कुम्भकर्ण के बारे में सब जानते हैं कि वह छह महीना सोता था तथा एक दिन के लिए उठकर खाना खाता था और फिर छह मास के लिए सो जाता था।

ऐसा किसी के शाप से नहीं; बल्कि उसने ब्रह्माजी से खुद ही ऐसा वरदान माँग लिया। उसके मन में तो इच्छा थी कि वह छह महीना खाने का वरदान ले और एक महीना सोने का। यदि ऐसा होता; तो वह सबको मारकर खा जाता और पूरी सृष्टि खतम हो जाती। उसका पेट विशाल था; वह कई देवताओं और मनुष्यों को मारकर खा चुका था।

वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड के दसवें सर्ग में ब्रह्मा के द्वारा रावण आदि भइयों को वर देने का प्रसंग आया है। रावण, विभीषण तथा कुम्भकर्ण तीनों भाइयों ने घोर तपस्या की थी, तो ब्रह्माजी वरदान देने पहुँचे। जब रावण और विभिषण को वरदान दे चुके, तो कुम्भकर्ण की बारी आयी। अबकी बार देवतागण ब्रह्माजी से विनती करने लगे-

“इसे कोई वर मत दीजिए। यह कितने ही देवों को मारकर खा गया है। यह यदि अमरता का वर ले लेगा तो तीनों लोकों में कोई नहीं बचेगा।”

ब्रह्मा उसे भी इच्छानुसार वर देने का संकल्प ले चुके थे। अब देवताओं केद्वारा मना करने पर धर्मसंकट में पड़ गये। सचमुच यह भी यदि अमरता का वर माँग लेता है; तो देना ही पड़ेगा औऱ तब यह सबको मारकर खा जायेगा।

ऐसी स्थिति में उन्होंने देवी सरस्वती का आवाहन किया। सरस्वती तो उनके बगल में उनकी शक्ति के रूप में बैठी ही थी।

यहाँ गीता प्रेस से प्रकाशित वाल्मीकि रामायण के  संस्करण में देवी सरस्वती के स्वरूप का वर्णन नहीं आया है, लेकिन वाल्मीकि रामायण के सबसे पुराने पाठ गोरैशियो संस्करण (पूर्वोत्तर भारत का पाठ) में उन्हें पद्माक्षी, सभी प्राणियों की जिह्वा, तथा बुद्धि कहा गया है। इस विशेष पाठ के साथ मूल उद्धरण इस प्रकार है-

एवमुक्तः सुरैर्ब्रह्माऽचिन्तयत् पद्मसम्भवः।

देवीं सरस्वतीं देवः पद्माक्षीं पद्मसम्भवः।

त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु जिह्वा बुद्धिः सरस्वती।।

चिन्तिता चोपतस्थेऽस्य पार्श्वं देवी सरस्वती।।७.१०.४१।।

प्राञ्जलिः सा तु पार्श्वस्था प्राह वाक्यं सरस्वती।

इयमस्म्यागता देव किं कार्यं करवाण्यहम्।।७.१०.४२।।

प्रजापतिस्तुं तां प्राप्तां प्राह वाक्यं सरस्वतीम्।

वाणि त्वं राक्षसेन्द्रस्य भव या देवतेप्सिता।।७.१०.४३।।

ब्रह्माजी ने कहा- हे वाणी सरस्वती, जैसा देवतालोग चाहते हैं, इस राक्षस की वैसी ही वाणी तुम बन जाओ।

सरस्वती ने यही काम किया। एक दिन सोना और छह महीना खाना खाने के बदले कुम्भकर्ण उलटा बोल गया- एक दिन खाना और छह महीना सोना।

यहाँ भी सरस्वती ने देवताओं का काम किया। सरस्वती वाणी हैं, जो कुछ भी हम बोलते हैं, उसे देवता माना गया है। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम जो कुछ भी बोलें उसमें पवित्रता रखें। हमें ऐसी कोई बात नहीं करनी चाहिए, जिससे दूसरे को बुरा लगे। अपनी वाणी के प्रति हमें देवतत्त्व की भावना रखनी चाहिए। इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है।

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