जनक-याज्ञवल्क्य की धरती मिथिला एक ओर यजुर्वेद एवं शतपथ-ब्राह्मण की वैदिक परम्परा की भूमि रही है तो दूसरी ओर आगम-परम्परा में शक्ति-पूजन के लिए विख्यात रही है। यहाँ वैदिक परम्परा और आगम-परम्परा दोनों समानान्तर चलती रही है किन्तु मिथिला के पड़ोसी क्षेत्रों की धार्मिक परम्परा से यह स्पष्ट अन्तर है कि यहाँ वैदिक और आगम परम्परा में सम्मिश्रण नहीं हुआ। फलतः सत्यनारायण पूजा में हवन करने की परम्परा इस क्षेत्र में नहीं पनपी।

इस क्षेत्र का एक अन्य धार्मिक वैशिष्ट्य रहा कि संन्यास के बजाय कर्म को अधिक महत्त्व दिया गया। गार्हस्थ्य जीवन में अपने शास्त्रोचित कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने की परम्परा यहाँ विकसित हुई और नारी को उस मोक्ष प्राप्ति में सहायिका की दृष्टि से देखा गया। विशुद्ध वैदिक संस्कृति में तो नारी अनिवार्य थी ही, आगम की शाक्त-परम्परा में उसे कुमारी, जननी, भैरवी आदि के स्वरूप में आराध्या बन गयी।

यद्यपि बौद्धों की परम्परा में काम-वासना की भर्त्सना करते करते नारी को इतना कुत्सित बना दिया गया, उसके अंग-प्रत्यंग को इतना वीभत्स माना जाने लगा कि सम्पूर्ण नारी जाति ही कुत्सा का पर्याय बन गयी। अश्वघोष के सौन्दरनन्द में नारी का ऐसा वर्णन उपलब्ध होता है।

इसका प्रभाव वैदिक धर्म पर भी पड़ा और विशेष रूप से वैष्णव-पाञ्चरात्र परम्परा में काम वासना को मोक्ष का बाधक तत्त्व प्रतिपादित करते-करते नारी को ही बाधक मान लिया गया। बौद्ध और जैन धर्म के बढ़ते प्रभाव से वैदिक संन्यासवाद की एक परम्परा यानी ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद सीधे संन्यास लेने की परम्परा मुखर हुई और गार्हस्थ जीवन निन्दनीय घोषित होने लगा।

इन सबसे अगल मिथिला की नारी ‘नरक का द्वार’ न होकर ‘‘जगन्माता तक पहुँचने की पहली और अन्तिम सीढी’’ बनी। आगम-परम्परा में उसे ‘दीक्षा गुरु’ का सम्मान मिला। देवी पूजा में वह ‘साक्षात् देवी की मूर्ति’ मानी गयी।  ‘सोहर’ के गीतों में उसे यशोदा, कौशल्या के रूप में चित्रित किया गया।

मिथिला क्षेत्र के मैथिली लोक गीतों में पुत्रवती, पति की प्रेयसी सधवा नारी का बहुत उदात्त वर्णन मिलता है। विवाह कर घर बसाना, पति को गृहस्थ बनाकर रखना, संतान उत्पन्न करना उसके जीवन का चरम लक्ष्य है।

संस्कृत काव्य की परम्परा में प्रियतमा अपने प्रियतम को इसलिए लुभाना चाहती है, ताकि वह दूसरी नायिका के पास नहीं चला जाए। लेकिन मैथिली लोकगीत में पति के वैरागी हो जाने का डर है। इसलिए वह कहती हैः-

हरियर  चूड़ी  पहिरतहुँ  पिया  के  लुभबितहुँ  रे।
ललना पिया रुठि गेला अजोधा घुरि नहि आयल रे।।

मिथिला की नारी का सबसे बड़ा सौन्दर्य उसका मातृत्व है। वह कोयल-जैसी काली होकर भी अधिक से अधिक मूल्यवान् वस्त्र, आभूषणों और पुरस्कारों की अधिकारिणी है। एक ‘सोहर’ गीत में ‘धनि’ पति से सुन्दर वस्त्र और गहना की माँग करती है तो पति निःसन्तान होने के कारण उसे दुत्कार देता है। आगे जब वह माँ बनती है तब पति उसे सुन्दर वस्त्र और गहना देने जाता है किन्तु इसबार पत्नी ही इन्कार कर देती है और कहती है कि मुझे अब ‘बालक’ मिल गया और कुछ नहीं चाहिए-

बेसर पहिरत तोहर माय आरु बहिन लोक रे।
ललना हम नहि बालक भूखल बालक राम देलनि रे।

जन्म के अवसर पर गये जाने वाले गीतों का ‘सोहर’ नामकरण भी नारी-केन्द्रित है। ‘सोहर’ ‘शोकहर’ शब्द से निकला है और नारी की प्रसव-वेदना को कम करने के लिए गाये जाते हैं जब कि अन्य भाषा के लोकगीतों में इन्हें ‘बधैया’ कहा जाता है जिसके केन्द्र में उस घर के अन्य सदस्य की खुशी का वर्णन होता है।

आज जहाँ कन्याभ्रूण की हत्या की अपसंस्कृति चारों ओर फैल रही है, वहाँ मैथिली लोकगीत का एक स्थल प्रासंगिक हो जाता है, जिसमें कहा गया है कि पोती के विना बाबा की जाँघें (गोद) शुद्ध नहीं हो सकती है, जैसे दूध के बिना खीर नहीं बन सकता, घी के बिना होम नहीं हो सकता और पुत्र के बिना वंश-वृद्धि नहीं हो सकती-

बिन दुध खीरो ने सिद्ध हैत बिनु घीवे होमो न हैत हे।
बिनु धिया जाँघो ने सुद्ध हैत बाबा, बिनु पूते वंशो न बाढ हे। (विवाहः 22)

इसी लोकगीत का एक दूसरा स्वरूप भी मिलता है जिसमें कहा गया है कि बेटी के बिना धर्म नहीं हो सकता-

बिनु दुध बेटी गे खिरियो न होए, विन घिउ होमो ने होए हे।
विनु पुतर सैरा अंहार भेल बेटी विनु धिया धरम न होए हे।  

मैथिली संस्कार गीत, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् (विवाह: 13)

मैथिली लोग गीतों में विवाह के समय कन्या का वर्णन गौरी और सीता के रूपों में हुआ है जिनमें गौरी का रूप प्राचीन है। विद्यापति ने गौरी के स्वरूप में कन्या का वर्णन किया है जबकि अर्वाचीन लोक गीतों में सीता का स्वरूप मुखर है।

बेटी की विदाई के समय गाये जाने वाले लोक गीतों में बेटी के प्रति परिवार के सदस्यों की भावना प्रस्फुटित हुई है। एक गीत में माँ कहती है कि उसने घी के घड़ा की तरह बेटी का पालन पोषण किया और उसे बेटा की तरह दुलार किया-

                घीवक घैल जकाँ पोसलहुँ हे धीया बेटा जकाँ कएल दुलार।

मैथिली संस्कार गीत, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् (विवाहः 276)

इस प्रकार हमें उन लोक गीतों के माध्यम से ऐसा संकेत मिलता है कि मैथिली क्षेत्र में नारी धार्मिक और सांस्कृतिक रूप में महिमा मण्डित रही है और घर की धुरी के रूप में आदरणीय है।

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