हनुमानजी सीताजी के वरदान से देवता बने। जहाँ हनुमानजी रहते हैं वहाँ उनके स्मरण मात्र से ही खुशहाली छा जाती है।
श्रीराम ने हनुमानजी को चिरंजीवी होने का वरदान देते हुए कहा कि जबतक यह पृथ्वी रहेगी, ये समुद्र रहेंगे तथा पर्वत रहेंगें तब तक महावीर हनुमानजी नित्य युवा रहते हुए जीवित रहेंगे।
इसी समय श्रीराम के बगल में बैठी हुई सीताजी ने इससे आगे का आशीर्वाद दे डाला कि हनुमानजी देवता के रूप में पूजित होंगे। जहाँ हनुमानजी का स्मरण किया जायेगा, वहाँ पेड़ों पर अमृत के समान फल लगेंगे, स्वच्छ जल का प्रवाह बहता रहेगा।
यह प्रसंग वाल्मीकीय रामायण में है।
यदि हम गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक में ढूढेंगे, तो कही भी श्रीराम तथा सीताजी के द्वारा हनुमानजीको वर देने का प्रसंग नहीं है। वास्तव में यह प्रसंग पूर्वोत्तर भारत के वाल्मीकीय-रामायण के युद्धकाण्ड के अंत में आया है।
लाहौर संस्करण (पश्चिमोत्तर भारत का पाठ) में भी यह प्रसंग काश्मीर के पाठ से लेकर प्रकाशित है। लेकिन गीताप्रेस के पाठ में छोड़ दिया गया है।
मुंबई संस्करण (गीता प्रेस) के पाठ में प्रसंग है कि सबका सत्कार करते समय राम ने एक हार सीताजी को भी दिया। सीता ने अपने गले से उस हार को उतार कर हनुमानजी को दे दिया, जिसे पहनने के साथ ही हनुमानजी में तेज, धैर्य, यश, कुशलता, सामर्थ्य, विनय, नीति, पौरुष, वीरता और बुद्धि समाहित हो गयी
तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नयः।
पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यशः।।
युद्धकाण्ड, 128, 82
यहाँ अतिथियों का सत्कार करते समय राम द्वारा सीता को भी हार पहनाना और वस्त्र देना खटकता है।
लेकिन दूसरे पाठ में राम के द्वारा देने की बात नहीं है।
वाल्मीकि-रामायण का सबसे पुराना रूप है, पूर्वोत्तर भारत का पाठ, जो नेपाल, बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा में है। जब गोरैशियो के द्वारा सम्पादित होकर “Ramayana : poema indiano di Valmici. [Texte imprimé]” पेरिस से प्रकाशित है। लेकिन हिन्दी में अनुवाद नहीं होने का कारण प्रचलित नहीं है। इसका हिन्दी अनुवाद होना चाहिए।
गोरैसियो के द्वारा सम्पादित संस्करण के 112वें सर्ग के अंत में यह प्रसंग आया है-
प्रस्थितं तु हनूमन्तमुवाच रघुनन्दनः।
हनूमंस्त्वं मया नाति सत्कृतो हरिपुङ्गव।।99।।
तस्माद्वरं वृणीष्वाद्य महत् कर्म कृतं त्वया।
हनुमानजी जब चलने लगे तो श्रीराम ने कहा- हे हनुमान्, हे कपिश्रेष्ठ, आपने मेरे लिए बहुत काम किया किन्तु मैं आपका बहुत अधिक सत्कार नहीं कर सका। इसलिए वर माँगे।
एवमुक्तोब्रवीद्रामं हर्षबाष्पाकुलेक्षणः।।100।।
यावद्रामकथा देव पृथिव्यां प्रचरिष्यति।
तावद्देहे मम प्राणास्तिष्ठन्तु वरदोसि चेत्।।101।।
श्रीराम के ऐसा कहने पर हर्ष से उनकी इनकी आँखें भर आयीं और उन्होंने कहा- हे देव यदि आप वर देना चाहते हैं तो यही वर दें कि जबतक रामकथा पृथ्वी पर प्रचारित रहेगी तबतक मेरे शरीर में प्राण रहे।
एवं तस्य वचः श्रुत्वा रामो वचनमब्रवीत्।
एवं भवतु भद्रं ते यावद्भूमिर्धरिष्यति।।102।।
पर्वतंश्च समुद्रांश्च तावदायुरवाप्नुहि।।
बलवान् नीरुजश्चैव तरुणो न जरान्वितः।।103।।
हनुमानजी की इस वाणी को सुनकर राम ने कहा- ऐसा ही आपका शुभ होगा। जबतक भूमि पर्वत तथा समुद्र को धारण करती रहेगी तबतक के लिए तुम आयु पाओ। तुम हमेशा बलवान्, नीरोग तथा युवा बने रहेगो तुम्हें कभी बुढ़ापा नहीं होगी।
मैथिल्यपि तदा चैनमुवाच वरमुत्तमम्।
उपस्थास्यन्ति भोगास्त्वां स्वयमेवेह मारुते।।104।।
देवदानवगन्धर्वाःस्तथैवाप्सरसां गणाः।
यत्र तिष्ठसि तत्र त्वां सेविष्यन्ते यथामरम्।।105।।
फलान्यमृतकल्पानि तोयानि विमलानि च।
उत्पत्स्यन्ति यथाकामं स्मरणेन तवानघ।।106।।
सीताजी ने भी उन्हें वर दिया- हे पवनपुत्र, सारे भोग तुम्हारे पास स्वयं ही आ जायेंगे। देवता, दानव, गन्धर्व, अप्सराएँ जिस प्रकार देवताओं को पूजते हैं, उसी प्रकार जहाँ कहीं भी तुम रहेगे, तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम्हें जो कोई व्यक्ति स्मरण करेगा, तो उसकी इच्छा के अनुसार पेड़ों पर अमृत के समान फल लगेंगे। उस स्थान के जल निर्मल हो जायेंगे। अर्थात् जो भक्त हनुमानजी का जो व्यक्ति स्मरण करेगें, उन्हें मन मुताबिक फल मिलेगा।
एवमस्त्विति चोक्त्वा स प्रययौ साश्रुलोचनः।
ततो यथागताः सर्वे यथावासं ययुस्तदा।।
ऐसा ही हो- यह कहकर हनुमानजी आँसू भरी आखों से चले गये। तब सारे लोग भी अपने अपने आवास गये।
यह प्रसंग है हनुमानजी को देवता के रूप में पूजित होने का वरदान। श्रीराम ने हनुमानजी को चिरंजीवी बनाया तो सीता ने उन्हें देवता बना दिया।
आज भी सीताजी से वर पाकर हनुमानजी देवता हैं। जबतक यह धरती रहेगी, ये पर्वत और समुद्र रहेंगे तब तक हनुमानजी देवता बने मन्दिरों में पूजित होंगे।
महावीरो हनूमान् विजयतेतराम्।