेल ओ सिमरौनगढकें छोडि दक्षिण दिस आबि गेलाह। आ हाबीडीह पर मूर्तिस्थापनाक काज कएलनि।

परमेश्वर झा ई लिखैत छथि जे पंजीक आरम्भक तात्कालिक कारण देवहार गामक मुक्तेश्वरनाथ मन्दिरक एकटा घटना छल, जाहिमे गंगौरे मूलक हरिनाथ शर्माक विवाह स्वजनमे होएबाक कारणें हुनकामे चाण्डालत्व आबि गेल आ हुनक पत्नी एकटा चाण्डाल द्वारा बलोपभुक्ता होएबाक खण्डन करैत दिव्य-परीक्षामे नाहं चाण्डालगामिनी पंक्ति पर तँ तप्पत लोहासँ पाकि गेलीह, मुदा स्वपतिव्यतिरिक्तचाण्डालगामिनी पंक्ति पर नै पकलीह। ई एहि घटनाक स्थान वर्तमान मधुबनी जिलाक देवहार गामक कहल गेल अछि, जकर निर्णय लेल हरिसिंहदेवक राजधानी सिमरौनगढ जाएब ओहि कालमे सम्भव नै छल।

तें ई स्पष्ट अछि जे हरिसिंहदेवक पराजयक बाद परिवारक पारम्परिक वृद्ध मन्त्री कर्म्मादित्यक नेतृत्वमे हरिसिंहदेवक अन्य ब्राह्मण अधिकारी आ विद्वान् लोकनि आपातकालमे प्रजाकें संगठित करबाक लेल, मिथिलाकें यवनक आक्रमणक कारणें छिन्न-भिन्न होएबासँ बचेबाक लेल दक्षिण दिस बढलाह आ अपन उद्देश्यमे सफल भेलाह। दरभंगाक मोतीमहल अभिलेख (1341ई.) सँ सूचना भेटैत अछि जे हट्टपति (व्यापारिक गतिविधिक उच्चतम अधिकारी) सप्रक्रिय संकेश्वर अपन आवासीय भवन बनेबाक वास्तु लेलनि। ई शिलालेख कतहु ने कतहु दरभंगाक लगे-पासक थीक। सिमरौनगढक राजधानी उजडि गेलाक बाद दरभंगा-प्रक्षेत्रमे शासकीय गतिविधि, प्रजाक लेल युद्धस्तर पर कएल गेल काज, मूर्तिस्थापना, मठ-मन्दिरक निर्माण, राजकीय अधिकारी द्वारा आवासीय-भवनक निर्माण आदि सिद्ध करैत अछि जे मिथिलाक इतिहासमे 1323 सँ ओइनिवार शासन व्यवस्थित होएबाक बीचक काल, जकरा अन्धकार युग कहल गेल अछि, ओ ब्राह्मण विद्वान् सँ शासित छल आ एहि कालमे अनेक सामाजिक सुधार भेल। तुगलकक आक्रमणक कारणें ओकर सैनिकक द्वारा यत्र-तत्र बसि जाएब कोनो असम्भव नै छल आ तें मैथिल मूल आ घुसपैठ केनिहारक बीच दूरी रखबाक लेल पंजीक पुनर्गठन तात्कालिक आवश्यकता छल। जे काज आइ आसाममे एन.सी.आर.क अन्तर्गत कएल जा रहल अछि से काज ओहि कालमे ब्राह्मणलोकनि कएने रहथि। तें 1326 ई.मे पंजीक सामूहिक लेखन ब्राह्मणलोकनि अर्थात् राजकीय विद्वान् अधिकारीलोकनिक द्वारा आरम्भ भेल, जाहिमे हरिसिंहदेवक कोनो राजकीय आदेश प्रभावी नहि छल।

यद्यपि 1812-13 ई.मे जखनि बुकानन पूर्णिया जिलाक सर्वेक्षण कए रहल छलाह तँ हुनका मैथिल ब्राह्मणक विभाजनक सम्बन्धमे हरिसिंहदेवक नाम कहल गेलनि। बुकाननक रिपोर्टक आधिकारिक प्रकाशन करैत 1838 ई.मे मांटगोमेरी मार्टिन लिखैत छथि-

The customs by which this nation are at present ruled are said to have been established by a certain Hari Singha a Rajput who was king of Mithila or Tirahoot or Tirabhukti as it is called in the Sangskrita language. The Brahmans by this prince were divided into four ranks. The highest are called Suti the second Majroti the third Yogya and the fourth Grihasthas. These distinctions were founded on the various degrees of supposed purity and learning which in the time of Hari Singha individuals possessed but the distinctions have now become totally hereditary At the time of Hari Singha only 13 men were considered as entitled to the dignity of Suti. These distinctions do not absolutely prevent intermarriages but if a man of high rank marries a low girl he sinks to her rank only he is reckoned at its head If a low man can afford the enormous expense of marrying a woman of high birth he is considered as elevated to the head of his own tribe but cannot ascend to a perfect level with those of the tribe above him In this district the two higher classes are very few in number and there seems to be little loss as scarcely any of the Sutis and very few of the Majrotis give themselves any sort of trouble but live entirely by the rents of their lands or the profit of their rent and if by accident they become poor they can always obtain a maintenance by marrying the daughter of some low but wealthy man who will cheerfully and thankfully support them and their children owing to the lustre that will be added to his family In such cases however they themselves are reduced to the level of their father in law and their children if they wish to gain distinction will be under the necessity of undergoing the fatigues of study. (Puraniya, Ronggopoor and Assam, Robert Montgomery Martin.pp. 155-56)

मुदा ई तत्कालीन जनश्रुति इतिहासक दृष्टिसँ एकदम मिथ्या थीक, आ 19म-20म शतीमे जे विभाजन सोझाँ आएल ओ एहिसँ भिन्न अछि।

एहि प्रकारें मिथिलाक पंजी एकटा उच्च कोटिक परिचयक लिखित स्वरूप थीक, जकर अनेक प्रयोजन अछि। एकरा लेल ‘पंजी-व्यवस्था’ शब्दक प्रयोग सभसँ पैघ भ्रम थीक। कोनो प्रकारक ‘व्यवस्था’ पंजीक विषय नहिं ओ धर्मशास्त्रक विषय थीक। एहि व्यवस्था पर वाचस्पतिक “सम्बन्ध-विचार” सनक पृथक् ग्रन्थ अछि जे पंजीकें आधार मानि लिखाएल। बिहार रिसर्च सोसायटी, पटनामे एकटा खण्डित तथा शीर्षकविहीन पाण्डुलिपि (बंडल संख्या 37, पाण्डुलिपि संख्या 91) मात्र 9 पत्रक अछि, जाहिमे व्यक्तिक नाम सभ छैक आ ‘क्षेम्यः’ आ ‘अक्षेम्यः’ शब्दसँ दू परिवारक बीचक सम्बन्धकें उचित आ अनुचित कहल गेल अछि। एहि प्रकारक ग्रन्थ आरो लिखाएल होएत, से सम्भव। एहि ग्रन्थक प्रकाशन आवश्यक अछि।

16म शतीमे रघुदेव “पंजी-प्रबन्धः कृतः” कहैत छथि। ‘प्रबन्ध’ शब्दक अर्थ थीक एक सूत्रमे बाँधल ग्रन्थ, मुदा ‘प्रबन्ध’ शब्दक प्रयोग ‘प्रबन्धन’- अंगरेजीक ‘मैनेजमेंट’क अर्थमे कएल गेल सेहो भ्रम थीक। ई प्रबन्ध शब्दक अर्थ नहिं लगबाक कारणें आ व्यवस्था शब्दक मानसिकताक कारणें ई भ्रम सभ पसरल। तेसर भ्रम इहो पसरल जे पंजी विवाहमे सीमा निर्धारित करैत अछि, अर्थात् विवाह कोन कोन परिवारमे भए सकैत अछि, तकर अनुमति दैत अछि। जखनि की वास्तविकता ई अछि जे पंजी मात्र रक्तसम्बन्धक निर्णय दैत अछि जे अमुक वरक विवाह कोन कोन परिवारमे नहिं भए सकैत छैक। पंजी स्वजनक सीमा निर्धारित करैत अछि। कोनो परिस्थिति मे केओ मैथिल भाइ-बहिन, काका-भतीजी,  मामा-भगिनी आदि सनक वैवाहिक सम्बन्ध स्वीकार कए गारि नै सुनए चाहताह। बहुत परिस्थितिमे एहि पंक्तिक लेखकक अनुभव रहल अछि जे जाहि व्यक्तिक संग कोनो सम्बन्ध ध्यान पर नै अबैत अछि, मुदा जखनि जाँचल जाइत छैक तखनि बड़ नजदीक सम्बन्ध ठहरि जाइत छैक। तें पंजीकारक द्वारा अस्वजनक निर्णयक बादे वैवाहिक कार्य श्रेयस्कर अछि। एहि प्रकारें पंजीक सम्बन्धमे पसरल अनेक भ्रमक कारणें एकर उदात्त परम्पराकें बहुत हानि पहुँचलैक आ एखनि जे सामग्री उपलब्ध अछि ओकर संरक्षण आवश्यक भए गेल अछि।

एकर संरक्षणक लेल डा. योगनाथ झा तीन खण्डमे “पंजी-प्रबन्ध” नामक ग्रन्थ प्रकाशित कएलनि। डा. गजेन्द्र ठाकुर सेहो “जीनोम मैपिंग”क नामसँ दू खण्डमे यथोपलब्ध सामग्रीकें प्रकाशित कए देल। मुदा प्रकाशित अंश सम्पूर्ण पंजीक नगण्य भाग थीक। आइ एकटा आर विडम्बना अछि जे जाहि पंजीकारक लग ई ग्रन्थ सभ छनि ओ ओकरा अपन सम्पत्ति बुझैत छथि आ ओकरा प्रकाशन कें अपन आर्थिक क्षति बुझैत छथि। हुनका भ्रम छनि जे हमरा लग जे पंजी अछि ओ दोसराक लग चलि जाएत तँ ओहो ‘सिद्धान्त’ कराए लेताह आ हमर स्वयत्ता समाप्त भए जेबाक कारणें आय घटि जाएत। वास्तविकता एकर विपरीत अछि। जँ सभक लग उपलब्ध पंजीक प्रकाशन भए जाएत तँ सभ केओ सभ गामक सिद्धान्त कराए सकताह आ हुनक आयमे वृद्धि होएतनि। ई संगठित क्षेत्रक एकटा रोजगारक रूपमे विकसित होएत। आइ कर्मकाण्डक पोथी सभ सर्वत्र सुलभ छैक, तैयो योग्य पुरोहितक लेल पुछारि भैए रहल अछि।

आइ बहुतो पंजीकारक द्वारा पाण्डुलिपि सभ नुका कए राखब एकर संरक्षणमे बाधक भए रहल अछि। ओ लोकनि सिद्धान्त करएबामे स्वायत्तताक कारणें जँ एना कए रहल छथि तँ एतए हुनका लोकनिकें ध्यान देबाक चाही जे सिद्धान्त करएबामे अधिकसँ अधिक दू सए वर्षक पंजीक काज पडैत छैक। ओहिसँ पहिलुक पंजीक कोनो उपयोग सिद्धान्त करएबामे नहिं अछि। कमसँ कम ओतबा अंश व्यवस्थित कए प्रकाशमे आबए देथि। दू सए वर्षसँ पुरान पंजी आइ मिथिलाक इतिहासक स्रोत थीक आ ओ नष्ट होएत तँ बड पैघ क्षति होएतैक।

मिथिलाक पंजीक सम्बन्धमे भावी गतिविधि

पंजीक वर्तमान स्थित मृतप्राय अछि। बहुत कम संख्यामे नवीकरण भए रहल अछि। बहुत गोटे जे बाहर रहैत छथि से अपनहिं मोने विवाह ठीक कए लैत छथि आ तकर सूचना सेहो पंजीकार कें नहिं दैत छथिन। संगहि अन्तरजातीय विवाहक कारणें सेहो नवीकरण नै होइत अछि। एकरा लेल आइ आवश्यक छैक जे कम्प्यूटर डाटाबेस तैयार कएल जाए, जाहिसँ एकटा फार्म भरि ओ अपनहिं पंजीकरण कए लेथि आ मूलपंजी नवीकृत भए जाए। अंतरजातीय विवाहक स्थितिमे सेहो एहि फार्ममे व्यवस्था रहबाक चाही जे दूनू पक्षक पूर्ण परिचय ओहिमे आबि जाए।

प्राचीनकालमे पत्नीक नाम नै आएल अछि, मुदा आब ओहो देबामे कोनो हर्ज नै छैक। आब जखनि भारत सरकारक द्वारा परिचयक क्रममे माताक नाम सेहो आवश्यक कए देल गेल अछि तँ पत्नीक नाम जोडब अपेक्षित छैक। एकर स्वरूपक लेल हमरहि पंजीक एकटा उदाहरण लेल जाए- भवनाथ-कुमुदभ्यां सुतौ महिनाथ प्र. राकेश, अभिचन्द्रकौ दरिहरासं.कीर्तिनन्दन प्र.महन्थ सुत सुरेश दौ.। महि. पाली. सं. ब्रजनन्दन सुत लक्ष्मीनन्दन दु.दौ.।। एतय पंजीक विशिष्ट भाषाक अनुकूल पत्नीक नामक बाद ‘भ्याम्’ प्रत्यय लगाएल जाए, जे पंचमी विभक्तिक द्विवचनक बोध कराओत आ ‘एहि दूनूसँ उत्पन्न’ ई अर्थ देत। ई पंजीक भावी गतिविधिक पंजीकारलोकनिक अनुमोदनक प्रत्याशामे प्रस्तावित अछि, जे वर्तमान समयमे उपयोगी होएत। एहि प्रकारक आरो काजसभ कए पंजीक पुनरुद्धार आवश्यक अछि। इति।।

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Bhavanath Jha

मिथिला आ मैथिलीक लेल सतत प्रयासरत

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