भगवान् शिव ने स्वयं त्रिशूल से खोदकर ज्ञानवापी का निर्माण किया था।
विश्वेश्वर शिवलिंग का अभिषेक के लिए स्वयं ईशान शिव ने अपने त्रिशूल से ज्ञानवापी का निर्माण किया था। स्कन्द पुराण में यह प्रसंग आया है कि एकबार ऋषियों ने स्कन्द से ज्ञानवापी की महिमा बतलाने के लिए कहा। इस पर स्कन्द ने बतलाया कि एक बार स्वयं महादेव ईशान के रूप में काशी पधारे। वहाँ उन्होंने विश्वेश्वर शिवलिंग की पूजा की। उनकी इच्छा हुई कि इस विश्वेश्वर लिंग का महाभिषेक कलश के जल से करें। वहाँ उन्होंने कोई जलाशय नहीं देखा तो अपने त्रिशूल से मन्दिर के दक्षिण भाग में एक कूप खोद डाला तथा उसके जल से भगवान् शिव का जलाभिषेक किया।
यहाँ स्वयं विश्वेश्वर के शब्दों में कहा गया है कि ज्ञान का अर्थ है- शिव। वे शिव इस कूप के जल में द्रव के रूप में रहा करते हैं अतः इसका नाम ज्ञानोद तीर्थ है। यही ज्ञानवापी के नाम से काशी में प्रसिद्ध है।
पुराणों में भगवान् शिव की जो आठ मूर्तियाँ कही गयीं है, उनमें से एक जलमूर्ति भी हैं। इसी ज्ञानवापी के जल में वह जलमूर्ति निवास करती हैं। साथ ही भगवान् शिव कहते हैं कि मैं इस जल में देवी पार्वती के साथ जलक्रीड़ा करता हूँ। इस ज्ञानवापी का जल पीने से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है।
शिवपुराण में भी कहा गया है कि महादेव यानी विश्वनाथ यानी विश्वेश्वर के समीप यह जल है, इसके दर्शन से, स्पर्श से तथा इस जल से स्नान करने से धर्म का उदय होता है।
लिंग पुराण में मन्दिर के दाहिने भाग में इस ज्ञानवापी का स्थान कहा गया है।
इस ज्ञानवापी के जल की गरिमा की रक्षा करने वाले देवताओं के नाम लिंग पुराण में कहे गये हैं। इसके पश्चिम में दण्डपाणि देव हैं, पूर्व में तारक देवता हैं, उत्तर में नन्दी हैं तथा दक्षिण में महाकाल हैं। वे महादेव की आज्ञा से इस कूप के जल की गरिमा की रक्षा करते हैं। वे भक्तिहीन लोगों को वहाँ तक जाने से रोक देते हैं।
भगवान् विष्णु भी कहते हैं कि मेरा भी दिव्य शरीर जो जल के स्वरूप में है वह इस ज्ञानवापी में है।
इस प्रकार पुराणों में ज्ञानवापी की महिमा बढ़-चढ़कर गायी गयी है।
सन्दर्भ :
इस पूरे आलेख का आधार नारायण भट्ट द्वारा लिखित त्रिस्थली-सेतु नामक पुस्तक है। नारायण भट्ट 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में काशी के विख्यात विद्वान् थे तथा 1780 ई. में जब अहल्याबाई होलकर ने विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण कराया तो काशी के पण्डितों के मन में संदेह हुआ कि इस विश्वनाथ शिवलिंग में प्राचीन विश्वेश्वर शिवलिंग की महिमा व्याप्त होगी या नहीं, तो नारायण भट्ट ने शास्त्रार्थ कर उन्हें शास्त्रीय वचनों से आश्वस्त किया कि जब आक्रान्ता के कारण मन्दिर ध्वस्त हो जाये तो वहाँ जो कुछ अवशिष्ट भाग रहे, उसी की परिक्रमा आदि होनी चाहिए। यदि कुछ भी नहीं है तो स्थान की परिक्रमा आदि होनी चाहिए। चूँकि नये विश्वनाथ मन्दिर की स्थापना उसी क्षेत्र में हुई है अतः स्थान के माहात्म्य से इऩकी भी महिमा होगी। इस प्रकार, नारायण भट्ट काशी के जाने-माने विद्वान् थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ त्रिस्थली सेतु (आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावलिः ग्रन्थांक 78, पुणे, 1915ई., पृ. 148-150) में इस प्रकार माहात्म्य का संकलन किया है।
त्रिस्थलीसेतु का मूल अंश
स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद सांप्रतम् ।
ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम् ॥
स्कन्द उवाच
कदाचित्काशी प्रत्यागतेनेशानेन विश्वेश्वरलिङ्गे दृष्टे
तस्येशानस्य तल्लिङ्गं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा ।
स्नापयामि महालिङ्गं कलशीशीतलैर्जलैः ॥
चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकण्ठतः ।
कुण्डं प्रचण्डं वेगेन रुद्रो रुद्रवपुर्धरः ॥
पृथिव्यावरणाम्भांसि निष्क्रान्तानि तदा मुने।
ततस्तैः स्नपयांचने त्वत्सृष्टैरन्यदेहिभिः॥
ततो विश्वेशे वरदानायोद्यत ईशान उवाच
यदि प्रसन्नो देवेशो वरयोग्योऽस्म्यहं यदि।
तदैतदतुलं तीथं तव नानाऽस्तु शंकर।।
विश्वेश्वर उवाच
त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवः स्वः स्थितान्यपि ।
तेभ्योऽखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम् ॥
शिवं ज्ञानमिति प्राहुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः ।
तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात्॥
अतो ज्ञानोदनामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत् ।
स्पर्शनाचमनाभ्यां च राजसूयाश्वमेधयोः ॥
तथा-
यत्फलं समवाप्नोति पितॄन्सन्तर्प्य पुष्करे ।
तत्फलं कोटिगुणितं ज्ञानतीर्थ तिलादकैः ॥
संनिहत्यां कुरुक्षेत्रे राहुग्रस्ते दिवाकरे।
यत्फलं पिण्डदानेन तज्ज्ञानोदे दिने दिने।
तथा-
उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काललोपजम्।
क्षणेन तदपाकृत्य ज्ञानवाञ्जायते द्विजः।।
तथा डाकिन्यादीन्प्रक्रम्य
सर्वे ते प्रशमं यान्ति शिवतीर्थजलोक्षणात्।
ज्ञानोदतीर्थपानीयैर्लिङ्गं यः स्नापयेत्सुधीः ।।
सर्वतीर्थोदकैस्तेन ध्रुवं संस्नापितं भवेत् ।
ज्ञानरूपोऽहमेवात्र द्रवमूर्ति विधाय च॥
जाड्यविध्वंसनं कुयां कुर्यां ज्ञानोपदेशनम्।
योऽष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते॥
तस्यैषाऽम्बुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका।
तथा-
जलक्रीडां सदा कुर्यां ज्ञानवाप्यां सहोमया। .
यदम्बुपानमात्रेण ज्ञानं जायेत निर्मलम्॥
तज्जलक्रीडनस्थानं मम प्रीतिकरं महत्।
अमुष्मिंराजसदने जाड्यहृज्जलपूरितम्।।
शिवपुराणे
वापीजलं तु तत्रस्थं देवदेवस्य संनिधौ ।
दर्शनात्स्पर्शनात्स्नानात्तत्र धर्मस्य संभवः ॥
पाद्मे-
वापी तत्रास्ति वैदेहचिन्मयी देवदक्षिणे।
तदपां सेवनादेव भासते ब्रह्म केवलम् ॥
देवदक्षिण इति। देवशब्दो देवालयपरस्तेन देवालयाद्दक्षिण इत्यर्थः। देवाद्दक्षिणदिशीति वा । देवस्य पश्चिमाभिमुखतया यथा बाधात्।
लैङ्गे
देवस्य दक्षिणे भागे वापी तिष्ठति शोभना ।
तस्यास्तथोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥
पीतमात्रेण तेनैव उदकेन यशस्विनि।
त्रीणि लिङ्गानि वर्धन्ते हृदये पुरुषस्य तु॥
दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा।
पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य शासनात् ॥
पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा।
नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे॥
रक्षते तज्जलं नित्यमभक्तानां तु मोहनम्।
विष्णुरुवाच
ममापि सा परा दैवी तनुरापोमयी शुभा।
अप्राप्या दुर्लभा देवैर्मानवैरकृतात्मभिः॥
यैस्तु तत्र जलं पीतं कृतार्थास्ते तु मानवाः।
तेषां तु तारकं ज्ञानमुत्पत्स्यति न संशयः॥
वापीजले नरः सात्वा दृष्ट्वा वै दण्डनायकम्।
अविमुक्तं ततो दृष्ट्वा कैवल्यं लभते क्षणात्॥
देवस्य दक्षिण इति पूर्ववद्व्याख्येयम् ।
इतिहास को समझने का महत्वपूर्ण दस्तावेज। हर भारतीय तक पहुँचना चाहिए। और झूठ से पर्दा उठना चाहिए.