भाईदूज या भ्रातृद्वितीया, भाई-बहन के आशीर्वाद का पर्व

भ्रातृ द्वितीया यानी भैयादूज भाई-बहन के लिए मुख्य पर्व है। इसमें बहन अपने भाई की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करती है। कहा गया है कि इससे बहन का भी सुहाग बढता है।

कहा जाता है कि सूर्य के पुत्र यमराज इस दिन अपनी बहन यमुना के पास जाते हैं और उनके घर अन्न ग्रहण करते हैं। अतः इस दिन जो भाई बहन के घर खाना खाता है उसकी लम्बी उम्र होती है तथा बहन का भी भाग-सुहाग बढता है। इस प्रकार यह पर्व भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है।

भ्रातृ-द्वितीया

भ्रातृ द्वितीया यानी भैयादूज भाई-बहन के लिए मुख्य पर्व है। इसमें बहन अपने भाई की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करती है। कहा गया है कि इससे बहन का भी सुहाग बढता है।

कहा जाता है कि सूर्य के पुत्र यमराज इस दिन अपनी बहन यमुना के पास जाते हैं और उनके घर अन्न ग्रहण करते हैं। अतः इस दिन जो भाई बहन के घर खाना खाता है उसकी लम्बी उम्र होती है तथा बहन का भी भाग-सुहाग बढता है। इस प्रकार यह पर्व भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है।
हेमाद्रि ने चतुर्वर्गचिन्तामणि के व्रतखण्डमे इसके सम्बन्ध में उद्धृत करते हुए लिखा है कि

कार्तिके शुक्लपक्षस्य द्वितीयायां युधिष्ठिर।
यमो यमुनया पूर्वं भोजितः स्वगृहे सदा।

द्वितीयायां महोत्सर्गे नारकीयाश्च तर्पिताः।।
पापेभ्योपि विमुक्तास्ते मुक्ताः सर्वनिबन्धनात्।

भ्रंशिताश्चातिसन्तुष्टाः स्थिताः सर्वे यदृच्छया।
तेषां महोत्सवो वृत्तो यमराष्ट्रसुखावहः।

हे युधिष्ठिर, कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को यमुना ने पूर्व काल में यम को भोजन कराया था जिसके कारण प्रलय के कालमे नरक में वास करनेवाले सभी तृप्त हो गये थे तथा पापों से मुक्त होकर सभी बन्धनों से मुक्त हो गये थे और नरक से गिरकर प्रसन्न होकर अपनी इच्छानुसार रहने लगे थे यम के राज्य में उनके लिए सुख देने वाला महान् उत्सव हुआ था।

अतो यमद्वितीया सा प्रोक्ता लोके युधिष्ठिर!
अस्यां निजगृहे पार्थ! न भोक्तव्यमतो बुधैः।
स्नेहेन भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनम्”।

हे युधिष्ठिर, इसलिए यह यम-द्वितायी कहलाती है। इस दिन बुद्धिमान लोगों अपने घर में भोजन नहीं करना चाहिए। वे स्नेहपूर्वक बहन के घर भोजन करे, जिससे उनकी वृद्धि होगी।

वर्तमान में यह अंश पद्मपुराण के उत्तर खण्ड के कार्तिक माहात्म्य में 122वें अध्याय में इस प्रकार उपलब्ध है। यहाँ यमपूजा का भी उल्लेख है, जो अब अप्रचलित हो गयी है।

कार्तिके च द्वितीयायां पूर्वाह्णे यममर्चयेत्
भानुजायां नरः स्नात्वा यमलोकं न पश्यति ९२

अर्थात् कार्तिक द्वितीया को पूर्वाह्ण में यानी लगभग 10.30 बजे से पहले यमराज की पूजा करनी चाहिए। यमुना नदी मे स्नान कर वे यमलोक नहीं देखते, अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।

हेमाद्रि के चतुर्वर्गचिन्तामणि में उर उद्धृत पंक्तियों के बाद मूल पुराण में भ्रातृद्वितायी के दिन भाई के कर्तव्यों का विधान किया गया है-

दानानि च प्रदेयानि भगिनीभ्यो विधानतः ९७
स्वर्णालंकारवस्त्राणि पूजासत्कारसंयुतम्
भोक्तव्यं सहजायाश्च भगिन्या हस्ततः परम् ९८
सर्वासु भगिनीहस्ताद्भोक्तव्यं बलवर्द्धनम्।।

भाई को चाहिए कि वह बहन को विधानपूर्वक सोना, गहना, वस्त्र आदि आदरपूर्वक दे और सगी बहन के हाथ का दिया हुआ भोजन करे। सभी तिथियों में बहन के हाथ का भोजन पुष्टि देता है।

आगे यमराज को प्रणाम करने का मन्त्र दिया गया है-

ऊर्जे शुक्लद्वितीयायां पूजितस्तर्पितो यमः ९९
महिषासनमारूढो दंडमुद्गरभृत्प्रभुः
वेष्टितः किंकरैर्हृष्टैस्तस्मै याम्यात्मने नमः 6.122.100

अर्थात् कार्तिक शुक्लपक्ष की द्वितीया को पूजित एवं सन्तुष्ट किये गये यमराज जो महिष के आसन पर बैठे हुए हैं और हाथ में दण्ड धारण किये हुए हैं, वे प्रभु यमराज अपने प्रन्न सेवकों से घिरे हुए हैं उन्हें प्रणाम।

यैर्भगिन्यः सुवासिन्यो वस्त्रदानादि तोषिताः।
न तेषां वत्सरं यावत्कलहो न रिपोर्भयम् १०१।।
धन्यं यशस्यमायुष्यं धर्मकामार्थसाधनम्।

व्याख्यातं सकलं पुत्र सरहस्यं मयानघ।। १०२।।

जो घर की सुवासिनी बहनों को वस्त्र आदि से प्रसन्न करते हैं उनके घर में न तो कभी कलह होता है न उन्हें शत्रु का भय रहता है। इससे धन, यश, आयु की वृद्धि होती है तथा यह धर्म अर्थ एवं काम इन तीनों की प्राप्ति कराता है। हे पवित्र मनवाले युधिष्ठिर मेंने रहस्यें के साथ आपको सारी बातें सुना दी।

यस्यां तिथौ यमुनया यमराजदेवः संभोजितः प्रतितिथौ स्वसृसौहृदेन।
तस्मात्स्वसुः करतलादिह यो भुनक्ति प्राप्नोति वित्तशुभसंपदमुत्तमां सः।। १०३
इति श्रीपाद्मेमहापुराणे पंचपंचाशत्ससहस्रसंहितायामुत्तरखंडे कार्तिकमाहात्म्ये द्वाविंशत्यधिकशत-तमोऽध्यायः १२२

जिस दिन यमुना ने यमराज को बहन होने के स्नेह के साथ भोजन कराया था अथवा दिस किसी भी दिन यमुना ने भोजन कराया उस दिन से जो व्यक्ति बहन के हाथ का दिया हुआ भोजन करता है, वह धन एवं उत्तम संपदा पाता है।

“पितृव्यभगिनीहस्तान् प्रथमायां युधिष्ठिर । 
मातुलस्य सुताहस्ताद् द्वितीयायां तथा।।

चचेरी बहन के यहाँ प्रतिपदा के दिन भोजन करना चाहिए तथा ममेरी बहन के घर द्वितीया के दिन।

कृत्यरत्नाकर में चण्डेश्वर ने शिष्ट वचन के अनुसार कार्तिक शुक्ल द्वितीया के कर्तव्यों के सम्बन्धमें कहा है। यहाँ मैथिल परम्परा का उल्लेख करते हुए विशेष बात कही गयी है कि यदि सम्बन्ध से बहन न रहे तो किसी भी स्त्री को बहन बनाकर उनका आदर सत्कार करना चाहिए और उनके घर जाकर भोजन करना चाहिए।

शिष्टाः
कार्तिकेशुक्लपक्षस्य द्वितीयायां युधिष्ठिर।
यमो यमुनया पूर्व्वे भोजितः स्वगृहे तदा।।
अतो यमद्वितीया सा ख्याता लोके युधिष्ठिर।

तस्यां निजगृहे पार्थ न भोक्तव्यं बुधैरतः।।
यत्नेन भगिनीहस्ताद् भोक्तव्यं पुष्टिवर्द्धनम्।
स्वर्णालङ्कारवस्त्रादि पूजासम्भारभोजनैः।।
सर्वाः भगिन्यः सम्पूज्यास्त्वभावे प्रतिपन्निकाः।।
प्रतिपन्निका भगिन्यभावे प्रतिपन्नात्मानः।।
(पृ. 413. कोलकाता संस्करण, पं. कमलाकृष्ण स्मृतितीर्थ, 1925)

कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि व्रत-पर्व की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। इस दिन अनेक व्रतों का उल्लेख हुआ है।

सरस्वती पूजा

पद्मपुराण में ही कार्तिक माहात्म्य में इस दिन अनेक व्रतों का उल्लेख हुआ है, जिनमें एक सरस्वतीपूजा का भी विधान है। यहाँ कहा गया है कि प्रतिपदा तिथि को, जिस दिन अध्यायन करने का निषेध किया गया है, उस दिन भूल से छात्रों को पढाने के पापों से मुक्ति के लिए कार्तिक शुक्ल द्वितीया को सरस्वती पूजा करनी चाहिए।

चित्रगुप्त पूजा-

इस दिन कायस्थ लोग जो अपने को यमराज के मन्त्री चित्रगुप्त महाराज की संतति मानते हैं वे चित्रगुप्त की पूजा करते हैं, जिसमें लेखन सामग्री की विशेष पूजा होती है। मिथिला की परम्परा में रुद्रधर ने भविष्य-पुराण से चित्रगुप्त पूजा की विधि दी है।

इस प्रकार हमारी परम्परा में भाई-बहन से सम्बन्धित पर्व भैया दूज है।

रक्षाबन्धन के वर्तमान स्वरूप में बहन के सम्मान की रक्षा नहीं।

बादमे चलकर मुगलकाल में भाई को राखी बाँधकर बहन अपनी रक्षा के लिए गुहार लगाने लगी। रक्षाबन्धन यानी राखी की परिकल्पना में बहन को कमजोर मान लिया गया। जबकि भैया दूज की परम्परा में बहन के आत्म-सम्मान एवं आध्यात्मिक शक्ति-सम्पन्न होने की बात कही गयी है। भैयादूज के सन्दर्भ में बहन कही से भी कमजोर नहीं है। वह अपनी आध्यात्मिक शक्ति से भाई का कल्याण करती है।

इसलिए हमें फिर से विचार करना होगा कि सनातन परम्परा में बहन को या किसी भी महिला को हम कितना सम्मान एवं महत्त्व देते रहे हैं। हमारे पर्व-त्योहारों के स्वरूप को बदलकर आज हमें विकृत कर दिया गया है। हमारी आवश्यकता है कि अपने पर्वों और त्योहारों को मूल रूप में अपनाएँ, उसका मूल स्वरूप देखें और तब कोई निर्णय लें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *