दग्ध यानी जली हुई। प्रत्येक महीने दो तिथियाँ होतीं हैं, जिन्हें दग्ध तिथि कहते हैं। इसकी गणना आप स्वयं कर सकते हैं।

यात्रा, विवाह, व्यापार आरम्भ करना तथा कर्ज का लेन-देन इन तीनों में दग्धतिथि से बचना चाहिए।

दग्धतिथि का फल

इस दग्ध तिथि में शुभकार्य नहीं करने का निर्देश करते हुए म.म. पशुपति (14वीं शती) व्यवहार-रत्नावली में लिखते हैं। ये म.म. पशुपति मिथिला के प्रसिद्ध विद्वान् भवनाथ मिश्र प्रसिद्ध अयाची के मामा थे। मिथिला में अयाची मिश्र काी बड़ी प्रसिद्धि है। इन्ही के पुत्र महामहोपाध्याय शंकर मिश्र थे। ये सरिसब गाँव के निवासी थे।

एभिर्यातो स जीवेत यदि शक्रसमो भवेत्।

विवाहे विधवा नारी वाणिज्ये मूलनाशनम्।।

कुशीदस्य विवादः स्यात् यात्रायां मरणं ध्रुवम्।।

अर्थात् इसमें यात्रा करने वाला यदि इन्द्र के समान प्रतापी होगा तभी जीवित रहेगा। विवाह करने से नारी विधवा होती है, व्यापार करने से मूल धन भी नष्ट हो जाता है। ऋण लेन-देन करने से विवाद होता है तथा यात्रा में तो मृत्यु निश्चित है।

मुहूर्त गणना पर प्रामाणिक शास्त्र। 14वीं शती की कृति। नाह्निदत्तपंचविंशतिका, म.म. रुचिपति (15वीं शती) का विवरण के साथ।

पहली बार सम्पादित , सम्पादक- पं. भवनाथ झा

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दग्धतिथि की गणना कैसे करें-

इसकी गणना सौर मास के हिसाब से होती है। हम सब जानते हैं कि हर माह सूर्य एक राशि में रहते हैं। ऐसी स्थित में सूर्य की राशि तथा तिथि के योग से दग्धतिथि की गणना होती है।  

दग्धतिथियाँ दो प्रकार से होतीं हैं-

  1. सूर्यभुक्त राशि के अनुसार तिथियाँ
  2. दिन एवं तिथियों का योग

1. प्रथम प्रकार की दग्धतिथि

प्रथम विवरण के लिए म.म. पशुपति कृत व्यवहाररत्नावली[1] (14वीं शती) में श्लोक है-

द्वितीया च धनुर्मीने चतुर्थीवृषकुम्भयोः।

मेषकर्कटयोः षष्ठी कन्यामिथुनगाष्टमी।

दशमी वृश्चिके सिंहे द्वादशी मकरे तुले।

एताश्च तिथयो दग्धाः शुभे कर्मणि वर्जिताः।।

दैवज्ञ कलाधर ने भी शिशुबोधः[2] में इसी पंक्ति को अविकल उद्धृत किया है-

इसे महादेव भट्ट विरचित मुहूर्तदीपक[3] में इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

शुभकार्ये त्याज्याः दग्धतिथयः ।

दग्धा युग्मा विभूता गतवति तरणौ चापमीने घटोक्ष्णे

कर्काजे स्त्रीनृयुग्मे मृगपतिसविषे तौलिनके क्रमेण ।

नंदाद्या रिक्तिकान्तास्त्रिरजभमुखतः स्युश्चतुर्णां च पूर्णा

मेष्टा सक्रूरराशेः प्रतिपदि च कुहौ दन्तकाष्ठं न षष्ठ्याम्॥३॥

इसकी व्याख्या में स्वयं महादेव भट्ट स्पष्ट करते हैं कि-

दग्धा इति । विभूताश्चतुर्दशीरहिताः युग्माः तिथयः द्वितीयाचतुर्थी षष्ठ्यष्टमीदशमीद्वादश्यः क्रमेण दग्धाः स्युः, किं सति तरणौ सूर्ये वक्ष्यमाणराशियुग्मे गतवति सति, तद्यथा- चापमीने तरणौ द्वितीया दग्धा, चापमीनमिति समाहारद्वंद्वः । घटोक्ष्णे कुंभवृषयोस्तरणौ गते चतुर्थी दग्धा, अत्रेतरेतरद्वंद्वः। कर्काजे कर्किणि मेषे तरणी सति षष्ठी दग्धा । स्त्रीनृयुग्मे कन्यामिथुनयोरष्टमी दग्धा । मृगपतिसविषे सिंह-वृश्चिके रवौ दशमी दग्धा। तौलिनक्रे तुलामकरे द्वादशी दग्धा निषिद्धा। तदुक्तम्—

मीने चापे द्वितीया च चतुर्थी वृषकुम्भयोः।

मेषकर्कटयोः षष्ठी कन्यायां मिथुनेऽष्टमी ॥

दशमी वृश्चिके सिंहे द्वादशी घटनक्रयोः।

एताः स्युस्तिथयो दग्धा द्विद्विराशिस्थिते रवौ ।’

च पर नंदाद्या रिक्तिकांताश्चतसस्तिथयः त्रिवारं त्रिरावृत्त्या अजभमुखतः राशीनां स्युः प्राक् नंदा मेषस्य भद्रा वृषस्य जया मिथुनस्य रिक्तिका कर्कस्य चतुर्णा राशीनां पूर्णा प्रहरद्वयं द्वयं मेषादीनां पंचम्याः। एवं सिंहादीनां चतुणों षष्ठ्यादयस्तथा दशमी सिंहादीनां चतुर्णां पुनरेकादश्याचाश्चतस्रो धनुरादिचतुर्णा राशीनां तिथयः।

इस प्रकार किंचित् पाठान्तर के साथ इस वचन को परवर्ती काल में भी व्यापक क्षेत्र में उद्धृत किया गया है। इसी तथ्य को लक्ष्मीनारायण संहिता[4] में भी इन शब्दों में उद्धृत किया गया है-

मेषे कर्कटके षष्ठी कन्यायां मिथुनेऽष्टमी ।।३३ ।।

वृषे कुंभे चतुर्थी च द्वादशी मकरे तुले ।

दशमी वृश्चिके सिंहे धनुर्मीने चतुर्दशी ।।३४।।

एता दग्धा न गन्तव्यं देहिजीवादिमानवैः ।[5]

 यह परम्परा न केवल सनातन ज्योतिष में है बल्कि व्यापकता के कारण जैन मत में भी दग्धा तिथि को त्याज्य माना गया है। जयप्रभविजय कृत ‘मुहूर्तराज’ ग्रन्थ में भी कहा गया है-

दग्धातिथिनामक पंचांग दोष- आरम्भ सिद्धि में

दग्धार्केण धनुर्मीने 2 वृषकुंभे 4ऽजकर्किणि 6 /

द्वन्द्वकन्ये 8 मृगेन्द्रालौ 10 तुलैणे 12 ह्यादियुक तिथि //

अन्वय – अर्केण धनुर्मीने, वृषकुंभे, अजकर्किणि, द्वन्द्वकन्ये, मृगेन्द्रालौ, तुलैणे क्रमश: आदियुक् तिथि: (द्वितीया, चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, दशमी, द्वादशी च एतास्तिथयः) दग्धा (कथ्यते)[6]

अर्थात् किन राशियों में सूर्य के रहने पर कौन तिथि दग्धतिथि कहलायेगी इसकी तालिका नीचे दी जा रही है-

राशि में सूर्य की स्थितिसौर मासतिथि
मीन एवं धनुफाल्गुन एवं पौषद्वितीया
वृष एवं कुम्भज्येष्ठ एवं माघचतुर्थी
मेष एवं कर्कवैशाख एवं श्रावणषष्ठी
कन्या एवं मिथुनआश्विन एवं आषाढ़अष्टमी
वृश्चिक एवं सिंहअग्रहायण एवं भाद्रदशमी

इस प्रकार दग्धतिथि का विचार मिथिला से लेकर महाराष्ट्र तक कम से कम 600 वर्षों से मान्य है।

2. दग्धतिथि की द्वितीय स्थिति- दिन एवं तिथियों का योग-

द्वादश्यर्कयुता भवेन्न शुभदा सोमेन चैकादशी

भौमेनापि युता तथैव दशमी नेष्टा तृतीया बुधैः।

षष्ठी नेष्टफलप्रदा गुरुदिने शुक्रे द्वितीया तथा

सर्वारम्भविनाशनस्य जननी सूर्यात्मजे सप्तमी।।[7]

अर्थात् द्वादशी-रवि, एकादशी-सोम, दशमी-मंगल, तृतीय-बुध, षष्टी-गुरु, द्वितीया-शुक्र, सप्तमी-शनि इन दिनों से संयुक्त ये तिथियाँ सभी कार्यारम्भ के विनाश की जननी मानी गयी है। लेकिन यह दोष केवल दिन में लगता है। रात्रि हो जाने पर दिन सम्बन्धी दोष समाप्त हो जाते हैं।

इसे नीचे की तालिका से समझें-

तिथिदिन
द्वादशीरविवार
एकादशीसोमवार
दशमीमंगलवार
तृतीयाबुधवार
षष्ठीगुरुवार
द्वितीयाशुक्रवार

इस प्रकार ये दो प्रकार से दग्धतिथियाँ होतीं हैं, जो प्रत्येक शुभकार्य में वर्जित हैं। 14वीं शती के ग्रन्थ में जब विवाहे विधवा नारी का उल्लेख है तो विवाह में तो अग्रहायण मास में वृश्चिक राशि में सूर्य के रहने पर दशमी तिथि वर्जित है।


[1] म.म. पशुपति : व्यवहाररत्नावली, सम्पादक- पं. भवनाथ झा, शास्त्रार्थ, शोधपत्रिका, मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा, 2012-13. पृ. 409.

[2] कलाधर : शिशुबोधः पं. ब्रह्मानंद त्रिपाठी (सम्पादक), चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, 2012, पृ. 8

[3] महादेव भट्ट : मुहूर्तदीपक, गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, मुंबई, 1937ई. पृ. 4-5.

[4] श्वेतायन व्यास : लक्ष्मीनारायण संहिता, खण्ड 3, स्वामी श्रीकृष्ण वल्लभाचार्य स्वामी (सम्पादक)  चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस, वारणसी, 1973ई., पृ. सं. 450

[5] लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ३ (द्वापरयुगसन्तानः)/अध्यायः १५३

[6] जयप्रभविजय : मुहूर्तराज, गोविन्दराम द्विवेदी (सम्पादक), राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, राजगढ़ जि. धार (म.प्र.), 1996ई., पृ. 6

[7] कलाधर : शिशुबोध, उपरिवत्, पृ. 9

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