भवनाथ झा की हिन्दी कविता, पाँचवाँ स्तम्भ पत्रिका में प्रकाशित

गमला में पौधा / नपी-तुली मिट्टी / नपी-तुली हवा /

कूलर और हीटर से मिलता।  नपा तुला तापमान/

गमला में पौधा/ठिगना सा/

शहरी बाबू सा / एक ड्राइंग रूम में।

दीवारों से घिरा हुआ /

फौलादी दरबाजे पर दरबान खड़ा / संगीन लिए।

नीचे तिपाइ है / झिलमिल करती मेजपोश/यह सेज बिछी।

नहीं अकेला / अगल-बगल / दो चार और साथी भी हैं।

अपने समान / गमले में मिट्टी है, पानी है।

हरी-हरी ठिगनी-सी हैं टहनियाँ / सब मस्त मस्त / अपने में है।

खुद ही गाते / खुद ही सुनते / कोई मातम नहीं मनाता।

अगल-बगल के साथी पौधे जब मुरझाते।

मिट्टी में कीड़े लग जाएँ / फिक्र नहीं / अलग-अलग गमले हैं।

केवल आँखें टिकी हुई होती है उसपर।

लाता है जो माली पानी / पैमानों मे भर कर।

पौधे ये गमलों मे /

नपा-तुला पानी / हवा भी नपी-तुली / मिट्टी भी /

गमला में पौधा /  ड्राइंगरूम में।

मिट्टी की गहराई तक / जाने को आतुर/

जड़ें सख्त दीवारों से टकरा जाती है।

चिपट-चिपट कर सड़ने लग जाती है।

सूरज की सुनहली धूप देखने / उचक-उचक कर

आगे बढ़ती नई कोपलें / तेज छुरी से काटी जाती।

बेचारा /

गमला में पौधा / ड्राइंग रूम में।

हिस्सा था वह भी कभी पेड़ का।

धरती में थीं जड़ें दूर तक, नीचे नीचे तक /

फैली थी शाखें दूर दूर तक /

तब की बात निराली थी।

उमड़-घुमड़ कर काले बादल / घहराते थे।

सावन की रिमझिम फुहार थी।

भँवराती-सी हवा झनकती / पायल की झंकार सुनाती।

थपकी देती, गाती थी मल्हार राग /

सारी शाखें झूम-झूमकर इठलाती थी /

बोटी-बोटी चमक रही हो जैसे /

फूल लदे थे / मदमाते / फैलाते मधुगंध।

चकित चितवनी / ढोढ़ चराती / पत्ते चुगती /

कंथा में लिपटी बालाएँ जब /

उचक-उचक कर / बाहें फैलाकर / कुछ फूल तोड़ती /

बालों में धजकर इठलाती थी।

झाँई वाले गालों की मुसकान देख / वह पेड़ खुशी से भर जाता।

तब की बात निराली थी।

पतझर आता / आता वसन्त /

फिर आती गर्मी / धरती जलने लगती थी।

लेकिन क्या? कोई फिक्र नहीं!

धरती माँ अपने अंतस्तल से सींच रही थीं।

सूरज की किरणें तीखी थी

लेकिन क्या? कोई फिक्र नहीं!

अगल-बगल थे पेड़ सघन /

इक दूजे का साया बनकर / बचते थे और बचाते थे।

पर जंगल वे कहलाते थे / गंदे वे कहलाते थे।

गाँवों में बसने वाले / इंसान सभी-जैसे रहते थे /

तब की बात निराली थी।

उसी डाल से कटकर आया / एक शाम।

इस पत्थर के घर में / गमला में / पत्थर के ही जंगल में।

अब खुद वह जंगली नही रहा / शहरी बाबू!! /

पीले पत्ते / पोली शाखें / काट दिए हैं मालिक ने।

केवल सजा-सलोना है /

कोई नन्ही-सी भी चिड़ियाँ, नहीं कूकती डालों पर।

तिनके-तिनके जोड़-जोड़ कर / कोटर में / नहीं बनाती सेज।

जहाँ सेंकती अंडा वह / किलक-किलक कर / शोर मचाती!! /

चुप है वह / चुपचाप खड़ा है /

बेजान बक्स का गाना या फिर सायरन की फुँफकार / आज की आवाज वही है।

फौलादी दरवाजे पर दरबान खड़ा / संगीन लिए /

गमला में पौधा ड्रांइग रूम में।

गमला में पौधा / मिट्टी भी है नपी-तुली।

धरती माँ का अंतस्तल अब नहीं रहा।

हवा भी नपी तुली / सावन का झोंका कहाँ गया।

कहाँ गया वह नृत्य / पानी भी नपा तुला पैमाना से।

रिमझिम फुहार स्मृति शेष बनी।

सूरज की सुनहली धूप कहाँ! बड़ दादा की वह छाँव कहाँ!

इस पत्थर के जंगल में / परकोटे से घिरा हुआ इक शहरी बाबू।

एक पौधा गमला में / ड्राइंग रूप में।

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