“नमो तस्स भगवतो सम्मा सम्बुद्धस्स”- कदलीवनसँ निकलैत भिक्षु अपन उच्च स्वरसँ गाबि रहल छलाह।

महिषी गामक टोलसँ बाहर ई कदलीवन दूर-दूर धरि पसरल छल। एहिमे केराक घौर रहौ वा नहि अलेल जनमल आ अपनहि सड़ि गलिक’ खसल थम्ह एकरा आरो घनगर अवश्य बनौने छल। तें बाहरसँ तँ कथे कोन, किछु दूर धरि भीतर पैसियो कए एकर बीचमे बनल संघारामक कोनो गतिविधि देखल नै जा सकैत छल जेना ओ कदलीवन ओकरहि सुरक्षामे ठाढ़ सेनाक अभेद्य पंक्ति हो।

कदलीवनक भीतर ई संघाराम राजमहलक प्रतिकृति जकाँ छल। बीचमे कारी पाथरक सुदृढ़ मन्दिर आ ओकर चारूकात समतल छतवला मण्डप रहैक। मण्डपक चारूकात पोखरापाटन कोठली सभक पंक्ति छल। मन्दिरक एक-एक पाथरपर सुन्दर मूर्ति बनाओल गेल छल। देबाल, चौकठि, केवाड़ आ तक्खा सभपर बोधिसत्त्वक विभिन्न मुद्रामे मूर्ति बनल छल। गर्भगृहमे देवी ताराक सुन्दर, सौम्य आ स्निग्ध मूर्ति छल, जनिक आँखि अन्तरिक्ष दिस देखैत कोनो आदेशक प्रतीक्षा जेना कय रहल हो।

मन्दिरक पूर्वी द्वारक ठीक सोझाँमे महाश्रमणक आवास कक्ष सेहो मन्दिरक गर्भगृहसँ बेसी सुसज्जित छल। दुआरिपर लटकैत चीनांशुककपरदा तकर बाहर जप करबाक नाटक करैत दू टा कठमस्त श्रमणक पहरा ओकरा आर रहस्यमय बना देने रहैक। चारूकात मण्डपपर आसन लगओने श्रमण सभक पंक्ति गेरुसँ रंगल दिवाल जकाँ मन्दिर के घेरने सन छल। एकमात्र द्वारपर दू टा सैनिक पहरा दए रहल छल।

संघारामक भीतर सभ श्रमण अपन अपन आगाँमे कपड़ापर बनाओल चित्र टाँगि क’ जप कए रहल छलाह। ई सभ चित्र बोधिसत्त्व-पट छल जे हुनका लोकनिकेँ महाश्रमण लिखबाए प्रतिष्ठापित कए साधना करबा लेल देने रहथिन। सभ अपन अपन मन्त्र जपि रहल छलाह तें कोनो गलगुल नै। एकदम शान्त— नीरव—।

महाश्रमण अपन कक्षमे छलाह। हुनका जे आदेश देबाक छलनि से दय चुकल रहथि आ ओही आदेशक पालन करबाले थोड़बे काल पहिनहि एकटा श्रमण कदलीवन के टपैत मिश्रटोल दिस बढ़ि गेल रहथि जनिक उद्घोष सुनबामे आबि रहल छलैक-‘नमो तस्स भगवतो—’

मुदा मिश्रटोलमे तँ आइ दोसरे उकबा उठल छल। बात ई रहैक जे काल्हि गुरु षडानन मिश्रक दलानपर जखनि छात्र लोकनि यजुर्वेदक सोलहम अध्यायक संहिता पाठ घोखि रहल छलाह तखनि दू टा छँओड़ा चोर जकाँ आमक गाछपर चढ़ि सुनि नेने छल आ आइ भिनसरे महिसक पीठपर चढ़ि ओएह पाँती अधखिच्चू घोखि रहल छल- मानव महान् तो मूत—। आ ई सूनि नेने रहथि पण्डित प्रवर मण्डन मिश्र, जे ओही बाट देने धेमुड़ामे स्नान कय चल अबैत रहथि। ओहि दुनू छओड़ामेसँ एक छल गामक हजाम सुकलक बेटा आ दोसर विष्णुमिश्रक बेटा जे किछुए दिन पहिने षडानन मिश्र चौपाड़िसँ निकालि देल गेल छल किएक तँ ओ एक वर्ष धरि पढलाक बादो पाणिनीय शिक्षा ग्रन्थक पाठ सीखि नै सकल छल।

मण्डन मिश्र टोलपर अबितहिँ गरजय लागल रहथि- “आइ वेद भ्रष्ट भए गेल। जकरा संजोगिक’ रखबा लेल हमरा लोकनिक पुस्त-दर-पुस्त तपस्या कएलनि से आब अबंच नै रहत।” मण्डन मिश्रक स्वर कनबाक कारणें फाटि गेल छल।

मण्डन मिश्रक प्रति लोककेँ ततेक श्रद्धा रहैक जे हुनक आँखिक संकेतपर पूरा मिसरटोली जुटि सकैत छल आ ई तँ हुनक रोदन रहय। मिसरटोलीमे जेना आगि पसरि गेलैक आ तुरते ओ दुनू छओड़ा पकड़ि आनल गेल।

गुरु षडानन मिश्र बजलाह- “वेद श्रुति थिक। गुरुक मुँहसँ सुनिक’ हमरा लोकनि एकरा सीखल। जँ एकर अशुद्ध उच्चारण होमय लागत तँ भविष्यमे ई ओहिना भ्रष्ट भए जाएत जेना हमरा लोकनिक गमैया भाषा संस्कृतसँ भ्रष्ट भए गेल अछि। तें कहल गेल अछि जे वेदक रक्षा लेल व्याकरण पढ़बाक चाही। ई दुनू छओड़ा वेदक अशुद्ध उच्चारण कए ओकरा भ्रष्ट कएलक अछि तें धर्मशास्त्री विश्वमुख भट्टसँ आग्रह जे ओ एकर प्रायश्चितक व्यवस्था देथि।”

भट्ट महाशय किछु बजबाक लेल ठाढ़ होइते रहथि कि सुकल हजाम हन-हन पट-पट करैत आएल आ गरजए लागल- “भाँड़मे जाए अहाँ सभक वेद। एक बगुला कहलककेँ- तँ सभकेँकिआए लगलहुँ खबरदार! हम संघारामक हजाम छी। सभ दिन दस-दस महतमा के माथ छिलैत छी। ओ सभ अहाँ सभसँ बेसी पूजा-पाठ करै छथि। अपन फैसला अपनहि लग राखू। हमर बेटाकेँ कोनो दण्ड देब तँ जे किने से भए जाएत।”

सुकल हजामक चेतौनी प्रायः खतम नै भेल रहल तावतमे विष्णुमिश्र सेहो हाथमे खनती आ पीठपर मोटामे बान्हल खम्हारु नेने जुमलाह आ सोझे खनती उसाहने अपने बेटापर झुरलाह। लोक सभ ‘हाँ, हाँ’ करैत हुनक खनती छीनि लेलक नहि तँ ओ नेना खून भए जाइत। खनती तँ छिना गेलनि तैयो लाते-मुक्के बेटा के पीटय लगलाह- “कोन सख लागल छहु वेद पढ़बाक। की हेतहु पढ़ि क’। हमरहि संहिता रटि क’ की भेल? ने भरि पेट अन्न भेटल आ ने देह भरि कपड़ा। यैह भेंट, सारुख, करहर आ खम्हारुपर दिनक दिन खेपैत छी। जाहि वेदक अध्यापक षडाननक घरमे साँझक साँझ उपास पड़ैये, महान् मीमांसक आ वेदान्ती मण्डनक रक्त आ मांस जेना हुनक हवन कुण्डमे जरि गेल। ओहि वेदकेँ पढ़ि की होएत? आब के करबैत अछि यज्ञ? देखियौक संघाराममे, ऐश्वर्य जेना साकार भए आदेशक प्रतीक्षामे ठाढ़ हुअए। ‘पटल’क आगाँ जप कए’ पारासँ सोना बनएबाक विधि दिव्यज्ञानसँ खोजल गेल। केओ दुखीत पड़ैत तँ ओही संघाराममे झाड़-फूक आ दिव्य रसायनसँ रोगमुक्ति भेटैत छैक, भगवान् बुद्धक करुणा, दया, शान्ति महान् अछि। ओ स्वयं आबि लोकक सभटा कष्ट दूर करैत छथि। वेदमे तँ खाली निरीह पशु सभक अंग काटि-काटि क’ स्वाहा-स्वाहा करबाक विधान अछि।”

लोक सभ अप्रतिभ छल। विष्णुमिश्रक आक्रोश सामान्य नै छल। सत्ते, संघाराम के राज्याश्रय छैक। वैद्यराज जनार्दन मिश्र जनैत रहितहुँ धनाभावमे रसायनक प्रयोग नहि कए पबैत छथि, जंगल-झाड़सँ आनल काष्ठौधषियेसँ कहुना क’ भैषज्य कर्म करैत छथि।

भीड़ स्तब्ध छल। सभसँ बेसी आहत रहथि उभय-मीमांसाक महापण्डित मण्डन मिश्र। हुनका तँ सभटा आँखिक सोझाँ नाचि गेलनि। एक दिस बुद्धक नामपर महायान सम्प्रदायक जादू-टोना, तन्त्र-मन्त्र आ संघाराम सभमे पाशविक यौनाचार। आ ताहिपरसँ अनात्मवाद आ शून्यवादक सिद्धान्त ल’ क’ वैदिक सभसँ अड़ारि करब। बुद्ध कहियो अपनाकेँ सर्वज्ञ नै मानलनि। हुनक शालीनताकेँ ई सभ उला-पका क’ चाटि गेल। बुद्ध स्वयं सन्तान उत्पन्न कए संन्यास लेलनि आ एतय अबोध बच्चा सभकेँ मुड़ल जाइत अछि। स्वयं बुद्ध वेदमात्रक निन्दा नै कएलनि मुदा आइ वेदक निन्दा करब सिखाओल जाइत अछि।

सभकेँ चुप्प देखि सुकल हजामक साहस बढ़लनि ओ विष्णुमिश्रकेँ सम्बोधित करैत बजलाह- “पण्डित जी! तें त’ कहैत छी जे छोड़ू ई वेद आ यज्ञक झमेला। संघाराममे एखनि यक्षिणी, विकटा आ धूर्जटाक साधना आरम्भ हुअएबला अछि। कतहु बाहरसँ सूत्र-ग्रन्थ मँगाओल गेल अछि। एक अयुत मन्त्रजपक दक्षिणा एक दीनार भेटत। आ जँ यक्षिणी सिद्ध भए गेल तँ चारू पुरुषार्थ एकहिसँग। हम तँ अपन छओड़ा आ ओकर मायके पठा रहल छी। अहूँ सभ चली तँ गप्प करब।”

मण्डन मिश्र आहत छलाह। मुदा आगाँ किछु बाजि नै सकलाह। ओ जनैत रहथि जे हुनक अग्निहोत्रमे मिश्रटोलोक लोक किएक घटि रहल अछि आ टोलपर केओ दुखीत पड़ैए त’ ओकरा वैद्यक ओत’ नै ल’ जा क’ संघाराममे किए लए जाइत अछि। सभटा जनितहुँ मण्डन चुप्पे रहलाह।

तावतमे कदलीवनसँ निकलि ओ श्रमण सेहो पहुँचलाह- “नमो तस्सो—। अहाँ सभके कोन कष्ट अछि? सभटा दूर भए जाइत। भगवान् बोधिसत्त्वक शरणमे आउ। ओ करुणामय अहाँक सभ कष्ट दूर कए देताह। हुनक शक्ति माँ तारा अहाँक बीच साक्षात् छथि। आर्या ताराक उपासना करू।”

आब मण्डन मिश्रकेँ चुप रहि नहि भेलनि। ओ श्रमणकेँ संबोधित करैत बजलाह- देखू श्रमण! जाहि बुद्धक अहाँ नाम लेलहुँ ओ करुणामूर्ति छथि, हुनक उपदेशमे सभक प्रति दया, करुणा आ समभावक प्रदर्शन अछि तेँ ओ अनुकरणीय छथि, आदरक पात्र छथि, मुदा हमरा लोकनिक वैदिक धर्ममे व्यक्तिपूजा अथवा सोझ शब्दमे मनुखदेवाक उपासना नहि अछि। हम सब अग्नि, सूर्य, विष्णु, रुद्र, दश दिक्पाल, नवग्रह, वाक् आदि अतिमानवीय देवक उपासना करैत छी, शरीरी ऋषिलोकनिक तर्पण करैत छी। बुद्ध ऋषि अवश्य छलाह, हुनका देव मानि लेब अभीष्ट नहि। रहल आर्या ताराक प्रसंग, तँ ओ अहूँ सभक सम्प्रदायमे मातृशक्तिक प्रतीक छथि। ओ दुर्गा, महिषमर्दिनी, वाग्देवतासँ अभिन्न मातृदेवी थिकीह, तेँ हमरहु लोकनिक उपास्या थिकीह, मुदा अहाँ लोकनिक ई गुह्य साधना निन्दनीय अछि। मायकेँ बजएबाले गुप्तस्थानक कोन आवश्यकता! आ संगहि सार्थक स्तोत्रक स्थानपर ई अनर्थक मन्त्र सभ हं हां हिं हूँ सभ कोनो अनपढ़ लोकके भरमाए सकैत अछि, एहि मिश्रटोलक वैदिक सभके नहि।”

ओ श्रमण किछु बाजए चाहिते रहथि कि षडानन मिश्र मुसकियाइत बजलाह-“सार्थक मन्त्र किं वा पुराण पढ़बाक लेल’ व्याकरण आ शिक्षा शास्त्र छओ वर्ष पढ़ए पड़तनि। एतए तँ केश काटएमे जतेक काल लागए ओतबे कालमे हरबाहसँ आचार्य भए जाइत छथि। तखनि भ्रां भ्रीं भ्रूंसँ बेसी की कए सकताह सेहो चुप्पेचाप। केओ सूनि नै लिअए। यैह थिक हिनक गुह्य साधनाक तात्पर्य।”

गेरुआ वस्त्रधारी ओ श्रमण भीतरे-भीतरे जे जरि गेल होथि, मुदा मुखक भाव बदलए नहि देलनि। ओ बजलाह- “अहाँ लोकनि विद्वान् छी। हम एतए शास्त्रार्थ करए नै महाश्रमणक एकटा सूचना लए आएल छी। एहि संघाराममे उपयोगक लेल कुमारि कन्याक हाथक काटल कर्पाससूत्र चाही। अहाँ लोकनिक घरमे अनेक कन्या छथि। दक्षिणाक रूपमे दीनार भेटत आ हुनका लोकनिकेँ प्रतिदिन संघाराममे भोजनो कराओल जाएत। काल्हि भोजनक कालमे हम लए जेबा लेल उपस्थित भ’ जाएब।”

-“अओ श्रमण! संघाराममे कार्पाससूत्रक कोन प्रयोजन! एतए तँ चीनांशुकक व्यवस्था स्वयं महाराज करैत छथि।”- एकटा गृहस्थ बाजि उठलाह।

-“सूत्रक प्रयोजन गुह्य अछि। एकरा हम प्रकट नै कए सकैत छी।”

“मुदा हम जनैत छी श्रमण!” मण्डन मिश्र बजलाह -“हमर गुरुचरण भट्ट महाशय हमरा कहने रहथि जे कुमारि कन्याक काटल सूतसँ ‘बोधिसत्त्व पट’ बनैत अछि आ ओकर आगाँमे विभिन्न प्रकारक साधना कएल जाइछ। की सैह बात छियै ने श्रमण!’

श्रमण परिपक्व रहथि, ओ उत्तेजित नै भेलाह किन्तु गरदनि लटका क’ गोंगियेलाह-‘हँ! ओ धूर्त, छद्मवेष कुमारिल भट्ट अवश्य सभटा गुह्य जानि गेल रहथि। मुदा आइ हुनक शिष्यकेँ हम ताकि लेबामे सक्षम भेलहुँ, तकर हमरा गौरव अछि।’

-“तँ की महाराजसँ कहि भकसी झोंकबाक मरबा देब आ कि हमर गुरुए जकाँ पहाड़परसँ धकेलि देब।” मण्डन मिश्र बजलाह।

-“अहाँ आइयो वैदिक धर्मक पताका कन्हेठने संघारामक साधनाक विरोध कए रहल छी। हमरा अहाँक सभटा क्रिया-कलापक सूचना अछि। अहाँ सनक विद्वानकेँ एतेक छोट दण्ड नै भेटबाक चाही वैदिकप्रवर!’ श्रमण महाराजहि जकाँ आदेश-स्वरमे बजलाह। लंकामे जे सबसँ छोट सेहो उनचास हाथ!

श्रमण अपन अयबाक उद्देश्यमे कोनो विचलन नै चाहैत रहथि तें फेर बजलाह-“अहाँ लोकनिक घरमे कुमारि कन्या होएबे करतीह। ओ सभ टकुरीसं सूत काटि धनोपार्जन कए सकैत छथि। तखनि रहल वाङक गप्प, से जँ अहाँ लोकनिक बाड़ीमे नहि हुअए तँ हमही पठबाए देब।”

-“हुनका लोकनिकेँ अध्ययन रहैत छनि, गृहकार्य रहैत छनि। प्रातःकाल यज्ञ आ देवपूजनक व्यवस्था, तकर बाद काव्यक अध्ययन, फेर चित्रकला, संगीतकला आदि सीखैत छथि। बेचारी सभके फुरसति कखनि जे टकुरी चलओतीह।”- षडानन मिश्र बाजि उठलाह

-‘बेटीकेँ पढाक’ की होयत। स्त्री तँ मायाजाल थिक। ओकरा जतेक सबल बनाएब ओतेक जालमे फँसब।’

मण्डनमिश्र वृद्ध तँ छलाहे एहन बात के सहि नहि सकलाह- “श्रमण! अहाँ सीमासँ बाहर जाए रहल छी। हमर वैदिक धर्ममे नारी बिना पुरुष सर्वकर्मानर्ह छथि। हमरा सभक परम्परामे गार्गी, अपाला, रोमशा, वाक् आदि ब्रह्मवादिनी छथि। नारीक अपमान हम सभ नहि सहि सकब।”

मण्डनकेँ उत्तेजित देखि सभ केओ श्रमण दिस वक्र दृष्टिए देखैत घोषणा कएल- “हम सभ कार्पास सूत्रक कोनो व्यवस्था नै कए सकब, जाऊ महाश्रमणकेँ कहि देबनि।”

श्रमण स्थिति बिगड़ल देखिर उलचटे पयरें संघाराम दिस घुरि गेलाह।

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