भारत में शूद्रों के लिए शिक्षा
आज की राजनीति में सब कुछ सम्भव है।
किसी ने कहा कि कौआ कान ले गया तो बस कौआ के पीछे दौड़ पड़े!
जो लोग कहते हैँ कि प्राचीन भारत में शूद्रों को पढ़ने नहीँ दिया जाता था वे इस अंश को देखें :-
आपस्तम्ब धर्मसूत्र में एक प्रसंग की विवेचना है कि शूद्रों से आचार्य शिक्षण शुल्क लें या न लें।
आपस्तम्ब ने किसी आचार्य का मत दिया है कि
‘शूद्र और उग्र से भी शुल्क लेना धर्म-सम्मत है।’ सर्वदा शूद्रत उग्रतो वाचार्यार्थस्याहरणं धार्म्यमित्येके। (1 । 2 । 19) यानी हमेशा शूद्रों अथवा उग्रों से आचार्य के हिस्से का धन वसूलना चाहिए ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं।
लेकिन आपस्तम्ब का मत है कि न लें। यानी निःशुल्क शिक्षा दें।
अब कोई बतलायें कि यदि शूद्र को कोई पढ़ाते ही नहीं थे तो यह विवेचना ही क्यों?
इस विवेचना का ही अर्थ है कि गुरुकुल में शूद्रों और उग्रों को भी शिक्षा देने की व्यवस्था थी।