तीन प्रकारक जे रात्रि कालरात्रि, महारात्रि आ मोहरात्रि कहल गेल अछि ताहिमे पहिल कालरात्रि दीपावली थिक। मिथिलामे ई गृहस्थक लेल महत्त्वपूर्ण अछि। आई जखनि बहुत मैथिल बन्धु बाहर रहैत छथि, बहुतो गोटे परम्परा सँ अनभिज्ञ छथि तखनि हुनका लोकनिक लेल एतए हम मिथिलाक परम्पराक उल्लेख करैत छी। परदेसमे एकर निर्वाह तँ कठिन अछि मुदा जानकारी अधलाह नहिं। बहुत विधि छैक जे कएल जा सकैत अछि।
मिथिलामे दीपावली कें सुखराती कहल जाईत अछि। सन्ध्याकाल गोसाउनिक पूजा कए दुआरि पर अरिपन दए चौखटि पर दीप जराओल जाइछ। दुआरिक वामाकात उनटल उखरि पर सूपमे पानक पात आ धान राखल जाइत अछि। पुरुष गण ऊक हाथमे लए दुआरि पर आबि ओ धान तीन बेर घरक भीतर छीटैत छथि आ कहैत छथिन :-
दरिद्राकें भगएबाक मन्त्र
धन-धान्य लए लक्ष्मी घर जाउ, दारिद्र्य बहार होउ।'
एकर बाद चौकठि पर बारल दीप सँ ऊक में आगि लगाए अपन आलय में ऊक फेरैत छथि। एहि ऊकमे मात्र 5 बंधन रहैत अछि आ बीच में एकटा संठी देल जाइत अछि। ऊक फेरैत काल परम्परा सँ प्राप्त ई मन्त्र पढ़ल जाइत अछि : (देखू – कृत्यसारसमुच्चय
शस्त्राशस्त्रहतानाञ्च भूतानां भूतदर्शयो:।
उज्ज्वलज्योतिषा देहं निर्दहे व्योमवह्निना।
ऊक फेरबाक मन्त्र-
अग्निदग्धाश्च ये जीवा: येऽप्यदग्धाः कुले मम।
उज्ज्वलज्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमां गतिम्।
ऊक विसर्जित करबाक मन्त्र मन्त्र-
यमलोकं परित्यज्य आगता ये ममालये
उज्ज्वलज्योतिषा वर्त्म प्रपश्यन्तो व्रजन्तु ते॥
ई उल्काभ्रमण अपन पूर्वज लोकनिक प्रति पितृकर्म थिक। एहि मन्त्रसभक भाव अछि जे हमर कुलमे जे केओ शस्त्र सँ अथवा आन तरहें मारल गेलाह, हुनक दाहसंस्कार ठीक सँ नहिं भेलनि अथवा यमलोककें छोड़ि जे हमर आलय मे आएल होथि ओ परम गति कें प्राप्त करथि।’
एकर बाद कुमारिमे भगवतीक ध्यान करैत वस्त्र आदि दए भोजन कराओल जाईत अछि।
ओहि ऊक सँ अधजरल संठी सभ केओ आनि गोसाउनिक सीर पर रखैत छथि। एहि संठीमेसँ कमसँ कम एकटा सुरक्षित राखि देल जाइत अछि, जाहिसँ नवान्न दिन आगि पजारबाक प्रक्रिया कएल जाइत अछि।
भगवतीक विविध प्रकारें स्तुति कए चाँदी अथवा सोना हाथमे धरैत छथि। एकर बाद नैवेद्य खाइत छथि। ओहि राति भाते खएबाक परम्परा अछि।
सुखरातीक चुमाओन
बहुत दिन पहिने नव विवाहित दम्पतीकें एकठाम सुताए कम्बल सँ झाँपि सुखरातीक चुमाओन होइत छल, मुदा आब ई समाप्त भए गेल अछि।
दरिद्रा के आलयसँ भगाएब
रातिमे सुखद शयन करी। राति बितला पर अन्हरोखे घरक प्रधान महिला द्वारा पुरान सूपके गोसाउनिक सीर पर राखल गेल संठीक खोरनाठ सँ डेङबैत आलयमे घुमबाक परम्परा अछि। अन्तमे, ओ सूप आ संठी आलयसँ बाहर फेकि देल जाइछ। ई ‘दरिद्रापसारण’ थिक। दरिद्रा अर्थात् गरीबीकें अपन आलयसँ निकालबाक ई तान्त्रिक विधि मिथिलामे अदौसँ मनाओल जाइत रहल अछि।
मिथिलामे शिवा-बलिक विधान
एहि राति केओ-केओ साधक उड़ीद उसनि ओहिमे दही मिलाए अपन आलयक पश्चिम-उत्तर कोणमे ‘शिवाबलि’ गीदड़-गिदड़नीक भोजन दैत छलाह। जँ गीदड-गिदरनी भोजन ग्रहण नहिं कएलक तँ अनिष्टक आशंका होइत छल।