8

कामरूपमे भास्करवर्मन् अफसदक आयोजनसँ घुरैत काल जलवायु परिवर्तनक कारणें अस्वस्थ भए गेल रहथि। महारानी सेहो श्रान्त क्लान्त भए गेल रहथिन्ह। दू दिन अपन राजधानी पहुँचना भेले रहनि कि ओतहु नेपाल आ तिरहुत दुनू ठामसँ दूत आबि तुलाएल। भास्करवर्मन् स्वयं चालीस पार कए चुकल रहथि, तँ ओतेक सहनशक्ति सेहो नै रहि गेल रहनि। दू-दू ठामसँ निमन्त्रणकेँ अस्वीकारो करब कठिन लागि रहल छलनि। विशेषतः नरेन्द्रदेवक निमन्त्रणक अवहेलना सभसँ कठिन छलनि, कारण जे महाचीन आ तिब्बतक संग धार्मिक कारणसँ मैत्री कए नरेन्द्रदेव शक्तिशाली भए गेल रहथि। तिरहुतक अरुणाश्वसँ यद्यपि हुनका कोनो भय नहि छलनि, मुदा हुनक राजसूय यज्ञमे नहि गेलासँ अकारण वैमनस्य आशंका छलनि, जाहिसँ ताबत धरि बचए चाहैत छलाह जा धरि मगधराज आदित्यसेनसँ कोनो मन्त्रणा नहि भए जाइत छन्हि। तें ओहो असमंजसमे पड़ि गेलाह।

मुदा ई स्थिति दू दिनसँ अधिक नै रहलनि। मगधराजक राजदूत आबिक’ सभटा असमंजस मेटा देलकनि। मगधराज हुनक राज्यमे तीर्थयात्राक क्रममे आबि रहल छथि, इएह सूचना हुनका अन्यत्र कतहु जएबासँ मुक्त करबालेल पर्याप्त छल।

एम्हर हुनक पुत्र भोगवर्मन् जहियासँ अफसदसँ घुरल रहथि राजकुमारी मल्लिकाक चिन्तनमे डूबि गेल रहथि। राजमहल प्रमदवनमे फूलक थारसँ लदल मल्लिकाक लता चन्द्रिकाक धवल ज्योत्स्नामे आलिंगन लेल आमन्त्रित करए लागल रहनि। एहि प्रणयमे विरहक वेदना नहि, सतत उपस्थितिक आभाससँ आँखि आ पयरमे स्थिरता समा गेल रहनि। ओ जखनि सुनलनि जे मल्लिका अपन माता-पिताक संग तीर्थ यात्रापर आबि रहल छथि तँ कामरूपकेँ सज्जित करबाक कल्पनामे लीन भए गेलाह।

कामरूप पर्वतक शिखरपर भगवान् सूर्यदेवक एक गुफा  छल। ओ एहि देशक दर्शनीय स्थल भए सकैत छल, जतए वन विहार करैत यात्राक रहस्यमय आ रोमांचकारी बनाओल जा सकैत छल। युवा भोगवर्मा शिल्पी सभकेँ आदेश कए एहि स्थानकेँ राजकीय यात्राक संग विहारक लेल उपयुक्त बनओलनि। सूर्यदेवक गुफामे नियमित पूजक नियुक्त कए ओकरा एकटा तीर्थस्थलक रूपमे विकसित कएल।

ओतहि दोसर शिखरपर एकटा समतल प्रस्तरखण्ड देवीक पीठक रूपमे पूजित छल। असंख्य जन समुदाय ओतए जाए पूजा अर्चना करथि।  महाराज एहि सभ पर्वतीय स्थलके राजकीय यात्रक लेल व्यवस्थित सुसज्जित करबामे लागि गेलाह। आ एहि लेल युवराज भोगवर्मनकेँ अतिथि सत्कारक सभटा भार देल गेलनि। कामरूप सजिक तैयार भए गेल।

9

तिरहुतमे कोशीक पश्चिम तटपर राजसूय यज्ञ प्रारम्भ भेल, जाहिमे महाराज अरुणाश्व स्वयं यजमान भए दीक्षा लेलनि। मिथिलाक प्रख्यात कर्मकाण्डी मीमांसक कुमारिलभट्ट गुरुकुलसँ दीक्षान्त समारोह सम्पन्न कए आएले रहथि, मुदा गुरुक कृपासँ विशेष ख्याति पाबि नेने रहथि तें हुनका कमला-स्कन्धसँ  विशेष आग्रह कए बजाओल गेल छल।

महाराज अरुणाश्वक निमन्त्रणपर काशिराज, अवधराज, आ वैशालिराज उत्साहपूर्वक एतए उपस्थित छलाह। गौड़ शासक शशांक सेहो वैदिक धर्मावलम्बी रहथि तें ओहो दत्तचित्त भए एहिमेँ उपस्थित भेल छलाह। पंच-हैन्दवक ई तीनू साम्राज्य वैदिकधर्मक प्रबल समर्थक रहथि। ओम्हर गौड़ाधिपति सुदृढ़ सैन्यशक्तिक लेल विख्यात रहथि तें हुनक सक्रिय उपस्थितिसँ महाराज अरुणाश्वकेँ आन्तरिक बल भेटल आ ओ निश्चिन्त भए उद्योगमे लागल रहलाह आ निर्विघ्नपूर्वक समयपर यज्ञ प्रारम्भ भेल।

एम्हर नेपालमे महाराज नरेन्द्रदेव पुत्र-जन्मक उपलक्ष्यमे चक्रपूजा प्रारम्भ कएल। महाचीन, तिब्बत आ अन्य पर्वतीय छोट-छोट जनजातिक बौद्ध वज्रयानी, मन्त्रयानी सभ जुटलाह। महाचीनमे मंजुश्रीकपरम्परा दक्षिण भारतक श्रीशैलम्सँ गेल छल आ पण्ढरवासिनी तारा बोधिसत्त्वक शक्तिक रूपमे प्रतिष्ठित छलीह, जनिक पूजा चक्रार्चनक रूप लए नेने छल। एहि पूजन-पद्धतिमे निष्णात साधक लोकनि नेपालमे जुटल छलाह। तिब्बतक महाराज सेहो सोलहो कला लेने भाग लेने रहथि।

ओ चीनी राजदूत ओतहि तिरहुतमे बुद्धमूर्तिक स्थापना आ संघारामक स्थापनाक माध्यमसँ धार्मिक विजयक षड्यंत्रकेँ स्पष्ट करैत अपन प्रस्ताव देने रहथि जकर करतल ध्वनिसँ स्वागत भेल छल। -“हमर उद्देश्य अछि जे तिरहुत बौद्धधर्म स्वीकार करए आ समस्त पंच-हैन्दवमे भगवान् बोधिसत्वक पूजा हुअए।” वांग पो-चु अपन उद्देश्य कहलनि।

प्रात भेने ओ तिरहुतक यात्रापर चललाह। पचास अंगरक्षक, दस बौद्ध भिक्षुक आ अनेक भृत्य सभक दल हुनका संग नावसँ धर्ममूलाक धाराक संग चलल। हुपक पहिल लक्ष्य आपण ग्राम छल।

आपणग्रामक निकटवर्ती घाटपर जखनि हुनक नाव पहुँचल तँ किछु स्थानीय वैदिक छात्र लोकनि जे पूर्ण युवा भए गेल रहथि, ओ सभ हुनक स्वागतमे पूर्व नियोजित रीतिसँ ठाढ़ छलाह आ हुनका संग किछु राजकीय सैन्यबल आ’ भृत्यक समूह छल। राजा स्वयं तँ राजसूय यज्ञमे अपनाकेँ व्यस्त कए नेने रहथि आ एतए कोनो अधिकारियो उपस्थित नहि रहथि। छात्र लोकनिकेँ सभटा योजना बुझा देल गेल रहनि आ इहो कहि देल गेल छलनि जे राज्यक प्रधान सेनापति अहाँलोकनिक अनुचरक अनुकरण करैत छद्मवेषमे संग रहताह आ आपण ग्राममे असंख्य सैनिक ग्रामीणक वेषमे रहत। कोनो असहज स्थिति होइथहिं ओ लोकनि सभटासँभारि लेताह।

नावसँ उतरिते वांग-पो-चु पुछारि कएलनि जे हमर स्वागतमे के सभ छथि। हुनका आशा रहन्हि जे स्वयं महाराज यज्ञ छोड़िक’ दौड़ल अओताह। मुदा से नहि देखि हुनक भ्रूकुटी तनि गेल- “राजा अरुणाश्व कतए छथि?

-“ओ कौशिकीक तटपर यज्ञ कए रहल छथि महाशय!”-एकटा युवा छात्र उत्तर देलनि।

-“कतेक पशुक घात होएत?”

-“पशुक घात नहि ‘बलि’ कहबाक चाही।”

-“कोनो शब्द कहि दियौक तें की पशुक पीड़ा कम भए जेतैक?”

छात्रलोकनि बात बढ़ाबए नै चाहलनि। तें सोझे कहलथिन- “शतपथ ब्राह्मणमे याज्ञवल्क्य अन्नमय पशुक बलिक विधान कएने छथि। हमसभ ओकरे प्रयोग करैत छी। महाराज स्वयं यज्ञमे बाझल छथि, किन्तु अहाँके एहि यात्रामे कोनो असुविधा नहि होएत।”

-“आपणग्राम कतए अछि?” एहि धर्ममूला नदीक तटपर ओ विख्यात ग्राम अछि। हमरालोकनि पश्चिम तटपर छी। एतए निकटमे महिषी ग्राम छैक। कहल जाइत अछि जे एकटा राजा रहथि हुनक रानीक नैहर एतहि छलनि। ओ राजा अपन रानीक संग वर्षमे सात दिन एतए ओहि झोपड़ी मे अज्ञातवास करथि। रानीक नैहर हेबाक कारणें एकर नाम महिषी पड़ि गेलैक। ओना कवितामे छन्दक अनुरोधें ‘राज्ञीʼ सेहो कहल जाइत छैक।” एक छात्र कहलथिन।

-“पहिने कतए चलब।”

-“एहि गाममे एकटा ऊँच डीह अछि। एतए बौद्धलोकनि आबि दर्शन करैत छथि आ एहि ठामसँ माटि लए जाइत छथि। जँ इच्छा हो तँ ओ डीह देखा दी।

-“अवश्य1”-वाँग-पो-चु बजलाह।

सभ केओ पश्चिम दिशाक बाट धेलनि। छात्रलोकनि ओहि राजदूतक आगाँ-पाछाँ चलि रहल छलाह आ ओहि गामक सम्बन्धमे बुझा रहल छलथिन्ह- “ई बड़ प्राचीन ग्राम अछि। एतए प्राचीन कालक अनेक अवशेष सभ भेटल छैक। एखनि एतए वैदिक विद्वान् सभक बड़ पैध बस्ती अछि। किछु घर शूद्र सेहो अछि जे मुख्य रूपसँ पशुपालन करैत अछि। एतए एकटा प्राचीन समयक डीह जे अछि तकरा मादे ऐतिह्य छैक जे महात्मा बुद्धक प्रथम पाँच शिष्यमेसँ एक शिष्यक जन्म एतहि भेल रहनि। एहि डीहपर एखनि केओ नहि रहैत छथि। देखू, ओएह ताड़क गाछ लग जे डीह देखैत छियैक ओतहि हमरा लोकनि जाए रहल छी।” मिश्रटोली दिस जाए बला प्रशस्त मार्गकेँ छोड़ि आब सभ एक पेरिया धेलनि। एकर दुनूकात खेत छल। मुदा थोड़बे कालमे ओहि डीहपर पहुँचि गेलाह।

करीब एक बिगहामे ई डीह पसरल छल जकर चारूकात जंगल-झाड़ बेल घनगर भए गेल रहैक। ओतहि एकटा छोट छिन पोखरि सेहो छल जे उत्थर भए गेलाक कारणे एखनि चैतमे सुखा गेल छल, मुदा जलीय घास आ डोका घोंघाक’ अवशेष ओकरा पोखरि होएबाक साक्ष्य रहैक। एकटा छात्र कहलनि जे वर्षा भेलापर किछु पानि रहैत छैक।

डीह ऊपरसँ समतल छल। ठाम-ठाम घास छीलि क’ बीचमे खाधि खुनल गेल रहैक, तकर अवशेष स्पष्ट देखार छल। एकरा देखबैत एक छात्र कहथिन्ह जे परुकाँ साल जखनि नालन्दा महाविहारमे धर्मकीर्ति आचार्य भेलाह तँ ओ एतए आएल रहथि आ होम कएने रहथि। ओएह कुण्ड थिक जे भदवारि मे भथन भए गेलैक।

धर्मकीर्तिक नाम सुनैत देरी वाँग-पो-चु क आँखि चमकि उठल। ओ ओतए तीन दिन रुकबाक इच्छा प्रकट करैत बजलाह- “हमहूँ सभ एतए होम करब। तें एतहि विश्रामक व्यवस्था कएल जाए।”

छद्मवेशमे जे सेनापति रहथि ओ आबिक’ छात्रगणक मुख्य छात्र लग आबि पर्युत्थानक मुद्रामे ठाढ़ भेलाह आ आवासक व्यवस्था करबाक आढति सूनि- “जे आज्ञा” कहि निकलि गेलाह।

एकटा पीपरक गाछक छाहरिमे तत्काल सभ अतिथि आ छात्रलोकनिकेँ बैसबाक व्यवस्था कएल गेल आ थोड़ेक दूर हटि कए खढ आ बाँससँ घर बनएबाक व्यवस्थामे भृत्य सभ लागि गेल।

जाबत धरि छात्रलोकनि ओ स्थान देखओने नै छलथिन्ह तावत तँ वाँग-पो-चु शान्त छलाह आ बुझाइत छलनि जेना हुनका मनमे छात्रलोकनिक प्रति सम्मानक भावना रहए, मुदा ओ स्थल भेटैत देरी हुनक क्रोध ज्वालामुखी जकाँ फाटि गेल- “अहाँ सभ छात्र छी। अध्ययन अहाँ सभक कार्य थिक। हमरा नै बुझल छल जे एहि ‘ति-एह-लो’ के राजा एतेक अविवेकी आ अभिमानी हेताह जे एकटा राजदूतक स्वागत लेल अहाँ सभके पठा देताह। हुनका स्वयं अएबाक चाहियनि।”

-“राजदूतक रूपमे अपनेक ई राजकीय यात्रा नहि, तीर्थयात्रीक रूपमे धार्मिक यात्रा थिक। एहिमे राजाक कोन प्रयोजन? हम सभ छी, कोनो असुविधा रहय तँ कहू।”- छात्र कहलनि।”

“अहाँ सभ की हमर स्वागत करब। ब्राह्मण! मांसभक्षी! नरपिशाच!!”

छद्मवेशमे घुरिआइत सेनापतिक आदेशसँ एही कालमे पेयजल आ फल-मूल लए किछु भृत्य हठात् प्रस्तुत भए गेल तें वार्ता भग्न गेलैक। मुदा ओ राजदूत अपन क्रोधकेँ शान्त होएबासँ बचएबाक लेल नव-नव छिद्र ताकए लगलाह।

“ई भोज्य पदार्थ कतएसँ आएल?”

एहि बेर सेनापति स्वयं उत्तर देलनि- “अहाँ सभ एहि गामक अतिथि भेलहुँ। गामक धरतीक गर्भमे अतिथि-सत्कारक लेल पर्याप्त जल आ कन्द-मूल अछि, अतिथिवर!”

राजदूत चुप्पे रहलाह आ ओ चङेरा ग्रहण कएलनि। सभ यात्री फलाहार प्रारम्भ कएल। वैदिक छात्रलोकनि ओतएसँ उठि कात भए गेलाह जतए भृत्य सभ आवासक निर्माण कए रहल छल।

अल्पाहार समाप्त भेलापर ओ राजदूत अपना संग आएल आचार्य वाँग-शि-त्सांग् क दिस तकलनि तँ ओ सचेष्ट भेलाह आ चारूकात देखिक’ कहलनि -“अद्भुत!! उत्कृष्ट स्थान अछि। भगवान् बोधिसत्त्व आ माँ आर्यताराकेँ प्रायः इएह इच्छा छलनि।”

-“तखनि व्यवस्था करू। शुभ मुहूर्तमे स्थापना भए जाए। सूत्रधार सेहो उपस्थिते छथि। तत्काल मृण्मय मूर्तिक स्थापना कए सकैत छी।” – वाँग-शि-त्साँग बजलाह।

-“तँ जाउ, आ जतए धर्मकीर्ति होम कएने रहथि ओतए मण्डप बनबाए लिय।”

साँझ धरि मण्डप बनिक’ तैयार भए गेल। सभ अपन-अपन आवासमे स्थान लेलनि। ओतए पर्याप्त भृत्य आ रात्रि-प्रहरी मल्लक व्यवस्था कए छात्रलोकनि सान्ध्यकृत्य आ रात्रि विश्रामक लेल मिश्रटोल दिस विदा भेलाह।

भिनसर होइते परोपट्टामे ई बात पसरि गेल जे महिषीमे चीनसँ जे महात्मा सभ आएल छथि ओ बड़-बड़ गुन जनै छथि आ जकरापर प्रसन्न भए जाइत छथि, तकर घरक सभटा रोग-बलाए भागि जाइत छै। से भोर होइतहि ओतए हेंजक हेंज आबाल-वृद्ध-वनिता जुटए लागल। आपणग्रामक पूरा भृत्यकुल तँ एके बेर उनटि आएल आ मध्याह्न होइत होइत ओतए पैर धरबाक जगह नहि रहलैक। वाँग-पो-चु एकरा भगवान् बुद्धक कृपा बुझलनि आ पीपर गाछक तरमे मंच लगबाए धर्मसभा प्रारम्भ कएल-

“भगवान् बुद्ध कहने रहथि जे जँ केओ नदीक कातमे ठाढ़ भए नदीक वेगमे भाँसल जाइत लोककेँ नै उबारैत अछि तँ ओकरा वीर नै कहल जा सकै-ए। भगवान् प्रतिज्ञा कएने रहथि जे ओ स्वयं एहि दुःख नदीकेँ पार कए सभके पार लगओताह। हुनक करुणा अपरंपार अछि। हुनक शरणमे आउ, सभटा दुःख-दर्द दूर भए जाएत। ब्राह्मण यज्ञ कए स्वर्गक बाट देखबैत छथि जे स्वर्ग मिथ्या थिक। ओ सभ जाति-भेद कए ठकि रहल छथि। यज्ञक नामपर हत्या होइत अछि। निरीह पशु मारल जाइत अछि तेँ ओकरा रोकू। अहाँ सभक राजा अरुणाश्व यज्ञ कए रहल छथि, मुदा ओहिसँ अहाँ सभकेँ की भेल? आइयो अहाँक घरमे बच्चा दुखीते हैत, केओ भूखल हएत, केओ नाँङट हएत। जँ यज्ञसँ देवता प्रसन्न भए कल्याण करितथि तँ आइ अहूँ सभक देहपर मांस रहितए, बच्चा, जुआन, बूढ विलखैत नै रहतए। सत्य तँ ई थिक जे ब्राह्मण सभ यज्ञ करै छथि अपना लेल। घी-दही-दूध आ मांस खाएक’ अपन पेट चलएबा लेल। ओ कहैत छथि जे तों पएरसँ जनमल छें, पयर तर रहल कर। तें छोड़ू सभटा। आउ भगवान् बुद्धक शरणमे- “बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि।”

आउ महामानव लोकनि! जे चाही एखनहि संघमे आबि जाउ। आचार्य वांग्-शि-त्सांग् प्रस्तुत छथि। हिनका अहाँ सभ ‘वशिष्ठʼ कहि सकैत छियनि। प्रवज्या लिए आ भगवान् बुद्धक शरणमे आबि जाउ।

जन-समुदाय एतेक काल धरि स्तब्ध छल- एक एकटा शब्दकेँ जेना पीने जा रहल छल। आचार्य वांग-शि-त्सांग् उठि क’ ठाढ़ भेलाह। हुनका दिव्य मुखाकृति चमकि आ दहिना हाथ हवामे भाँजए लगलाह। ओ हाथ जखनि स्थिर भेल तँ हुनक तरहत्थीपर एकटा जरैत दीप सभ देखलक। निस्पन्द दीपशिखा सभके देखा पड़लैक शान्त— स्निग्ध— सौम्य—। सूर्यक प्रकाशोमे ओकर श्वेत-स्वर्णिम शिखा चमकि रहल छल। ओ हुँकार भरलनि-

ये धर्मा हेतुप्रभवा हेतुं तेषां तथागतोह्यवदत्।

तेषां च निरोध एवंवादी महाश्रमणः।।

ओ दीपकेँ सोझाँ राख विकासिनी मुद्रा बनौलनि। दूनू तरहत्थीकेँ जोड़ि दशो टा अंगुलकेँ बाहर दिस पासरि वज्रक आकारमे बनाए मन्त्र आरम्भ कएलनि- “ॐ गगनसम्भवे दीप्त दीप्त ज्वालय ज्वालय बुद्दाधिष्ठिते विकाशय विकाशय सर्वबुद्धान्। हूं हूं विकासिनि फट् फट् स्वाहा।”

जनसमुदाय ताधरि सम्मोहित भए चुकल छल। ओहि भीड़सँ एकटा युवक बढ़ल ओकर पाछाँ दू, तीन, चारि…आब भीड़मे खलबली मचलै। एकटा वृद्धा कानि उठल-“बाउ हो बाउ।” आगाँ बढ़ैत पंक्ति देखिक’ भीड़मे कन्नारोहट मचि गेल।

कातेमे बैसल वैदिक छात्रलोकनि छद्मवेशमे ठाढ़ सेनापतिक दिस तकलनि सेनापति आँखियहिसँ इसारा कएलनि आ छात्र लोकनि ऊठि क’ गरजि उठलाह- “बंद करू ई धर्म-परिवर्तन!!”

वाँग-पो-चु एहि अप्रत्याशित घटना लेल तैयार नै रहथि, मुदा सेनापति पूरा साकांक्ष छलाह। मन्त्रमुग्ध भए प्रवज्याक लेल बढ़ैत पंक्तिके घेरि लेलनि आ गरजलाह- ‘खबरदार, केओ आगाँ नहि बढ़य।”

वाँग-पो-चु गरजलाह- “भृत्य भ’ क’ तोरा एना रोकबाक साहस कोना भेलौ? भृत्य छें आदेशक पालन कर! हटि जो सोझासँ।”

सेनापतिकेँ आब नै रहल गेलनि। ओ एकटा दोसर भृत्यक हाथसँ दण्ड छीनि वाँग-पो-चुकेँ संकेत कए कहलनि- “महाराजक प्रधान सेनापति असिधर स्वयं अहाँक समक्ष उपस्थित छथि अतिथि महोदय। अहाँ तीर्थयात्री छी, दर्शन करू, पूजा-पाठ करू, एहिठामक जनताके सम्मोहन मन्त्रक जादू चलाक’ धर्म परिवर्तन नहि कराए सकैत छी। ई राजाज्ञा अछि।”

वाँग-पो-चुकेँ दू टा आघात एके संग लगलनि ओ हठात् ऊठि क’ ठाढ़ भेलाह-“हमर एतेक पैघ अपमान!!! आब एतए हम सभ एको क्षण नै रुकब।” अपना संग आएल यात्री सभकेँ संकेत करैत चमकि उठलाह- “चलू सभ एखनहि।’ आ भीड़के चीड़ैत सोझे धर्ममूलाक बाट धएलनि जतए हुनका सभ नाव लागल छल।

छात्रलोकनि कनेक घबड़एलाह, डर भेलनि। अपन आतिथ्यमे विघ्न भेलासँ राजदण्डक आशंका भेलनि, मुदा सेनापति अपन तत्परतासँ सभ दायित्व अपनापर लए भयमुक्त कए देलथिन्ह।

वाँग-पो-चु आ हुनक सहयात्रीकेँ केओ पकड़बाक प्रयासो नै कएने रहनि तेँ धर्ममूलामे लागल नावपर चढ़ि विदा होएबामे कोनो व्यवधान नै भेलनि। हुनक नाह आब धाराक विरुद्ध उत्तर दिशामे बढ़ि रहल छल। नदी सेहो शान्त छल, तें कोनो असुविधा नै भेलनि। मुदा वाँग-पो-चु क हृदय अशान्त छल। एहि स्थितिक आशंका तँ हुनका चलबासँ पहिनहुँ रहनि आ महाराज नरेन्द्रदेवसँ एहि विषयपर वार्ता सेहो भेल रहनि तथापि ओ एहि ठामक दीन-हीन भृत्यकुलक सहयोगसँ एहि कार्यक योजना बनओने रहथि। मुदा सेनापतिक उपस्थितिमे सामान्य जन कोनो सहयोग नै कए सकल छलनि तें हुनक सभटा आक्रोश राजा अरुणाश्वपर केन्द्रित भए गेल छल आ राजाक दिससँ भेल अपमानक आगिमे धधकि रहल छलाह।

जखनि नाह बहुत दूर निकलि गेल आ ओ आश्वस्त भए गेलाह जे तिरहुतक सैन्यबल हमरालोकनिक पाछाँ-पाछाँ नहि आबि रहल अछि। तखनि अगिला योजनापर विचार करबा लेल वाँग-शि-त्सांग दिस तकलनि जे हुनकहि कातमे बैसल रहथि।

-“एहन राजक तँ कपाल-क्रिया कए देल जाए। जँ आज्ञा हो तँ” ओ बजलाह।

-“हँ, हँ अवश्य। की एकटा साधकक रूप मे अहाँ अभिचार कर्म कए सकैत छी?” वाँग-पो-चु बजलाह।

-“अवश्य कए सकैत छी जँ ओहि राजाक राज्यमे एकान्त स्थानमे स्थापित शिवालय भेटि जाए।”

-“नाविक आ भृत्यसँ पूछल जाए।”

नाविककेँ धर्ममूलाक कछेरक सभटा स्थान देखल छलैक। ओ सूचना देलकनि जे एहिठामसँ प्रायः दस कोस उत्तर एकटा महावन छैक, जकर चारूकात परिखा जकाँ एकटा धारा बहैत अछि आ तकर बाद दलदल छैक जे अखनि सुखाएल हेतैक। एहि महावनमे एकटा ढहल ढनमनाएल मन्दिर छैक। मन्दिरक चारूकात फल-फूल सेहो भेटि जाई छै, मुदा ओतए केओ एसकर दोसकर जेबाक साहस नै करै-ए। -“ तखनि तँ ओतहि ई अभिचारकर्म कएल जाए आ राजाक कपाल फाड़ि कए हुनका यमलोक पठाओल जाए। की साँझ धरि ओतए पहुँचि सकबह?” वाँग-शि-त्सांग नाविकसँ पुछलनि।

-“जँ धेमुड़ा माइक किरपा हेतनि।” नाविक बाजल।

-“से की?”

-“तखनि सुनल जाए खिस्सा।”

नाविक करुआरि चलबैत निश्चिन्तसँ पुराण सुनाबए लागल- “जखनि महादेवक बियाह गौरीदाइसँ भेलनि तँ मैना माइक खुशीक ठेकान नै रहलनि। बियाहक सभ विध हुअए लागल। मुँहबज्जीक राति घोलमाड़ि जे कोबरा घरक दुआरि के छेकत? ई काज सारिके होइ छै। हिमवानकेँ तँ मारते रास बेटी रहथिन आ सभ गौरी दाइसँ छोटे रहथिन। पहिल बेर मैना सोचलनि जे गंगासँ ई विध करा दै छियै। ओ महादेवकेँ बड़ पसिन्न छथिन्ह तेँ ने हुनका माथ चढओने छथिन।

मुदा बेचारी गंगाकेँ साहस नै भेलनि जे ओ महादेवक कोबराघरक दुआरि छेकथि। ओ कहलखिन जे जँ महादेव बिगड़ि जेताह तँ हम हुनक जटेमे घुरिआइत रहि जाएब। तखनि कमलाक बारी एलनि। कमला सेहो हिमवानक बेटी छलीह, मुदा हुनक पयर तँ कतौ थिर रहनिहार नै। हुनकर खेाज भेल तँ ओ अपन छबो सहेलीसँगे करिया-झुमरि खेलाइ लेल कतहुए निकलि गेल रहथि। हुनक खोज होमए लागल। कतोक लोककेँ पुछल गेलनि तँ ओ सभ के टा उत्तर दथिन जे एखनि तँ एतए छलीह, पता नै कतए गेलीह। चेरिया सभ हुनक सभक खोजमे एम्हरसँ ओम्हर बौआइत रहलि मुदा भेटबे नै केलखिन।

हिमालयक बेटी सभमे धेमुड़ा बड़ बुझनुक रहथि। एकदम थिरमतिया। हुनका सभटा विध देखबाक इच्छा रहनि। ओ जखनि बुझलनि जे कमला सभ सखी-बहिनपा के करिया झुम्मरि खेलाइ लेल ताकि रहल छथि तँ ओ मैनाक आँचर तर नुका रहलीह। जखनि दुआरि छेकबाक विधके बेर भेलै त’ मैना कमलाकेँ ताकए लगलीह मुदा ओ त’ निपत्ता रहथि। हुनका तकबाक लेल पठाओल चेरिया सभ थाकि-हारि घुरि गेल छल। तखनि आजिज भए कमलाकेँ संबोधित कए मैनाक मुँहसँ निकलि गेलनि- “गे कमलिया, तोहर पयर कत्तौ थिर नै रहतौ। अहिना तो सभ दिन बौआइत रहबें।”

विधक बेर भए गेलै। महादेव गौरी दाइक संगे दुआरिपर पहुँचि रहल छलाह। आब की हेतै? तखनि मैनाक आँचर तर नुकाएल धेमुड़ा सुरफुरएली- “माय! हमही जाउ?” धेमुड़ा कहलनि।

मैनाक तँ जानमे जान आएल। ओ हुलसैत ओहि बेटीकेँ दुलार कएलनि आ कहलनि- “बड़ दीव, बड़ दीव, धर्म तोहर बढ़तौ, यश बढ़तौ।”

धेमुड़ा कोबरा घरक दुआरि छेकलनि। महादेव अएलाह तँ धेमुड़ा कहलथिन्ह-“पहिने इनाम दिय’ तखनि जाए देब।” महादेव पुछलथिन्ह जे की चाही से बाजू।”

आब तँ धेमुड़ा सोचमे पड़ि गेलीह। महादेवक बगए-बानि देखि क’ गहना-गुड़िया मँगबाक साहस नै होनि। ई फक्कड़ बाबा की देताह? तखनि की माँगथि से फुरएबे नै करनि। एम्हर महादेव अगुताइत रहथि। ओ फेर पुछलनि- “हमर ई दुलरुआ सारि के जे चाहियनि से बाजथु हम पूरा करबनि।”

धेमुड़ादाइकेँ तँ अकबक किछ नै सुझाइनि। तखनि तँ फेर महादेवे छलाह। हुनका इच्छा रहनि धेमुड़ा एहि शुभ घड़ी मे तेहन चीज माँगि लेथि जाहिसँ तीनू लोकक कल्याण हुअए। ओ मोने-मोन सरस्वतीकेँ कहलखिन जे अहाँ धेमुड़ाक जीहपर बैसि जाउ आ हमर इच्छाक अनुसार वाणी बनि क’ हुनका मुँहसँ बहराउ। सरस्वती सैह कएलनि आ धेमुड़ाक मुँहसँ निकलीह- ‘हे महादेव! हमरा अपन ई तेसर आँखि दए दिय, जाहिसँ आइ दिनसँ अहाँक एहि आँखिक ज्वालामे कोनो नारीक सोहाग नहि जरए।’

महादेव मुसकिएलाह- “अएँ, एते कालसँ त’ किछ बाजि नै होइत छल आ आब एहेन पैघ वस्तु माँगि लेलौं। मुदा अहाँ ई राखब कतए? एकरा झाँपिक’ राखए पड़त नै तँ अहीं भस्म भए जाएब।” धेमुड़ादाइक जीहपर तँ सरस्वतिए बैसल रहथि। ओ चटसँ उत्तर देलनि- “हमर आँचरमे दए दिय।”

महादेव अपन तेसर आँखि दैत कहलथिन्ह- “अपनापर भयंकर विपत्ति ल’ क’ अहाँ जे तीनू लोकक कल्याण करबा लेल तैयार भेल छी, ताहिसँ प्रसन्न भए वरदान दैत छी जे कलियुगमे जखनि अहाँ नदीक रूपमे बहए लागब तँ अहाँक जलमे जे सुहागिन नहाएत तकर भाग-सोहाग अटल रहतै आ सभ हमर प्रिय रहत। हमर ई तेसर आँखि हिमालयपर अहाँक कछेरमे ‘रुद्राक्ष’क रूपमे जनमत।”

एहन अवसरपर गौरी दाइ सेहो किए चुकतीह। ओहो वरदान देलखिन जे अहाँ जें कि अपन आँचरमे ओ आँखि रखलहुँ तें आइ दिनसँ नारीक आँचर हरदम पवित्रे रहल आ जाहि वस्तुके ओ आँचर लगाए छूबि देत, अचराए देत, ओहो पवित्र भए जाएत।”

एते काल तँ महादेव तीनू लोकक कल्याण करबामे मातल छलाह। जखनि गौरीदाइक बोल सुनलनि तखनि मोन पड़लनि जे एखनि ओ कोबराघरक दुआरिपर ठाढ़ छथि। तखनि ओहो मुसकियाइत कहलखिन जे हमरा जखनि जखनि अहाँ सनक बुधियारि सारिक सुन्दर मुँह देखबाक हैत तखनि हम एही तेसर आँखिसँ कनडेरिये ताकि लेब।”

ई सुनितहि धेमुड़ा थरथर काँपय लगलीह आ घबड़ाक’ ओतएसँ भागि पड़यलीह। महादेव गौरीक संग कोबराघर गेलाह।

“आ तहिएसँ जखनि-जखनि महादेव ओ तेसर आँखि खोलैत छथि, धेमुड़ाक पानि पहाड़ेपर रुकि गेलासँ घटि जाइत अछि आ जखनि ओ आँखि बन्द कए लैत छथि तँ ओ रुकलहा पानि उताल भ’ बहए लगैए। जँ महादेव कखनो आँखि ताकि देलनि तँ दू-तीन घंटा लेल नाह के कछेर लगबए पड़त।”

नाविकक ई पुराण-कथा खतम भेल तँ वाँग-पो-चु भभाक’ हँसि पड़लाह आ बजलाह- “ठीक छै, ठीक छै। अपन खिस्सा-पिहानी अपनहि लग राख आ जल्दी-जल्दी नाव चला।”

वाँग-शि-त्सांग के सेहो नै रहल भेलनि- “नारीक आँचर!! पवित्र!!! हुंह, नारी तँ सभटा फसादक जड़ि थिक,परम अपवित्र। विषाक्त लताक स्पर्श, साँपसँ भरल गुफामे निवास आ खुजल तरुआरिकेँ पकड़नाइ, एहिना नारीक सम्पर्क विपत्तिक जड़ि थिक। ओकरा कतबो धो दियौ, नीक कपड़ा आ गहना गुड़ियासँ छाड़ि दियौ, नारी अपवित्रे रहत। ओकर केवल अज्ञानी लोक पवित्र बुझैत छथि। पेट चीड़ल आ उलटल बेंग जकाँ नारीक एकटा अंग ओकर सम्पूर्ण जीवनकेँ घृणासँ भरि दैत छैक।”

नाविककेँ बड़ खराब लागलै ओ मोने मोन बड़बडाएल- “हे भगवान्! तोहर बापकेँ केओ ई उपदेश नै देलकह की?”

नावपर सभ चुप छल, मुदा वाँग-पो-चुक हृदयमे बिड़रो उठल छल। अपन अपमानक बदला ओ जल्दीसँ जल्दी लेमय चाहैत रहथि। वाँग-शि-त्सांग सन सिद्ध तान्त्रिक द्वारा सदा आज्ञा प्रतीक्षामे रहलाक बादो ई कालक्षेपण असह्य बुझा पडै़त छलनि तें ओ फेर बजलाह- “मोन तँ होइ-ए जे जया-कल्पसँ एहि अरुणाश्वकेँ एखनहि समाप्ते कए देल जाए। अहाँकेँ जया-कल्पक साधना अछि ने?’

-“आर्यमंजुश्रीक सम्पूर्ण कृपा हमरापर छनि भन्ते! मुदा एखनि क्रोधराज-कल्प सभसँ कारगर होएत। स्वयं गुह्यकाधिपति वज्रपाणि ई कल्प कहने छथि।”

-“जया-कल्प किएक नहि भन्ते।” वाँग-पो-चु’क शासकीय दम्भ अपन उक्तिक खण्डन स्वीकार नै कए रहल छल। मुदा वाँग-शि-त्सांग साधक रहथि। ज्ञान हुनका गम्भीर बनाए देने रहनि। ओ कहलनि- ‘जया, विजया आ अपराजिता कर्म शत्रुक मारण लेल सफल होइत अछि। अरुणाश्वकेँ शत्रु मानबाक अनुमति शास्त्र नै दैत अछि। शत्रु ओ थिक जे अहित करए। जँ अरुणाश्व अथवा हुनक कोनो सैनिक वा सामान्य जन, केओ एको थापड़ मारने रहैत वा कोनो दुष्ट वचन कहने रहैत तखनि ओहिमे शत्रुत्व आबि जाइत। ओ हमरालोकनिकेँ पकड़बोक प्रयास तँ नहि कएल, तखनि शत्रु मानबाक अनुमति शास्त्र नै देत।”

वाँग-पो-चु के फेर टोकबाक साहस नै भेलनि, मुदा क्रोधसँ ओ असहज भए गेलाह। एम्हर वाँग-शि-त्सांग् हुनक मोनक छटपटाहटिक अनुभव कए रहल छलाह जकरा शान्त करब हुनका लेल आवश्यक छल। महाचीनक शासनक दिससँ हुनका जे गौरव आ सम्मान भेटल रहए तकर प्रतिदान आवश्यक छलनि। तेँ ओ किछु सोचि काषाय रंगक चीनांशुकमे बान्हल अपन गठरी खोललनि। ओहि गठरीमे की की नै छल! वस्त्रक आवरण हटितहि छोट-छोट धोकड़ी सभ निकलए लागल- लोहाक चकर-घिरनी, एक बीतक उज्जर रंगक छत्ता, चारि आँगुरक तरुआरि, बारह आँगुरक त्रिशूल, सोनाक छोट लुटकी, कुशक बनल आँकुस, सोनाक कमलक आसन, आदि मारते रास वस्तु सभ पसरि गेल। ओहिमे एकटा लाल कपड़ामे नर-कपाल, थोड़ेक सनठी, उज्जर कपड़ाक पोटरीमे थोड़ेक छाउर, दू जोड़ा सरबा आ ढकना सेहो छल।

वाँग-शि-त्सांग ओहिमेसँ लोहाक चकरघिरनी छाता आ पगड़ीक लपेटा निकालि बाहर कएलनि आ बाँकी सभ वस्तुकेँ फेर मोटरीमे बाँधल। वाँग-पो-चु दिस तकैत कहलनि जे हमरासँग अहाँ एखनहि ओहि महावनमे चलू। दिनहिमे सभटा व्यवस्था कए संध्या होइतहि अभिचार आरम्भ भए जाएत।”

-“मुदा केना जाएब?”

-“आर्यमंजुश्रीक कृपासँ हमरा लेल ने आकाश अगम्य अछि ने जल, ने थल। नदीक वेगकेँ बान्हि सकैत छी, पर्वतकेँ गर्दा बना सकै छी। काँटसँ भरल महावनकेँ पुष्पवाटिकामे बदलि सकै छी।” ई कहि हुनक माथमेँ पगड़ी बाँन्हि ओ छाता हुनक दहिना हाथमे धराए देलनि आ स्वयं चकरघिरनी दहिना हाथमे लए ठाढ़ भेलाह। किछु मन्त्र पढलनि। ओ घिरनी नाचए लागल आ दुनू गोटे हवामे उड़ैत उत्तर दिस विदा भेलाह। नाव हिलल, धेमुड़ाक शान्त जल हिलकोर मारलक। दुनू नाविक डरक लेल आँखि मूनि लेलक मुदा नाव सम्हरि गेलै।

10

वाँग-शि-त्सांग आ ओ राजदूत उत्तर दिशाक दिस आकाश मार्गसँ उड़ल-उड़ल शीघ्र महावनक समीप धेमुड़ाक बालुकामय पुलिनपर उतरलाह। ओतए ठीके महावनके घेरैत एकटा क्षुद्र नदी दुनूकातसँ धेमुड़ामे मिलैत छल जकर कछेरक गाछ ओकर पानिमे खसल ओकरा आर दुर्गम बनाए देने रहए। दुनू गोटे ओहि महावनमे प्रवेश कएल। ओहिमे कँटैया बाँस, अमती, करकरेज, बेंत, बँगलाही आदि चारूकात पसरल ओकर दुर्गम बनाए देने रहैक। दूरेसँ मन्दिर देखाए पड़ैत छल, मुदा भीतर जेबाक लेल बाट देखा नै पड़ि रहल छलैक।

जनिका वज्र-साधन छनि, हुनका लेल की जंगल आ की पहाड़? वाँग-शि-त्सांग हुंकार कएलनि आ दू टा वेताल सोझाँमे उपस्थित भेल। प्रेतक कंकाल कटकटाएल आ शब्द निकलल- “आज्ञा महाराज!!” ओकरा आदेश भेलैक- “रस्ता साफ कर”। छनेमे बँगलाहीक एकटा मोटगर झाँगर उखड़ल आ रास्ता देखा पड़ल। ईंटासँ मढ़ल बाट सोझे मन्दिर धरि पहुँचैत रहैक। दुनू गोटे मन्दिरक बाट धएलनि आ शीघ्र आँगनैमे पहुँचि गेलाह।

मन्दिर कोनो बेसी पैघ नै छल, मुदा भव्यतामे कोनो कमी नहि रहैक। ईंटाक ऊपरसँ कएल वज्रलेप यद्यपि ठाम-ठाम कालक प्रवाहमे सहज क्षरणसँ प्रभावित छल, मुदा शिल्पीक उत्कृष्ट कला एखनहुँ धरि सर्वथा तिरोहित नै भेल छल। दुआरिक चौकठि बालुकाश्मक बनल छल, जाहिपर मकरवाहिनी गंगा आ कूर्मवाहिनी यमुनाक भित्तिमूर्ति ओहिना प्रतिभासित रहय। मन्दिरक भीतर विशाल शिवलिंग स्थापित रहय, जकर चौखुट जलधरीपर हवामे उधियाक’ आएल सुखाएल पात भरल छल। बुझाइत छल जे बरसों बीति गेल होइ, एतए केओ नै आएल रहए।

मन्दिर बाहर चारूकात चबूतरा चतरि गेल छल। चबूतराक चारूकात तँ तेहन अभेद्य जंगल छल, जकरा पार कएनाई जंगलियो जानवर लेल कठिने छल।

वाँग-पो-चु- खुशीसँ उछलि गेलाह। वाँग-पो-चु सेहो हुनकहि खुशीसँ खुशी भेलाह। दुनू गोटे चारूकात घूमिक’ निरीक्षण कएलनि। निर्जन एकान्तमे दुनूक युवा मन उछलि पड़ल। मुदा ओ राजदूत तँ अपनहि धुनमे मातल छलाह। राजा अरुणाश्वक प्रति जे हुनक आक्रोश छल, ओ कोनो आन कोमल भावनाकेँ भीतर पैसय नै दैत छल।

वाँग-शि-त्सांग् विद्वान् रहथि, साधक रहथि, आ सभटा गतिविधिक प्रत्यक्ष द्रष्टा रहथि तेँ ओ जनैत छलाह जे हुनक कोनो प्रयोग अरुणाश्वक एकोटा  रोइयाँ भग्न नै कए सकत। तकर कारण एके टा छल जे सभटा प्रयोग केवल शत्रुपर प्रभावी होइत छल, मित्र आ उदासीनपर नहिं। हिनकालोकनिक यात्राक लेल अरुणाश्व जाहिपरकारक व्यवस्था कएने रहथि, संगहि हुनक पठाओल सभ व्यक्ति जाहि प्रकारें शान्त आ सुसील रहैत अतिथिसत्कार कएने रहथिन्ह तकर बाद राजा मेँ शत्रुत्वक कल्पनो नै भए सकैत छल। जँ अरुणाश्व शत्रु नहिं तखनि शत्रुमारणक प्रयोग हुनकापर केना प्रभावी होएत! तथापि  वाँग-पो-चु क आदेश पालन ओ केना छोडडि सकैत छथि। हुनक क्रोधकेँ शान्त करबाक लेल किचु ने किथु हुनका तँ अवश्य करए पड़तनि! तें ओ महादेवक मन्दिरमे जाए दहिना हाथमे नर कपाल लए शिवलिंगपर पटकबाक लेल उसाहि, क’ वामाहाथक तर्जनी शिवलिंगके देखबैत वामा पयरसँ ओहिपर चोट कए क्रोधराजक मन्त्र जप करबाक ई प्रक्रिया हुनका व्यर्थ बुझा रहल छलनि। एकटा बात आरो ओ जनैत छलाह जे कतबो विधिपूर्वक ई मन्त्र जपैत रहि जाएब, अरुणाश्वक किछु नै बिगड़त, किएक तँ ई प्रयोग दुष्ट राजापर प्रभावी होइत छैक धर्मनिष्ठ राजापर नै। उनटे हुनका अपनहि अनिष्टक आशंका होमए लगलनि आ ओ मनहि मन भगवान् शंकरकेँ प्रणाम कएल आ अपन अपराधक लेल क्षमा मँगलनि।

-“भन्ते! तखनि आब प्रयोगक लेल तैयारी करू। भिनसर होइत होइत अरुणाश्वक मृत्युक समाचार हमरा भेटबाक चाही।” वाँग-पो-चु हुनक तन्द्रा भंग कएलनि तँ बुझएलनि जेना बोधिसत्त्व, कुमार मंजुश्री, वज्रपाणि गुह्यकाधिपति ओ कुमारमाता आर्या तारा सेहो शासनादेशक आगाँ तुच्छ भए गेल होथि। कनेक काल लेल ओ विवशताक अनुभव कएलनि। मुदा बेर बेर अपन गुरुक आदेश मोन पड़ि जाइन। हुनक गुरु कामरूपक श्रीशैलपर उपदेश देने रहथिन्ह जे भगवान् बोधिसत्त्वक एहि साम्राज्यमे अहाँक तान्त्रिक चमत्कारसँ साधना आ प्रयोगसँ जाहि दिन एको टा निरपराध व्यक्तिक आँखिसँ नोर खसि पड़तैक, अहाँक समस्त साधना आ अलौकिक सिद्धि ओही एक बुन्न नोरमे बहि जाएत।

वाँग-शि-त्सांग मनकेँ दृढ़ कए कहलथिन्ह- “राजा अरुणाश्वक मृत्युक लेल हम कोनो प्रयोग नै करए जा रहल छी। हँ, ज्वरादि कष्ट होएतनि आ अपन त्रुटिक बोध भए जेतनि। सेहो हुनक यज्ञ समाप्त भेलाह वादे। एखनि हुनक चारूकात तेहन अभिमन्त्रित रक्षाकवच अछि जे हुनक किछु नै बिगड़तनि।”

वाँग-पो-चु बिगड़िक’ आगि भए गेलाह- “तखनि एतए किएक अएलहुँ?”

-“शान्तिक कामनासँ भन्ते! अहाँक हृदय दग्ध भए रहल अछि, तकरा पहिने शान्त करू। देखू! ई एकान्त स्थान केहन रमणीय अछि, संध्या आबि रहल अछि। सूर्यक ई रक्तिम प्रकाश एहि वसन्तपर जेना गुलाल ढारि रहल हो। तावत किछु आहारक व्यवस्था कएल जाए।”

वाँग-पो-चु फेर किछु कहबाक लेल उद्यत भेलाह, मुदा हुनका बिना सुननहि वाँग-शि-त्सांग यक्षिणीक आवाहन कएलनि। शीघ्रहि आकाशमार्गसँ दू टा यक्षिणी माथपर स्वर्णकलशमे जल आ स्वर्णपात्रमेपरमान्न पायस नेने पहुँचि गेलि। वाँग-पो-चु अपन मोटरीसँ धुपदानी निकाललनि आ ओहिमे गुग्गुल दए मुँहसँ आगि निकालि फूकए लागलाह। धुपदानी धुआँए लागल। ओ मन्त्रघोष कएल- “नमः सर्वयक्षिणीनाम्। ऊँ रक्ते रक्तावभासे रक्तानुलेपने स्वाहा” ओ दुनू यक्षिणी लग आएलि। दुनूक भँवराएल केश मयूर जकाँ चित्रित विविध रंगक रहैक। ब्राह्ममुहूर्तक पूर्व दिशा जकाँ ईषद्रक्त वस्त्रमे सर्वांग सौन्दर्य आर चमकि रहल छल। उन्नत पीन पयोधर आ अवनत उदर एके ठाम पर्वत आ गर्तक आभास करा रहल छल। अंग-अंगसँ सौन्दर्यक किरण चारूकात पसरि रहल छल।

दुनू यक्षिणी स्वर्णकलश माथपरसँ उतारि रखलनि आ स्वर्ण पात्रक खीर भोगमुद्रामे दुनूक सोझा समर्पित कएलनि। दुनूक उन्नत उरोज कम्पित अधरक संग नृत्य कए रहल छल। उद्दाम यौवनक प्रचण्ड प्रवाहमे रोम-रोम काँपि रहल छल जेना कमलदहमे बाढ़िक पानि घुसि गेल हुअए।

कामक उदय होइतहि प्रभातक आकाशसँ लुप्त होइत तरेगन जकाँ मनक आन सभटा भाव भागए लगैत अछि। ओ तँ विशाल पाकड़ि क’ गाछ थिक, जेकर तरमे दुबियो नहि जनमैए। कहल जाइए जे काम विवेककेँ नष्ट कए दैत छैक। एकरा आगाँ विवेकक चर्चे की? ओ तँ ततेक तन्नुक अछि जकरा नष्ट करबा लेल एकटा छोट छिन लोभ सेहो पर्याप्त अछि। कररी थम्हपर तँ सितुओ चोख होइत अछि, तखनि जतए तरुआरि चलैत हुअए ओतए कररी थम्हक चर्चो व्यर्थ। काम तँ ओ उत्ताप थिक जकर प्रचण्ड ज्वालामे शोक, मोह, पीड़ा सन्ताप सभटा जरिक’ भस्म भए जाइत अछि, अहंकार सेहो पिघलिक’ पानि बनि, बाष्प बनि उड़ि जाइत अछि। क्रोध सेहो जड़ि जाइत अछि। सभटा स्वाहा…सत् असत् दुनू एहिमे लीन भए जाइछ प्रलयकाल जकाँ। काम अपन सहधर्मिणी शान्तिक संग सन्तृप्त भए जाइछ।

वाँग-पो-चु शासनक प्रतिनिधि रहथि, मुदा वाँग-शि-त्सांग अपन विद्वत्ताक आ साधनाक क्षेत्रमे शीर्षपर छलाह। शासनक मदकेँ तोड़बाक लेल हुनका लग बहुत उपाय छल मुदा ओ सभसँ नीक उपाय तकलनि जे हुनका ततेक ने तृप्त कए देल जाए जे हुनक मनक सभ टा वैरभाव पिघलि नष्ट भए जाए। ओ दूनू यक्षिणीकेँ सैह करबाक आदेश दए स्वयं मन्दिरक गर्भगृहमेँ प्रवेश कएल। वाँग-पो-चु ओहि महेश्वरायतनक चबूतरापर सन्तृप्त भेल ओंघराए गेलाह। प्रातः होएत-होइत हुनक समस्त क्रोध भस्म भए चुकल छल।

दुनू यक्षिणी अपन साधकसँ अनुमति लए आकाशमे विलीन भए गेलि। वाँग-शि-त्सांग मन्दिरक गर्भगृहमे दीप जराए प्रार्थना कए रहल छलाह आ वाँग-पो-चु बाहर चबूतरापर निद्रामे लीन छलाह। हुनक भक खुजल तँ फेर सृष्टि-प्रक्रिया आरम्भ भेल। प्रलयकालिक समुद्रक नीरव जलमे आन्दोलन भेल आ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, सभटा ओहि लहरिपर तरंगायित होमए लागल। अपन उद्देश्यमे विफलता, जकरा ओ अरुणाश्वक द्वारा कएल गेल अपमान मानि रहल छलाह जागि उठल।

-“ई की कए रहल छी भन्ते? नाविक सभ कतए अछि? ओ सभ आएल की नहि?” वाँग्-पो-चु पुछलनि।

-“नाविक सभ एतहि नदीमे नावकेँ कीलित कए ओहीपर विश्राम कए रहल अछि आ हम भगवानक उपासना कए रहल छी।”

-“अभिचारक की भेल? अरुणाश्वकेँ दण्ड देबाक प्रक्रिया की सम्पन्न भए गेल?”

-“अपराधक दण्ड होइत छैक भन्ते! हमर साधना आ हमर शास्त्रक आचार-संहिता अरुणाश्वकेँ अपराधी नहि मानैत अछि।

-“तखनि राखू अपन शास्त्र अपनहि लग। आब हमरहि किछु करए पड़त। राजनीति एकर उपेक्षा नहि कए सकैछ। आ ओ कोनो तान्त्रिक-मान्त्रिकक अनुगामिनी नहि भए सैन्यबलक अनुसरण करैत अछि। ओकर हुँकृति आ हिंकृति पटह आ भेरीक निनाद थिक। तरुआरिक झंकार ओकर मन्त्र-जपक निनाद थिक। हम नेपाल जाए रहल छी। नरेन्द्रदेवक सहायतासँ तिरहुतपर आक्रमण कए अरुणाश्वकेँ धूलिसात् कए देब। अहाँकेँ जे मोन हुअए से करू।”

-“शान्त भन्ते! शान्त!! युद्धमे शरीरकेँ जीतल जा सकैत छै, मनकेँ नहि। करुणाकोमल बोधिसत्त्वक धर्म कबूल करएबा लेल रक्तपातके जँ अहाँ साधन बूझि रहल छी, तँ ई महान् पाप थिक। हम एकर कल्पनो नहि कए सकैत छी। अहिंसा, दया, करुणा, प्रेम, परोपकारिता ई सभ तँ मानवक प्रकृति थिक। प्रकृतिकेँ नष्ट कए कोनो धर्मक, कोनो सम्प्रदायक कल्पनो नहि भए सकैत छैक। मिथिलाक जन-जनमे ई सभ प्राकृतिक स्वभाव छैक। ओ त्रस्त अछि। ओतए बाढ़ि, सुखाड़ आदि प्राकृतिक प्रकोप छैक। कोमल मृत्तिका जकाँ ओतुका लोकक हृदय कोमल छैक। ओहिठाम बोधिवृक्ष लगएबाक भार हमरापर छोड़ि दिय’। हमर संकल्प अछि, हम ममतामयी माँ ताराकेँ ओतए स्थापित करब आ ओतए वेदध्वनि आ बोधिसत्त्वक पटह संग-संग गुँजि उठत।”

-“असम्भव अछि भन्ते!! ई पंचहैन्दव वैदिक लोकनिक देश थिक। बौद्धधर्मक एतए ह्रास देखि क’ महामना ह्वेनसांग कतेक दुःख प्रकट कएने छथि से अहाँके बूझल होएत। हुनक स्वप्नकेँ पूरा करबाक अछि। अहूँकेँ चाही जे हुनक स्वप्न…।”

-“साधक अपन स्वप्न पूरा करैत अछि, अनकर नहि। अहाँकेँ हम नाविक सभक बीच पहुँचाए दैत छी। मुदा रक्तपातक जे अहाँक संकल्प अछि ओकर बाद हमर शास्त्र अहाँक संग देबासँ हमरा रोकि रहल अछि।

-“जें कि दुनूक लक्ष्य एके अछि तेँ हम शासनक अधिकारीक रूपमे आदेशक अवहेलनाक लेल अहाँके दण्डनीय नै मानब। जाउ, आ मिथिलामे बोधिसत्त्वक प्रचार करू, मुदा महाचीनमे फेर पयर धरबाक प्रयास नै करब, इएह अहाँक दण्ड!!

वाँग-पो-चु बाहर जएबाक बाट धएलनि। चारूकात अन्हार पसरल छल। हाथकेँ हाथ सुझैत नहि छलै। क्रोधक आवेग हुनक भीतरोसँ आन्हर बनाए देने छल। ओ चबूतरासँ उतरैत काल लटपटाएक’ खसलाह आ हुनक संज्ञा विलुप्त भए गेल।

 वाँग-पो-चुकेँ जखनि होश आएल तँ ओ अपनाकेँ धेमुड़ाक बीच धारमे नावपर पओलनि सभटा नाव एके ठाम कीलित कए जोड़ल स्थिर छल। नाविक सभ निभेर सूतल छल। पूर्व दिशामे लालिमा पसरि रहल छलैक। हुनका वाँग-शि-त्सांगक साधनाक पराकाष्ठाक भान भए गेलनि।

11

 एमहर कोशिक पश्चिमी तटपर राजा अरुणाश्वक यज्ञ सम्पन्न भेल। आहूत राजा लोकनि हुनका तिलक कए महाराज घोषित कएल आ मैत्रीक संकल्प लेल। एकहि महोत्सवमे महाराज खूब धन खर्च कएल। ब्राह्मणलोकनि तँ नेहाल भए गेलाह। आचार्य प्रवर मीमांसक कुमारिलभट्टक भव्य सम्मान कएल गेल आ हुनका दक्षिणामे अमरावतीक कछेरमे अपन गाम ब्रह्मोत्तर भेटलनि। यज्ञ सम्पन्न कराए पत्नीक संग ओ अपन गाम विदा भेलाह तँ शृंगेश्वर महादेवक जलाभिषेक कए आपणग्राममे वनदुर्गाक पूजा करैत कुशेश्वर महादेवकेँ दूध ढारैत अपन गाम पहुँचबाक इच्छा प्रकट कएल। हुनका संग चलनिहार सैन्यबल तदनुसारे पहिल राति शृंगेश्वरमे रुकल। आ ओतएसँ चलि दोसर राति महिषी ग्राम पहुँचबाक लक्ष्य लए चलल।

महिषीक अनेक वैदिक लोकनि एहि यज्ञमे सम्मिलित भेल रहथि। ओहो लोकनि संगहि रहथिन्ह हुनक पत्नी आ छोट बच्चा सभ सेहो संगहि छलथिनह तें आचार्य पत्नीकेँ सेहो कोनो असुविधा नै छलनि। रथ आ दास दासीक व्यवस्था राजाक आज्ञासँ भेले छल।

महिषीक वैदिक-पत्नी लोकनि तँ खुशीसँ उछलि रहल छलीह जे हुनका आचार्य-पत्नीक अतिथ्य करबाक अवसर भेटल रहनि। एहिमे वैदिक शाण्डिल्य मिश्रक पत्नी सभसँ जेठ रहथि आ तें आचार्य पत्नीकेँ हुनका प्रति विशेष आदर भावना छल। हुनकामे ओ अपन ममतामयी मायक स्वरूप देखथि। तें ओ हुनकहि रथपर बैसियो गेल रहथि आ हुनकासँ नेहोरा कएने रहथिन्ह जे हमरा बेटी कहल करू।

-“हइ दाइ! छी तँ अहाँ ठीके बड़ छोट। मुदा अहाँक मान सम्मान बड़ पैघ अछि। आर की कहब। आशीर्वाद दै छी। दूधे नहाउ पूते बियाउ!

आचार्य पत्नी लजा गेलीह तँ हुनका सामान्य बनएबा लेल फेर ओएह पूछिलखिन- “मुदा देह किए एहेन भए गेल अछि?”

-“की करियौ? परुकाँ साल हिनक माय दिवंगत भए गेलखिन आ चौपाड़िमे बीस गोट छात्र छथि। सभक भोजन बनाएब परिचर्या करब हमरहिपर पड़ि गेल अछि। दास-दासी सभ छैक मुदा प्रातःकाल हवनक व्यवस्था, फेर अल्पाहार आ भोजनक व्यवस्था तँ हमरहि करए पड़ैत अछि। जखनि सभ छात्र चारूकातसँ घेरि लै-ए तखनि अपन कोनो सुधि कहाँ रहि जाइ-ए।”

-“कहू ने जे बीस टा बेटाक माय बनि गेल छी।”- एकटा युवती बाजि उठलीह।

-“सत्ते! हमही तँ ओहि गुरुकुलमे माय छियै।”

-“ई गौरव तँ सभकेँ नहि भेटैत छैक। देखू ने हमरहि गाममे कते बेर गुरुकुल चलएबाक बात उठै छै, मुदा कहाँ भए पबै छै?” शाण्डिल्य मिश्रक पत्नी कहलखिन।

-“से किए? एहू गाममे तँ कतेक ने विद्वान् छथिन्ह।” कुमारिल-पत्नी पुछलखिन।

-“एतए किनकहु लग ओ ओकाति नै छनि जे छात्र सभक भरण-पोषण करताह। सभटा व्यवस्था भए जाइत छै, मुदा भोजनक व्यवस्थाक बात उठितहिं सभ चुप भए जाइत छथि।”

-“हमरा ओतए तँ ई बात नै छै। अमरावतीक श्रेष्ठि सभ प्रतिदिन अपनहि स्वर्ण मुद्रा लए उपस्थित भए निवेदन करैत रहैत छथिन्ह। अन्न तँ ततेक आबि जाइत छैक जे दासकुलमे सेहो बाँटि दैत छियैक! गुरुकुलक कोनो दास-दासी जखनहिं नगरीमे पयर दैत अछि कि श्रेष्ठिसभ पूछए लगैत छैक- गुरुकुलक लेल किछु चाही की? सभ टकटकी लगौने रहेत अछि जे हमरा सेवाक अवसर भेटए। की एतए श्रेष्ठि सभ सहयोग नै करैत छथिन्ह?”- कुमारिल-पत्नी बजलीह।

-“बौद्ध छात्र सभक लेल तँ सभ किछु उपलब्ध भए जाइत छैक, मुदा वेदक नामपर केओ कान बात नै दैत छथि। आब देखियौ महाराज अरुणाश्व की करैत छथि?”

मध्याह्न भए गेल छल। भोजन आ विश्रामक लेल सभ केओ एकटा आम्रवनमे रुकलाह। दास-दासी सभ व्यवस्था करबामे लागि गेल। पण्डिताइन लोकनि भोजन बनएबाक सुरसार करए लगलीह। धियापुता सभ जे एतेक कालसँ रथपर बान्हल-छेकल जकाँ बैसल छल से खुजल पबितहि खेलाए लागल। पण्डितलोकनि दरीपर बैसलाह गप्प चलए लागल।

एतबेमे दूटा अश्वारोही जे मार्ग धएने जा रहल छल ओ राजकीय ध्वज देखि कए आम्रवन दिस मुड़ल आ एकटा सैनिकके किछु संक्षेपेमे कहि पुनः अपन पथपर निकलि गेल।

तकर बाद तँ ओ वार्ता पसरि गेल। जे सुनथि से हतप्रभ भए दोसराकेँ सुनाएबा लेल दौड़ि जाथि। पण्डितलोकनि सेहो सुनलनि तँ बपहारि काटए लगलाह।

-“अहाँ लोकनि कोनो चिन्ता नहि करू। हम सभ छी। आ महाराजकेँ सूचना भए गेल छनि। सीमापर सैनिक सतर्क भए गेल अछि। शत्रुक सैन्य बलके ओतहि रोकि देल जाएत।” एकटा सैनिक सान्त्वना दैत बाजल।

-“मुदा की सात हजार तिब्बती अश्वारोही आ बारह सय नेपाली सेनाक सम्मिलित दलकेँ सीमापर रोकल जा सकत?”

-“देखियौक जे की होइत छैक, मुदा शत्रुक सेनाके एतए धरि पहुँचबामे चारि पाँच दिन तँ अवश्य लागि जैतैक।” सैनिक ई कहि निकलि गेल।

शाण्डिल्य मिश्र कने वयस्क भए गेल रहथि, मुदा दारिद्र्य हुनका बूढ़ बना देने रहनि। कुमारिल युवा रहथि, किन्तु हुनका योग्यता बूढ़ बना देने रहन्हि तेँ दुनूमे खूब गप्प होअए। शाण्डिल्य मिश्र कुमारिलसँ कहलखिन्ह- “भए गेल आब वेद नहि बाँचत। जा धरि गुप्त शासक रहथि, शूद्र रहितो ओ वेदक बड़ रक्षा कएल। ब्राह्मणक आदर कएलनि आ खूब यज्ञ करओलनि। जखनि हर्ष राजा भेलाह तँ ओहू कालमे कतहु धर्मपर कोनो प्रकारक आघात नै कएल। अरुणाश्व सेहो ठीके-ठाक रहलाह, मुदा आब तँ ई महायानीक राज्य होएत तँ धर्म अवग्रहमे पड़ि जाएत।”

वेदक रक्षाक भार तँ स्वयं ईश्वर उठा नेने छथि, तखनि हम अहाँ के, जे एकर चिन्ता करब। ओहि ईश्वरपर विश्वास राखि अपन कर्त्तव्य निमाहैत चली।” कुमारिल बजलाह।

-“हमर तँ पहिल चिन्ता अछि जे अपन पुत्रकेँ वेदाध्ययन कोना कराओल जाए। महिषी तँ बौद्ध लोकनिक भैरवी चक्र भए जाएत, जतए राखि पुत्रक भविष्य सुरक्षित नै मानल जा सकै-ए। उपनयनक बाद दूइए वर्षमे यजुर्वेद रटाए देल गेल छनि, आब अग्रिम अध्ययन लेल कोनो सुरक्षित स्थान आ योग्य गुरुक आवश्यकता होएत। की अपने हमर प्रार्थना स्वीकार करबैक?”

-“अवश्य! हमरा प्रसन्नता होएत। बालककेँ हमरा संग लगाए दिय’। अमरावतीमे हमरहि ओतए रहताह।” कुमारिलक उत्फुल्ल स्वर शाण्डिल्य मिश्रक लेल अमृत वर्षा कएलक। शाण्डिल्य ओही आह्लादमे अपन पुत्रकेँ सोर कएलनि- “मण्डन! मण्डन!! कतए छी?”

पीयर रंगक धोती, श्वेत उत्तरीयक आ दुनू कानमे कुण्डल पहिरने करीब दस वर्षक एकटा बालक गम्भीर चालिसँ आबि पिता लग ठाढ़ भेलाह। हाड़ हाड़ जागल गौर वर्णंक शरीरकेँ राजाक द्वारा देल गेल नवीन वस्त्र सुन्दर बनएबामे समर्थ तँ नहि छल मुदा मुखमण्डलपर एकटा तेज अलक्षित सेहो नहि छल। पिता कहलथि- “तकै की छी? धरू गुरुक पयर! आब इएह अहाँक उद्धार करताह।”

मण्डनकेँ जेना विश्वास नै भेलनि। अमरावतीमे कुमारिलक गुरुकुलमे अध्ययनक अवसर भेटि जाएब बड़ गौरवक विषय छल। ओ हुनका एना बाट चलैत भेटि जएतनि से विश्वास नै भ’ रहल छलनि। कुमारिल हुनक हाथ पकड़ि कहलथिह- “हमरा संगहि चलू वत्स!” तखनि जे मण्डन हुनक पयर पकड़लनि से कुमारिलक द्वारा दुनू हाथे उठओलहिपर उठलाह।

भोजन बनल सभ केओ खा पी क’ विश्राम कएलनि। सूर्यक उत्ताप कने शान्त भेल तँ पुनः रथपर चढ़ि महिषीक राजमार्गपर प्रवृत्त भेलाह आ साँझ होइत होइत सभ केओ अपन घरपर पहुँचि गेलाह। शाण्डिल्य मिश्र कुमारिलकेँ रात्रिविश्रामक लेल अपनहि ओतए लए गेलखिन्ह।

संध्याकृत्य कए सभ दुग्धपान कएलनि। कुमारिल आ शाण्डिल्य मिश्र दुनूक बिछाओन दलानपर एके ठाम लगओल गेल। दुनू एहि आक्रमणसँ चिन्तित छलाह तेँ ओही विषयपर वार्ता चलल।

-“आब धर्म बाँचब कठिन अछि। एतेक दिन तँ राजा हर्षवर्द्धन सर्वधर्मसमभावक पोषक छलाह तँ वैदिक धर्म बाँचल छल मुदा आब तँ ई जादूटोनावला बौद्ध सोझे माथ चढ़त। नहि हेतैक तँ राजदण्डक डाँङ चलाओत।”- शाण्डिल्य मिश्र चिन्ता व्यक्त कएलनि।

-“तन्त्र तँ वैदिकपरम्परामे सेहो अछि। आंगिरसी लोकनि अथर्ववेदसँ सम्बद्ध छथि। एम्हर पाशुपत तन्त्र भगवान् शंकर आ पार्वतीकेँ आराध्य मानैत छथि तेँ आगम मार्ग तँ सबल अछि। बड़ बेसी तँ दुनू तेना घुलि-मिलि जाएत, जेकरा फुटाओल नहि जा सकत, जे कोन क्रिया बौद्धक छियनि आ कोन वैदिकक। दार्शनिक स्तरपर वेदकेँ स्थापित करब एखनि सभसँ आवश्यक अछि।”

-“एहि विषयपर तँ अपने सनक जे विद्वान् हेताह, ओ विचार कए सकैत छथि।”- शाण्डिल्य मिश्र अपन सीमा स्पष्ट कएल। -“बौद्ध लोकनि बुद्धकेँ सर्वज्ञ कहि हुनका ईश्वर मानैत छथि। बुद्धकेँ ऋषि मानवामे कोनो आपत्ति नहि, किन्तु ईश्वरत्व तँ केवल ब्रह्म टा मे अछि।  कुमारिल अपन बात स्पष्ट करैत आगाँ बढलाह “जँ स्वर्ग कल्पने थिक तँ समस्त यज्ञ-विधान व्यर्थ भए जाएत। ताहिपरसँ ओ लोकनि आत्माक सेहो खण्डन करैत छथि आ सभटा शून्य मानैत छथि। जाहिसँ ज्ञाता आ ज्ञेयक बीच अभेद भए जाएत। तखनि तँ मानए पड़त जे सूर्यमे जँ प्रकाश अछि तँ अन्धकारो अछि। आगिमे शीतलता मानए पड़त जे अत्यन्त अव्यावहारिक अछि। एहि सभक खण्डन आवश्यक अछि।

-“हँ, से तँ अवश्ये।”

-“बौद्धक शून्यवाद आ अनात्मवादक खण्डन सभसँ आवश्यक अछि। एकरा लेल पहिने पूर्वपक्षक ज्ञान अपेक्षित अछि। एहि लेल किछु कएल जेबाक चाही।” कुमारिल अत्यन्त चिन्तित छला। हुनक स्वर काँपि रहल छल।

-“अपने सनक उद्भट विद्वानक अछैत निश्चित रूपसँ बौद्धलोकनि पराजित होएताह। आब विश्राम कएल जाए।” शाण्डिल्य मिश्र हाफी कएलनि।”

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