कन्नौज के गहड़वाल राजा गोविन्दचन्द्र के सान्धिविग्रहिक मन्त्री विद्वान् लक्ष्मीधर ने ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने पुराणों से उद्धरणों का संकलन कर विभिन्न धार्मिक विषयों पर उक्त ग्रन्थ के एक-एक खण्ड की रचना कर एक प्रकार से धार्मिक विश्वकोष तैयार किया था।
ऐतिहासिक रूप से इस ग्रन्थ का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि इस ग्रन्थ में पुराण की जो पंक्तियाँ उपलब्ध हैं; उनका रचना-काल लगभग 1150ई. से पूर्व ही माना जायेगा। अतः ऐतिहासिक विवेचन के लिए इस ग्रन्थ का उपयोग किया जाता है।
लक्ष्मीधर के इस ‘कृत्यकल्पतरु’ ग्रन्थ के तीर्थविवेचन काण्ड में वाराणसी माहात्म्य नामक एक विशाल अध्याय है, जिसमें उन्होंने वाराणसी के अनेक मन्दिरों, मूर्तियों तथा स्थलों का माहात्म्य पुराण के स्रोत से दिया है।
इस तीर्थविवेचन काण्ड का सम्पादन के.वी.रंगस्वामी आयंगर ने किया है। इसका प्रकाशन बड़ौदी ओरियंटल इंस्टीच्यूट से 1942ई. में हुआ।
इस तीर्थविवेचन काण्ड की पृष्ठ संख्या 109 पर अविमुक्त लिंग का उल्लेख है। यहीं काशी के ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रधान हैं, क्योंकि इसी महादेव के नाम पर काशी का नाम अविमुक्त क्षेत्र हुआ है। इस प्रकार हमें मानना चाहिए कि कृत्यकल्पतरु में लिंग पुराण से उद्धृत जो अविमुक्त लिंग का माहात्म्य है वे ही बाद में विश्वेश्वर लिंग के रूप में प्रख्यात हुए हैं।
कृत्यकल्पतरु में उद्धृत अंश
इस अविमुक्त लिंग का माहात्म्य इस प्रकार दिया गया है-
स्थाने तु रुचिरे शुभ्रे देवदेवः स्वयं प्रभुः।
अविमुक्तस्तत्र मध्ये अविमुक्तं ततः स्मृतम्।।
देवताओं के स्वामी स्वयं एक सुन्दर तथा शुभ्र स्थान में थे। बीच में अविमुक्त हैं, अतः इस स्थल को अविमुक्त कहा जाता है।
आगे कहते हैं-
अविमुक्तं सदा लिङ्गं योऽत्र द्रक्ष्यन्ति मानवः।
न तस्य पुनरावृत्तिः कल्पकोटि शतैरपि।।
यहाँ पर जो अविमुक्त लिंग का दर्शन करते हैं वे मनुष्य सैकड़ो करो कल्पों में पुनर्जन्म नहीं लेते।
इसी अविमुक्त महादेव के दक्षिण भाग में एक सुन्दर वापी का उल्लेख अगले श्लोक में हुआ है-
देवस्य दक्षिणे पार्श्वे वापी तिष्ठति शोभना।
तस्यास्तथोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
इस अविमुक्त महादेव के दक्षिण भाग में एक सुन्दर वापी है, जिसका जल पीने से पुनर्जन्म नहीं होता।
पीतमात्रेण तेनैव उदकेन यशस्विनि।
त्रीणि लिङ्गानि वर्द्धन्ते हृदये पुरुषस्य तु।।
एतद्गुह्यं महादेवि न देयं यस्य कस्यचित्।
हे यशस्विनी, इस वापी का मात्र जल पीने से पुरुष के हृदय में तीन लक्षण बढ़ जाते हैं। हे महादेवी इस पर गोपनीय तथ्य को जिस-किसी व्यक्ति को नहीं बताना चाहिए।
दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा।
पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य़ शासनात्।।
पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा।
नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे।।
रक्षते तज्जलं नित्यं मद्भक्तानां तु मोहनम्।।
इस वापी के जल की रक्षा देवाधिदेव की आज्ञा से पश्चिम तट पर वास करते हुए दण्डपाणि करते हैं। पूर्व में तारक नामक देव, उत्तर में नंदीश तथा दक्षिण में महाकाल करते हैं।
यही पर आगे विष्णु का कथन है कि मैं भी जल के स्वरूप में इस वापी में वास करते हूँ।
विष्णुरुवाच
ममापि सा परा दैवी तनुरापोमयी शुभा।
अप्राप्या दुर्लभा देवैर्मानवैरकृतात्मभिः॥
यैस्तु तत्र जलं पीतं कृतार्थास्ते तु मानवाः।
तेषां तु तारकं ज्ञानमुत्पत्स्यति न संशयः॥
वापीजले नरः सात्वा दृष्ट्वा वै दण्डनायकम्।
अविमुक्तं ततो दृष्ट्वा कैवल्यं लभते क्षणात्॥
लिंग पुराण के इसी अंश को त्रिस्थलीसेतु में नारायण भट्ट ने ज्ञानवापी माहात्म्य में उद्धृत किया है। इसका अर्थ है कि 12वीं शती से पहले से वह कूप अविमुक्तेश्वर महादेव के दक्षिण भाग में अवस्थित था; जो बाद में ज्ञानवापी के नाम से विख्यात हुआ और अविमुक्त महादेव विश्वेश्वर शिव के रूप में विख्यात हुए जो बाद में विश्वनाथ कहलाये।
हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिन्तामणि के बाद तथा मित्रमिश्र के वीरमित्रोदय के लेखन के बीच किसी समय यह नाम परिवर्तन हुआ होगा, क्योंकि वीरमित्रोदय में ज्ञानवापी का नाम उल्लिखित है।
इस प्रकार, हम निश्चित रूप मे कहते हैं कि यह जो वापी है, वह 12वीं शती से पहले का तो अवश्य है।