मूल मैथिली रचनाकार- डा. धीरेन्द्र नारायण सिंह | हिंदी अनुवादक- पं. भवनाथ झा |
शुभाशंसा
किसी सरस्वतीपुत्र की सुदीर्घ सारस्वत साधना का आकलन करना आसान नहीं है। विशेषतः उस सरस्वतीपुत्र की साधना का आकलन तो और भी कठिन कार्य है जिसका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी हो, जिसके चिन्तन का आकाश विस्तृत एवं व्यापक हो और जो एक साथ कई भाषाओं और विधाओं में निष्णात हो; ऐसे वाणी साधक का बहिरंग जितना व्यापक होता है अन्तरंग कहीं उससे अधिक गहरा। कविवर डा० धीरेन्द्र नारायण सिंह और अनुवादक पंडित भवनाथ झा ऐसे ही वाणीसाधक और सरस्वती के वरदपुत्र हैं।
कविता करना कठिन है और कविता में स्वाभाविकता की अभिव्यक्ति और भी कठिन कार्य है। अग्निपुराण में कहा गया है-
नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं तत्र दुर्लभं शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा।।
अर्थात् इस संसार में मनुष्य योनि में जन्म लेना कठिन है, विद्या की प्राप्ति उससे कठिन है, कविता करना उससे कठिनतर और कविता में स्वाभाविक अभिव्यक्ति की उपस्थिति एवं शक्ति तो कठिनतम है। यही कारण है कि हिन्दी के मूर्धन्य समालोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता को मनुष्यता की उच्च भूमि कहा है। कविता पारिभाषित करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा है- जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष मानते हैं। आचार्य शुक्ल की मान्यता है कि कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत् की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोकसत्ता में लीन किये रहता है। उसकी अनुभूति सबकी अनुभूति होती है या हो सकती है। कविवर डा० धीरेन्द्र सिंह की मैथिली कविताएँ इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
इस अनूदित संग्रह की सभी कविताएँ आद्यापान्त मनोयोगपूर्वक पढ़ गया। मैथिली एक सरस मधुर एव लोकप्रिय भाषा है। मैथिल कोकिल एवं अभिनव जयदेव के रूप में महाकवि विद्यापति की विरासत इसे प्राप्त है। पटना के कैंसर रोग विशेषज्ञ डा० धीरेन्द्र नारायण सिंह इन मैथिली कविताओं के जनक हैं और हिंदी में इन कविताओं का अनुवाद करने वाले पंडित भवनाथ झा उपजनक हैं। संस्कृत में अनुवाद शब्द का उपयोग शिष्य द्वारा गुरु की बाद को दुहराये जाने पुनः कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति- जैसे कई अर्थों में किया गया है। लोकिन आज अनुवाद शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गयी सामग्री का दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के सन्दर्भ में किया जाता है। वास्तव में भाषा के इन्द्रधनुष रूप का पहचान का एक समर्थ मार्ग अनुवाद है। डा० भोलानाथ तिवारी के शब्दों में “एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासम्भव समान एवं सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है।” इसीलिए अनुवाद की परिकल्पना एक ऐसे ‘कस्टम हाउसʼ के रूप में की गयी है जिससे होकर स्रोत भाषा की सामग्री लक्ष्य भाषा में रूपान्तरित होती है। अपनी कार्य विधि और उपयोगिता कारण अनुवाद कला भी है और विज्ञान भी। अनुवादक से अपेक्षा की जाती है कि वह स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा का समान ज्ञाता हो।
मुझे यह लिखने में प्रसन्नता हो रही है कि मैथिली की इन कविताओं के अनुवादक पंडित भवनाथ झा संस्कृत, हिन्दी एवं मैथिली के नदीष्ण विद्वान् हैं। अनुवादक की कला में सिद्धहस्त है। उन्होंने संस्कृत के कई ग्रन्थों का हिन्दी में सरस अनुवाद किया है। इन कविताओं के अनुवाद में उनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई है। अनुवाद कठिनतम कार्य है लेकिन इन्होंने इसे सरलतम रूप में प्रस्तुत कर पुस्तक की पठनीयता एवं उपयोगिता में चार चांद लगा दिया है। अस्तु, हमारी कामना है-
मिले सदा शुभ हर्ष आपको, नहीं कभी आये अपकर्ष।
सतत सुधा साहित्य प्रवाहित लिखे लेखनी यश उत्कर्ष।।
शुभेच्छु
जंग बहादुर पाण्डेय
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राँची विश्वविद्यालय, राँची।
चलभाष- 9431595318, email- pandey_ru05@yahoo.co.in
अनुवादक की कलम से
“कविता/कोनो अहिवातक सिन्नूर नञि/जे पतिक मरलाक बाद/पोंछा जाइत छैक।”
डा० धीरेन्द्र नारायण सिंह की यह मैथिली कविता ‘कविताʼ को क्षणभंगुर होने से इंकार करती है। कविता शाश्वत होती है। जो कविता अपने तात्कालिक परिवेश में लिखी जाने के बाद भी व्यापकता समेटे रहती है, वहीं कविता शाश्वत होती है। सच कहा जाये तो कविता की परिभाषा ही वहीं है।
डा० सिंह की कविताएँ यथार्थवादी हैं। उनके कथ्य आज के परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक है, भले कुछ कविताओं के परिवेश क्यों न बदल जाये। हमारे समाज में आज भी विषधर हैं, जो अपना घर किसी चूहा से खुदबाकर उस पर कब्जा कर लेते हैं। डा० सिंह की ‘खिदियाʼ हमें आज भी किसी गाँव की गलियों में मिल जायेगी। जबतक मिश्री बनियाँ होंगे, खिदिया की उपस्थिति भी बनी रहेगी, मिश्री बनियाँ का मुखड़ा भलें आज हमें मुखिया, सरपंच, वार्ड मेंबर और न जाने कितने-कितने ठेकेदार, चमचे, करछुल आदि के रूप में बदल जाये, उसका वजूद आज भी है, जो उधार देकर तगादा देने दीपावली की शाम उसकी झोपडियों के द्वारा पहुँच जाते हैं। आज भी डा० सिंह की ‘रधियाʼ मेडिकल कालेज के मुर्दा-टैंक में फर्मिलिन में तैरती मिल जायेगी।
डा० धीरेन्द्र नारायण सिंह औपचारिक शिक्षा तथा पेशा से एक चिकित्सक हैं, कैंसर के क्षेत्र में लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक हैं, विश्वस्तर पर इनका नाम है। मैंने जब इनकी कविताएँ पढ़ीं तो इनके स्वर में यथार्थवाद की सोंध, कथन की तीव्रता तथा बिम्ब-योजना की स्पष्टता मिली, जिससे मैं आकृष्ट हुआ। मैथिली-साहित्य में ये धीरेन्द्र सिंह के नाम से जाने जाते हैं।
आधुनिक शैली की कविता मुझे बहुत पसंद नहीं; क्योंकि उसके बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव अक्सर अस्फुट होते हैं। हमारे प्राचीन काव्यशास्त्रियों ने यद्यपि ध्वनि को काव्य की आत्मा माना है, पर ध्वनि की अत्यन्त गूढता को दोष कहते हुए भी बाज नहीं आते। वस्तुतः ऐसी स्थिति में ध्वनि का पूरा परिपाक नहीं हो पाता है, वह आधा-अधूरा ध्वनि पाठक को अनेक प्रतिबिम्बों का भान कराता है और पाठक भटक जाता है। यह आधुनिक कविता का सबसे बड़ा दोष माना जाये, तो असंगत नहीं।
डा० सिंह की कविताओं की बिम्ब-योजना हमें भटकाती नहीं हैं। नदी, उसका तटबंध, बूचड़ का छुरा, बस के पीछे उड़े चले जाते धूलकण, केतली के गर्म होने पर गर्म हवा से ब्रह्माण्ड भर जाना, झोपड़ी के मुँडेर के बल्ले पर बैठा कौआ का काँव-काँव करना, सब्जी बेचनेवाली के सामने पड़ी कचरे की ढेर आदि सारे बिम्ब व्यापक हैं और उनका परिपाक पूरी कविता के अंत होते-होते हो जाता है, और पाठक के मान में साधारणीकरण पूरा हो जाता है।
इन कविताओं का हिन्दी अनुवाद करना आपने आप में एक सुखद अनुभूति है। मैथिली भाषा की अपनी सुगंधि है, जिसे अनेक जगहों पर हम हिन्दी में व्यक्त नहीं कर सकते। मैंथिली के शब्द और अर्थ का संसार जहाँ हिन्दी के शब्दार्थ-संसार से बिल्कुल अलग है, वहाँ सीधे उन शब्दों से बिम्ब स्पष्ट नहीं हो सकते हैं। ऐसी जगहों पर हमने भावानुवाद का सहारा लिया है। अतः “दूध-भात सानल अछि” का अनुवाद “खीर का कटोरा परोसा हुआ” मैंने किया। मेरा एक ही उद्देश्य रहा है कि हिन्दी के पाठक कवि की बिम्ब-योजना को भली-भाँति मन में उतार सकें। लेखक ने स्वयं इसका अवलोकन किया है। यथार्थवादी कविताएँ संस्कृतनिष्ठ शब्दावली में वह ध्वनि व्यक्त नहीं कर पाती है, अतः आग्रहपूर्वक मैंने जनभाषा का सहारा लिया है, फिर आंचलिकता भी तो हिन्दी कविता का एक स्वाद है!
डेग कविता-संग्रह में प्रकाशित चार कविताएँ- ‘हमरा नञि बूझल छल’, ‘नारा’, ‘जिनगी’ एवं ‘अएना’ का पुनः संकलन ‘पितामहक नाम’ में भी हुआ है, अतः उनका अनुवाद ‘पितामहक नाम’ वाले अंश में है। इस प्रकार कुल मिलाकर 50 प्रकाशित कविताओं का यहाँ संकलन किया गया है। एक कविता उन्होंने सद्यः लिखी है, इसे भी सर्वप्रथम यहाँ संकलित किया गया है।
हमें आशा है कि इस अनुवाद से हिन्दी के पाठक अवश्य लाभान्वित होंगे और डा० सिंह की मैथिली कविताओं का रसास्वादन कर सकेंगे।
भवनाथ झा
प्रस्तुत अनुवाद
मैं 1970 के दशक से मैथिली में कविता लिखना प्रारम्भ किया जो तत्कालीन पत्रिकाओं जैसे- मिथिला मिहिर, वैदेही आदि में प्रकाशित होती थी। कविगोष्ठियों में भी कई कविताएँ सुनायी थी। सन् 1977 ई० में विभूति आनंद के साथ ‘डेगʼ कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसमें मेरी 21 कविताएँ हैं। कविता रुकी नहीं। 1998 ई० में पुनः ‘पितामहक नामʼ के नाम से 33 कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ। 1998 के बाद भी लेखनी रुकी नहीं। कई कविताएँ छपीं भी, पर उनका संकलन सकल रूप से पूर्ण नहीं हो सका।
मैं गरीब परिवार से था। मेडिकल की पढ़ाई में आर्थिक तंगी, पिताजी एवं माताजी का आशीर्वाद तथा सगे-संबंधियों के सहयोग से मैं अपनी पढ़ाई कर सका। कई कविताओं को मैंने जीया है। कई कविताएँ मेरे जेसे लोगों के द्वारा भोगे गये यथार्थ हैं। कभी खुद को ठगा महसूस किया तो कभी जुल्म सहा, तो कभी दुर्व्यवहारों से अपमानित हुआ। ठगों की चालाकी अधिक महसूस होती थी। मजबूरी अपनी ही नहीं, कई लोगों की मजबूरियाँ भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दिखती रही। कभी वर्तमान की समस्या को लेकर समस्याएँ होती तो गाँधी को यादकर जीता था, कभी अर्जुन और कृष्ण को गाण्डीव लेकर पुकारता था। विज्ञान का छात्र और डाक्टरी की व्यस्तता बहुत कुछ करने से रोकता रहा। डाक्टरी एक अस्त्र मिला। जहाँतक बन पड़ा, मानवता को मजबूत करने की कोशिश करता रहा। पैसा कमाने में विश्वास नहीं रखा। फिर वैश्विक स्तर पर विज्ञान में जुट गया। कविता छुटती गयी, किन्तु कविता का कीड़ा अभी भी काटता रहता है। कभी कभी कलम चल जाती है।
सन् 2019 ई० में पं० भवनाथ झा से परिचय हुआ। इन कविताओं को हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाने के लिए इनका अनुवाद आवश्यक प्रतीत हो रहा था। संयोगवश पं० भवनाथ झाजी ने एक दिन प्रस्ताव दिया कि मैं इनका हिन्दी अनुवाद कर देता हूँ। मैंने सहर्ष अनुमति दे दी और आज मेरी कविताओं का हिन्दी अनुवाद आपके समक्ष है।
भवनाथजी का अनुवाद मेरी कविताओं को हिन्दी पाठकों तक पहुँचाने में सफल होगी। अनुवाद को कई बार मैंने देखा है। कई शब्दों में एकमत नहीं होते हुए भी मेरी समझ से अनुवाद युक्ति सगंत तथा सटीक है। हिन्दी अनुवाद को पढते समय कई बार भवनाथ जी से सम्पर्क कर विचार किया। कुछ-कुछ शब्द मैथिली में बहुत आंचलिक हैं। कई जगहों पर उसे यथावत् छोड़ा गया है। अनुवाद में कविताओं के भाव का प्रभाव है। आशा है कि हिन्दी के पाठक इसका आनंद उठा पोयेंगे।
धीरेन्द्र सिंह