मूल पाठ एवं अनुवाद

यहाँ यह मूल अंश अनुवाद के साथ प्रस्तुत है-

सुधामोवाच

श्रूयते मिथिला धन्या लोके पुण्यतमा गुरो।

पदे  पदे  यत्र  देवो देव्या सह विराजते।।1।।

राजन्ते कानि पुण्यानि देवस्थानानि साम्प्रतम्।

येषु देवान् समभ्यर्च्य लोकाः यान्ति परां गतिम्।।2।।

हे गुरुदेव, सुनता हूँ कि मिथिला इस लोक में सबसे अधिक पुण्यवाली है, जहाँ पग पग पर देवी के साथ महादेव विराजमान हैं। वर्तमान में कौन-कौन पुण्य देवस्थान हैं, जहाँ देवताओं की पूजा कर लोग परमगति को पाते हैं।

गुरुरुवाच।

सत्यमुक्तं त्वया भाव मिथिला बहुपुण्यदा।

सन्त्यनेकानि पुण्यानि देवस्थानानि साम्प्रतम्।।3।।

गुरु ने कहा- बच्चा, तुमने सही कहा कि मिथिला पुण्यवती है। यहा वर्तमान में अनेक पुण्य देनेवाले मन्दिर हैं।

पुरा कैलासशिखरे सुखासीनो महेश्वरः।

पार्वतीं कथयामास मिथिलां बहुपुण्यदाम्।। 4।।

प्राचीन काल में कैलाश के शिखर पर सुखपूर्वक बैठे महादेव ने मिथिला के सम्बन्ध में पार्वती से कहा था

मिथिला की सीमा

गण्डकीतीरमारभ्य   चम्पारण्यान्तकं  शिवे।

विदेहभूः  समाख्याता  तीरभुक्ताभिधः  स तु।।5।।

हे पार्वती, गण्डकी के किनारे से लेकर चम्पारण तक विदेहभूमि कहलाती है और वहीं तीरभुक्ति के नाम से भी ख्यात है।

मिथिला की महिमा

अथ लाँगलपद्धत्यां  मिथिलायां  हरिप्रिया।

राज्ञः प्रकृष्यतः  क्षेत्रमाविर्भूता  धरातलात्।।6।।

वैकुंठगान् पुरस्कृत्य लोकान् लक्ष्मीरवातरत्।

वैकुठंस्तु निजांशेन मिथिलाभूमिमाविशत्।।7।।

अतो निवासभूमिस्ते सर्व्वस्थानाद्विशिष्यते। 

वैकुंठान्न कला न्यूना दृश्यते मिथिला मया।।8।।

इसके बाद, राजा के द्वारा खेत जोतते समय हल चलने से बनी रेखा से वैकुण्ठवासियों के पीछे पीछे लक्ष्मी धरातल से उत्पन्न हुई। वैकुण्ठ भी स्वयं मिथिला की भूमि पर प्रवेश कर गया। इसलिए आपकी निवास भूमि जो मिथिला है वह सभी स्थानों से विशिष्ट है। यहाँ वैकुण्ठ से थोडी-सी भी कम ज्योति नहीं है।

अयोध्यायां निवासेन यत्फलं लभते नृप।

तत्फलं समवाप्नोति समानं नात्र संशयः।।9।।

अविमुक्ते मम क्षेत्रे   संवत्सरनिवासतः।

यत्फलं लभते मर्त्यो मिथिलायां दिने दिने।। 10।।

तीर्थराजे विधिक्षेत्रो वर्षत्रयनिवासतः।

यत्फलं समवाप्नोति मिथिलायां दिनेन तत्।। 11।।

गयायां पिण्डदानेन पितृणां यत्फलं लभेत्।

तत्फलं समवाप्नोति पिण्डदानान्न संशयः।।12।।

हे प्रिये, अयोध्या में निवास करने से जो फल मिलता है उसी के समान फल यहाँ भी मिलता है, इसमें संदेह नहीं। अविमुक्त (काशी) नामक मेरे क्षेत्र में एक वर्षतक कल्पवास करने का जो फल है वही फल यहाँ मनुष्य प्रत्येक दिन वास करने पर प्राप्त करते हैं। तीर्थराज प्रयाग में विधि-क्षेत्र में तीन वर्षों के कल्पवास से प्राप्त फल यहाँ एक दिन के कल्पवास से मिलता है। गया में पितरों को पिण्डदान से जो फल मिलता है वह यहाँ भी पिण्डदान करने से फल मिलता, इसमें संदेह नहीं।

कुरुक्षेत्रे तु यद्दानं ब्राह्मणेभ्यः प्रदीयते।

तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं मिथिलायां प्रियंवदे।। 13।।

कन्यादानस्य माहात्म्यं गोदानस्य तथैव  च।

अन्नदानस्य माहात्म्यं भूमिदानस्य यत्पुनः।। 14।।

विद्यादानस्य माहात्म्यं मिथिलायां नरेश्वर।

सहस्रवदनोऽनन्तो वर्णितुं नैव शक्नुयात्।। 15।।

हे प्रिय बोलनेवाली, कुरुक्षेत्र में ब्राह्मणों को जो दान किया जाता है, उससे करोड़ गुणा पुण्य मिथिला में दान करने से मिलता है। मिथिला में कन्यादान का माहात्म्य, गोदान का माहात्म्य, अन्नदान का माहात्म्य, फिर भूमिदान का भी, विद्यादान का माहात्म्य तो हजार मुखवाले अनन्त भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं।

नद्यः प्रसन्नसलिलाश्चतुर्दिक्षु वहन्ति या।

ज्ञेयाः परिधयस्तत्र निवसन्ति दिगीश्वरा।।16।।

मायापुर्यादिकाः प्रोक्ताः सामान्येन विमुक्तिदाः।

येषां  तु मिथिला भाव विष्णुसायुज्यकारिणी।।17।।

वैदेही   तु  स्वयं यस्मात् स्वकृतग्रन्थिमोचनी।

आश्रितानामतस्तेषां     भवेत्सायुज्यमेव   हि।।18।।

सुन्दर जलोंवाली नदियाँ जो चारों दिशाओं में बहतीं है, उन्हें मिथिला की परिधि जानो, जहाँ दिशाओं के स्वामीगण निवास करते हैं। मायापुरी (हरिद्वार) आदि नगरियाँ सामान्य रूप से उन्हें मुक्ति देनेवाली हैं, जो विष्णु के साथ संयोग करानेवाली मिथिला को धन्य मानते हैं। चूँकि स्वयं वैदेही सीता यहाँ अपने द्वारा बाँधी गयी गाँठों को खोलतीं हैं, अतः उनके आश्रितों को तो मुक्ति मिलती ही है।

मिथिला की नदियाँ एवं उनके तीर्थों में स्नान की तिथियाँ

कौशिकी त्रियुगा चैव वाग्वती कमला शुभा।

जीववत्सा च यमुनी सीता चैव गण्डकी।।19।।

क्षीरोदधिर्महापुण्या धर्ममूला च लक्ष्मणा।

अन्याश्चापि शुभा नद्यः प्रवहन्ति पदे पदे।।20।।

अवारा हरिद्रा च जंघिका मण्डलांकुशी।

गैरिका भूयसी चैता अधिमासेतिपुण्यदाः।।21।।

कोशी, त्रियुगा, वाग्वती (बागमती), कमला, जीववत्सा (जीबछ), यमुनी (जमुनियाँ धार), सीता (समस्तीपुर जिला में बहनेवाली एक नदी), गण्डकी, क्षीरोदधि (खरोई- करेह), धर्ममूला (धेमुड़ा), लक्ष्मणा (लखनदेई) और अन्य पुण्यवती नदियाँ भी पग-पग पर बहतं हैं। अवारा, हरिद्रा, जंघिका, मण्डला, अंकुशी, गैरिका, भूयसी और अधिमासा नदियाँ भी पुण्य देनेवाली हैं।

वृश्चिकार्के तु यः स्नात्वा जंघिकायां हरिं यजेत्।

सर्वान्भोगानशेषेण मुक्ता मुच्येत बन्धनात्।।22।।

चैत्रे स्वर्णवतीनद्यां लक्ष्मणायां विशेषतः।

प्रातःस्नात्वार्च्य लक्ष्मीशं महापापाद् विमुच्यते।।23।।

आषाढे यस्तु वाग्मत्यां कमलायां च मानवः।

स्नात्वा मां हरिमभ्यर्च्य प्राप्नुयात् मानसेप्सितम्।।24।।

मकरार्के पयस्विन्यां विमलायमुनोभयोः।

स्नात्वा विधिं हरिं मां च पूजयन् सर्वसिद्धिभाक्।।25।।

आश्विने गैरिकां स्नाति नदीमाश्रित्य तत्र यः।

अभ्यर्च्य तत्र दिक्पालान् प्रेत्य दिक्पालसौख्यभाक्।।26।।

धनुराशिगते भानौ य आश्रित्य जलाधिकाम्।

स्नात्वाभ्यर्च्य शिवं मां हि स मद्गणपतिर्भवेत्।।27।।

भाद्रे मासि विशेषेण व्याघवत्यां तु यो नरः।।

स्नात्वा संपूज्य मां भक्त्या स्वेप्सितं फलमाप्नुयात्।।28।।

हरिद्रायाः जले स्नायादवाराजलेऽपि वा।

समाराध्य जगन्नाथं पश्चात्तल्लोकभाग्भवेत्।।29।।

फाल्गुने मण्डलावत्यां स्नात्वा मां पूजयेन्नरः।

मनसा प्रार्थितं कामं तस्मै यच्छाम्यसंशयम्।।30।।

श्रावणे मनुजो यस्तु गंडक्याः विमले जले।

स्नात्वा मां वा हि विष्णुं वा जपेदीप्सितमाप्नुयात्।।31।।

वृश्चिक में सूर्य के रहने पर (अर्थात् अगहन मास में) जंघिका में स्नान कर जो विष्णु की पूजा करे तो वह सभी प्रकार के भोगों को भोगकर मुक्त होता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है। चैत्र मास में स्वर्णवती नदी में और विशेष रूप से लक्ष्मणा में प्रातःस्नान कर विष्णु की पूजा कर महापापों से मुक्त होता है। आषाढ में जो मनुष्य वाग्मती में और विशेष रूप से कमला में स्नान कर मुझे (महादेव को) तथाविष्णु की पूजा करता है वह सभी अभीष्ट वस्तुएँ पाता है। मकर में सूर्य के रहने पर (माघ मास में) जो पयस्विनी नदी में अथवा विमला एवं यमुना (जमुनियाँ धार) में स्नान करते हैं और स्नान कर ब्रह्मा, विष्णु एवं मेरी (शिव की) पूजा करते हैं वे सभी सिद्धियों के भागी होते हैं। आश्विन मास में गैरिका नदी के तट पर कल्पवास करता हुआ जो नदी में स्नान करता है और दिक्पालों की पूजा करता है वह दिक्पालों के समान सुख प्राप्त करता है। धनु राशि में सूर्य के रहने पर (पौष मास में) जलाधिका के तट पर कल्पवास करता हुआ जो स्नान करता है और मुझ शिव की पूजा करता है, वह मेरे गणों का स्वामी होता है। जो मनुष्य विशेष रूप से भाद्र मास में वाग्वती में स्नान कर भक्ति भाव से मेरी पूजा करता है, वह अभीष्ट फल पाता है। हरिद्रा अथवा अवारा के जल में जो स्नान कर जगन्नाथ की पूजा करता है तो वह मृत्यु के बाद उनके लोक को जाता है। फाल्गुन मास में मण्डलावती में स्नान कर जो मनुष्य मेरी पूजा करता है उसे मैं (शिव) निश्चय ही मनोभिलषित फल देता हूँ। श्रावण मास में जो मनुष्य गण्डकी के निर्मल जल में स्नान कर मेरा अथवा विष्णु का जप करता है, तो उसे इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है।

लोहिनी पीठ, लोहना ग्राम

अधुना संप्रवक्ष्यामि लोहिनीपीठमुत्तमम्।

रक्तवर्णा ललज्जिह्वा यत्र देवी विराजते।।32।।

पुरा कृतयुगे कश्चिद् सिद्धो योगी बभूव ह।

जालन्धरो महान् साधुः देव्याराधनतत्परः।।33।।

अब मैं उत्तम लोहिनी पीठ का वर्णन करता हूँ। यहाँ लाल वर्ण वाली देवी विराजमान हैं, जिनकी जिह्वा लपलपाती रहती है। प्राचीन काल में देवी के आराधक जालन्धर नामक महान् साधु थे।

गत्वा सोऽमरावत्यां नगर्यां तत्र संस्थितः।

लक्ष्मणायाः पूर्वतटे स्थापयामास चाश्रमम्।।34।।

वीरेश्वरस्य देवस्य वायव्ये विमले तटे।

देवीं ज्वालामुखीं तत्र समाराध्य प्रयत्नतः।।35।।

चीनाचारेण यानेन लोहिनीं रक्तवर्णिकाम्।

शिवं कन्येश्वरं तत्र स्थापयामास मन्दिरे।।36।।

प्रसादं प्राप्य देवस्य देव्याश्च कृतक्रियः।

जनदुःखौघनाशार्थं प्रयत्नं कृतवान् कृती।।37।।

अद्यापि तत्र मठिका राजते बहुपुण्यदा।

सिंहे पद्मासना देवी लोहिनी नाम विश्रुता।।38।।

सिन्दूरालिप्तसर्वाङ्गी पूजिता सर्वकामदा।

तत्पार्श्वे नागकुण्डल्यां मातृकाचक्रसंस्थितः।।

गौर्या सह महादेवो राजते कन्यकेश्वरः।।39।।

वे अमरावती नगरी में जाकर वहाँ रहने लगे और उन्होंने लक्ष्मणा के पूर्व तट पर वीरेश्वर देव के पश्चिम-उत्तर कोण में निर्मल तट पर आश्रम बनाया। वहाँ चीनाचार की विधि से लाल वर्णवाली ज्वालामुखी लोहिनी देवी की आराधना की। वहीं मन्दिर में उन्होंने कन्यकेश्वर शिव की स्थापना की। महादेव एवं देवी की कृपा प्राप्त कर उसने लोगों के दुःखों के निवारण के लिए यत्न किया। आज भी बहुत पुण्य देनावाला उनका मठ वहाँ विराजमान है। वहाँ सिह के ऊपर पद्मासन में बैठी हुई लोहिनी नामक देवी विख्यात हैं। सिन्दूर के लिपे हुए अंगोंवाली देवी पूजित होने पर सभी कामनाओं की पूर्ति करतीं हैं। वहाँ बगल में नागकुण्डली पर गौरी के साथ कन्यकेश्वर महादेव विराजते हैं।

गौरीशंकर, जमुथरि

गौरीशंकरस्तस्मात् कौवेरे लक्ष्मणा तटे।

मातृकाचक्रवेद्यां स जम्बूकाननसंस्थितः।।40।।

इस स्थान से उत्तर दिशा में जम्बू (जामुन) के वन में लक्ष्मणा के तट पर मातृचक्र की वेदी पर गौरीशंकर विराजमान हैं।

छिन्नमस्ता, उजान एवं वनदुर्गा, खड़रख

याम्ये तु लोहिनीदेव्याः लक्ष्मणायास्तटे वने।

छिन्नमस्ता भगवती पूजितासुरमर्दिनी।।41।।

उद्यानं तत्र विततं देव्या पालितं महत्।

वनदुर्गा भगवती प्रतीच्यां गहने वने।।42।।

लोहिनी देवी से दक्षिण दिशा में लक्ष्मणा के तट पर वन में असुरमर्दिनी छिन्नमस्ता देवी पूजित हैं। वहाँ उनका विशाल उद्यान है जो देवी द्वारा पालित है वहाँ से पश्चिम दिशा में वन दुर्गा देवी हैं।

सरिसब- सिद्धेश्वर शिव, सिद्धेश्वरी, गुरु हलेश्वर

तस्मान्नातिदूरे वै नगरे सर्षपे शुभे।

देवः सिद्धेश्वरस्तत्र देवी सिद्धेश्वरी शिवा।।43।।

सिद्धेश्वराभिधं लिंगमाविर्भूतं भुवः स्वयम्।

सम्यगाराधितो देवः भुवि सिद्धिं प्रयच्छति।।44।।

श्रीमान् हलेश्वरस्तत्र गुरुः शाण्डिल्यगोत्रजः।

पूज्यः सिद्धः सदा शिष्यैः साक्षादिव हलेश्वरः।।45।।

उससे थोडी दूरी पर  सर्षप नामक सुन्दर नगर में सिद्धेश्वर देव तथा सिद्धेश्वरी देवी हैं। सिद्धेश्वर देव का लिंग पृथ्वी से स्वयं आविर्भूत हैं। वे विधानपूर्वक पूजित होकर पृथ्वी पर सिद्धि प्रदान करते हैं। वहीं शाण्डिल्य गोत्र में उत्पन्न हलेश्वर नामक गुरु हैं, वे सिद्ध हैं और अपने शिष्यों के द्वारा साक्षात् बलराम के समान पूजित हैं।

लोहिनीस्थल, लोहना की प्राथमिकता एवं मन्त्रविधि

गच्छ तस्माद् वणिक्छ्रेष्ठ प्रथमं लोहिनीस्थलम्।

तत्र पूजा विधातव्या देव्या देवस्य च प्रभो।।46।।

इसलिए हे वणिक् श्रेष्ठ सबसे पहले लोहिनी पीठ की यात्रा करो वहा देवी और देव की पूजा करनी चाहिए।

सुधामोवाच।

पूजा कीदृशी चात्र को मन्त्रः किञ्च साधनम्।

ज्ञातुमिच्छामि तत्सर्वं लोहिन्याः मन्दिरे गुरो।।47।।

सुधामा ने पूछा- हे गुरुदेव लोहिनी देवी के मन्दिर में कैसी पूजा होती है, उनका क्या मन्त्र है कौन कौन साधन वहाँ चाहिए- ये सब मैं जानना चाहता हूँ।

गुरुरुवाच

चीनाचारेण विधिना कर्तव्यं पटसाधनम्।

कृत्वा वसुदलं पद्मं पटे लोहितवर्णके।।48।।

भूपुरेण समायुक्तं कुड्ये संस्थाप्य यत्नतः।

कमलानि सहस्राणि लेख्यानि परितस्ततः।।49।।

पीठे सम्मुखं स्थित्वा जपं कुर्याच्च मान्त्रिकः।

जपैर्लक्षमितैर्मन्त्रै सर्वकामानवाप्नुयात्।।50।।

गुरु ने कहा- चीनाचार की विधि से वहाँ पटसाधन करना चाहिए। लाल रंग के वस्त्र पर भूपुर से युक्त आठ दलों वाला कमल लिखकर उसे दिवाल पर स्थापित करना चाहिए। उसके चारों ओर एख हजार कमल लिखना चाहिए। उस पीठ पर सामने बैठकर मन्त्रसाधक लाख मन्त्रो का जप करे तो सभी सिद्धियाँ पावे।

सरिसब से उत्तर- विष्णुपुर एवं यज्ञपुर, तारा मन्दिर

सर्षपादुत्तरस्यां हि विष्णुनामा पुरो महान्।

ततः प्राच्यां यज्ञपुरो यत्रास्ति विमलं सरः।।51।।

तस्मिन् सरोवरे स्नात्वा सर्वरोगक्षयो भवेत्।

तत्र तारां समाराध्य बोधिसत्त्वेन पूजिताम्।।

चीनाचारेण विधिना सर्वविद्यां समाप्नुयात्।।52।।

सर्षप नगर (सरिसब) से उत्तर में विष्णुपुर (सनकोर्थु?) नामक विशाल नगर है। इसके पूर्व में यज्ञपुर (सम्भवतः जगौर तालाब, जो हटाढ-रुपौली के पश्चिम में अवस्थित है) नामक स्थान है जहाँ निर्मल सरोवर है। उस सरोवर में स्नान करने से सभी रोग छूट जाते हैं। वहाँ बोथिसत्त्व द्वारा पूजित तारा देवी की पूजा चीनाचार विधि से कर सभी विद्या पावे।

यज्ञपुर से उत्तर- रविग्राम का सूर्यमन्दिर

उदीच्यां तु ततो गत्वा रविग्रामे शुभालये।

सूर्यदेवं नमस्कृत्य कौवेर्यां भुवनेश्वरम्।।53।।

वहाँ से उत्तर दिशा में जाकर रविग्राम (रैयाम) के सुन्दर मन्दिर में सूर्यदेव को प्रणाम कर, वहाँ से उत्तर दिशा में भुवनेश्वर को प्रणाम करें।

रविग्राम से उत्तर- कोकिलाक्षी, कोइलख

दृष्ट्वा ततोऽप्युदीच्यां वै कोकिलाक्षीं च पूजयेत्।

भद्रकालीं सौम्यतरां त्रैलोक्यत्राणकारिणीम्।।54।।

उनका दर्शन कर वहाँ से भी उत्तर दिशा में कोकिलाक्षी (कोइलख गाँव में अवस्थित) की पूजा करें। वहाँ भद्रकाली रूप में सौम्यस्वरूप वाली तीनों लोकों का कल्याणकरनेवाली देवी हैं।

कोइलख से पश्चिम- मङ्गला मठ तथा मङ्गलवन- मङरौनी

प्रतीच्यां तु ततो भव्या राजते गहने वने।

कमलायाः पूर्वतटे मङ्गला मठिका शुभा।।55।।

देवी चतुर्भुजा तत्र ज्ञान-विज्ञानदायिनी।

शिष्यैः पठद्भिः बहुभिर्जायते गुञ्जितं वनम्।।56।।

(तस्मात् तत्स्थलं लोके ख्यातं मङ्गलं वनम्।)

वहाँ से पश्चिम दिशा में कमला के पूर्व तट पर (वर्तमान मँगरौनी) घनघोर वन में मङ्गला नामक सुन्दर मठिका है। वहाँ ज्ञान-विज्ञान देने वाली चार भुजाओं वाली देवी विराजमान हैं। अध्ययन करते हुए शिष्यों से वह वन ससत गुंजित रहता है अतः वह स्थल लोक में मङ्गलवन के नाम से ख्यात है।

मङरौनी से पश्चिम- मधूकवन, मधुबनी, कपिलेश्वर स्थान

प्रतीच्यां कमलायास्तु मधूकस्य वनं महत्।

तस्माद् वायव्यकोणे तु कपिलस्य वनं महत्।।57।।

तस्मिन् सदाशिवो नित्यः लोकरक्षणतत्परः।

स्नात्वा तत्र ह्रदे कुष्ठी जायते नीरुजः क्षणात्।।58।।

तत्रैवाराधितं लिंगं कपिलेन द्विजन्मना।

ईप्सितं साधितं यत् तत् कपिलेश्वरसंज्ञितम्।।59।।

वैशाखे कार्तिके माघे पयसा बिल्वपत्रकैः।

योर्चयेत् तत्र मां भक्त्या न स दुःखौघभाग्भवेत्।

तत्र कङ्कपुरः साक्षात् सरस्वत्याः शुभालयः।।60।।

कमला के पश्चिम तट पर (मधुवनी) महुआ का विशाल वन है। वहाँ से पश्चिम-उत्तर कोण में कपिल मुनि का विशाल वन है उस वन में सदाशिव शाश्वत महादेव लोकों की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वहाँ स्वयं निर्मित तालाब में स्नान कर कुष्ठ रोगी उसी क्षण नीरोग हो जाता है। वहीं पर कपिल मुनि ने शिवलिंग की आराधना कर अपनी इच्छाओं को पूर्ण किया था अतः उन्हें कपिलेश्वर कहा जाता है। (भगवान् शिव कहते हैं कि ) वैशाख, कार्तिक एवं माघ मास में जल एवं बेलपत्र से जो भक्तिभाव से मेरी पूजा करते हैं वे दुःख नहीं पाते। वहाँ कङ्गकपुर नामक गाँव है, जो साक्षात् सरस्वती का सुन्दर निवास-स्थान है।

कपिलेश्वर से पश्चिम- पाण्डुपल्ली- भोजपड़ौल

ततो याम्यां पाण्डुपल्ल्यां तीक्ष्णरश्मेः सनातनी।

मूर्तिस्तु राजते भाव कुन्त्या संपूजिता वने।।

वहाँ से दक्षिण में वन में पाण्डुपल्ली (वर्तमान भोजपण्डौल) गाँव में कुन्ती के द्वारा आराधित भगवान् सूर्य की शाश्वत प्रतिमा है।

दूसरा पाण्डुपल्ली- पण्डौल

अथाप्यन्या पाण्डुपल्ली याम्ये तस्याः विराजति।

पाण्डवैः स्थापितः सूर्यः कुन्त्याराधितः पुरा।।61।।

वनवासे संवसद्भिः मिथिलोपवने खलु।

तत्र शम्भुः स्वयं देव्या सह राजति कानने।।62।।

वहाँ से दक्षिण दिशा में दूसरा पाण्डुपल्ली (पण्डौल) नाम की नगरी है, जहाँ प्राचीन काल में मिथिला के उपवन में वनवास के समय कुन्ती के द्वारा आराधित सूर्यदेव हैं। वहाँ पर वन में देवी के साथ स्वयं शम्भु विराजमान हैं।

पाण्डुपल्ली के पास शक्रपुरी- सकरी

तत्र शक्रपुरी नाम्ना राजधानी महापुरी।

नृपेण देवकल्पेन शासिता सौधशालिनी।।63।।

वहाँ पर शक्रपुरी (सकरी) नामक विशाल राजधानी नगरी है। ऊँचे-ऊँचे प्रासादों वाली वह नगरी देवता के समान राजा के द्वारा बसायी गयी है।

सकरी से पश्चिम- वृद्धिग्राम- बढ़ियाम

प्रतीच्यां तु ततः भाव वृद्धिग्रामो बुधालयः।

कालिकाराधिता यत्र लोककल्याणकारिणी।।64।।

अरे बच्चा, इसके पश्चिम में विद्वानों का गाँव वृद्धिग्राम (बढ़ियाम गाँव) है, जहाँ पूजित होनेवाली कालिका देवी लोकों का कल्याण करती हैं।

वृद्धिग्राम के पश्चिम जीववत्सा नदी- जीबछ

तत्प्रतीच्यां जीववत्सा नदी पापहरा मता।

काकबन्ध्यापि जायेत पुत्रपौत्रान्विता शुभा।।65।।

इसके पश्चिम में जीववत्सा (जीबछ) नामक नदी है जो पापों को हरण करनेवाली मानी जाती है। काकबन्ध्या (पूर्व में पुत्रवती हो किन्तु बाद में बन्ध्या हो जाये) भी पुत्रों एवं पौत्रों से भर-पूरी हो जाये।

जीववत्सा के पश्चिम दर्भाङ्ग- दरभंगा

दर्भाङ्गः प्रान्तरस्तस्मात् प्रतीच्यां कमलातटे।

कुशाढ्यो गजपृष्ठाभः नदीभ्यां परिवारितः।।66।।

त्रेतायां कौशिको यत्र मिथिलागमने पुरा।

रात्रिमेकां व्यतीयाय दर्भान् विस्तीर्य यत्नतः।।67।।

रामलक्ष्मणयोः सार्द्धं प्रातःकर्म चाकरोत्।

तस्माद्दर्भमयो जातः दर्भाङ्गस्तेन कल्पितः।।68।।

इसके पश्चिम में दर्भाङ्ग (दरभंगा) नामक चौर है जो कमला के पश्चिम तट पर स्थित है। यह हाथी की पीठ के समान (बीच में ऊँचा तथा चारों ओर नीचा), नदियों से घिरा हुआ तथा कुशों से भरा हुआ है। जहाँ पर त्रेता युग में मिथिला गमन के क्रम में विश्वामित्र ने कुश बिछाकर राम और लक्ष्मण के साथ एक रात बितायी थी और प्रातःकाल का कृत्य सम्पन्न किया था। इसी कारण वह कुशों से भर गया और दर्भाङ्ग कहा जाने लगा।

दर्भाङ्ग से उत्तर- योगिवन, अहल्यापुरी- अहियारी, अहल्या की कथा

तस्मादुदीच्यां योगिवनं याज्ञवल्क्यस्य चाश्रमः।

तत्राहल्या पुरी नामा नगरी बहुपुण्यदा।।69।।

पुरासीद्गौतमो नाम तपस्वी विदुषां वरः।

अन्तेवासिभिः शिष्यैर्वृतो ज्ञानपिपासुभिः।।70।।

तस्याश्रमेति वितते परस्परविरोधिनः

वैरं विहाय निर्विण्णाः वसन्ति स्म पदे पदे।।71।।

दैत्यपुत्राश्च बटवो देवपुत्रैः सहान्विताः।

विद्याध्ययनसंसक्ताः गुरोश्च समदर्शिनः।।72।।

तस्माद्दैत्याश्च बहवो यान्ति चायान्ति सङ्गताः।

भयान् सर्वान् परित्यज्य तिष्ठतो मुनिशासने।।73।।

उन्मुक्तभावाः क्रीडन्ति जल्पन्ति स्म हसन्ति च।

परस्परं संददानाः दुःखानि च सुखानि च।।74।।

एतदाकर्ण्य सुरराडिन्द्रो मत्सरतां गतः।

दैत्यानां च सपत्नानां वार्तां श्रोतु मनो दधे।।75।।

तेषां वचांसि सर्वाणि दैत्यानां स्वगतानि च।

वृत्रहा प्रार्थयामास पश्चाच्छ्रावयितुं मुनिम्।।76।।

धिक्कारञ्च मुनेः श्रुत्वा कोपं चक्रे सुरेश्वरः।

छलञ्च कृतवान् येनाहल्या पाषाणतां गता।।77।।

इससे उत्तर में योगिवन है तथा याज्ञवल्क्य का आश्रम है। वहाँ अहल्यापुरी नामक नगरी हो जो बहुत पुण्य देनेवाली है। प्राचीन काल में गौतम नामक विद्वानों में श्रेष्ठ तथा तपस्वी, ज्ञान के प्यासे शिष्यों से घिरे हुए रहा करते थे। अत्यधिक फैले हुए उनके आश्रम में परस्पर विरोधी प्राणी भी वैरभाव भुलाकर शान्तिपूर्वक पग-पग पर रहा करते थे। अध्ययन करनेवाले दैत्यों के पुत्र भी देवपुत्रों के साथ समदर्शी गुरु के आश्रम में विद्याध्ययन में लगे थे। इसलिए बहुत सारे दैत्यगण भी मुनि के शासन में रहते हुए सभी प्रकार के भय को त्यागकर एक साथ आते-जाते रहते थे। उन्मुक्त भाव से वे खेलते, बातचीत करते, हँसते और आपस में सुख-दुःख बाँटते रहते थे। यह सुनकर इन्द्र को ईर्ष्या हुई और अपने विरोधी दैत्यों की बात सुनने की उसने ठानी। उन्होंने मुनि से विनती की कि वे दैत्यों के द्वारा एकान्त में कही गयी सारी बातें बाद में सुनावें। किन्तु मुनि के द्वारा धिक्कार भरी बातें सुनकर इन्द्र को क्रोध आ गया और उन्होंने छल किया, जिससे अहल्या पाषाणी हो गयी।

गौतमाश्रम एवं विश्वामित्राश्रम

गौतमस्याश्रमे     याम्ये    पातालोत्थितपायसि।

स्नात्वा कुण्डे नमेद् भक्त्या यजुःपाठफलं लभेत्।।78।।

विश्वामित्रस्तु पूर्वस्यां दिशि वासमकल्पयत्।

विश्वामित्राश्रमे प्राच्यामृग्वेदध्वनिनादिते।।79।।

तमुद्दिश्य नमेद् भक्त्या ऋक्पाठफलभाग् भवेत्।

वहाँ से दक्षिण में गौतम के आश्रम में पाताल से निकले जल में गौतम कुण्ड में स्नान कर भक्तिपूर्वक प्रणाम कर यजुर्वेद के पाठ का फल पावे। वहाँ से पूर्व दिशा में विश्वामित्र  वास किया था।  इस विश्वामित्र के आश्रम में पश्चिम में ऋग्वेद के ध्वनि से गुंजित विश्वामित्र के आश्रम में उनके प्रति भक्तिपूर्वक नमन कर तो ऋग्वेद के पाठ का फल पावे।

विभाण्डक आश्रम, याज्ञवल्क्य आश्रम

विभाण्डको महायोगी उपगौतमकोटजम्।।80।।

तत्र गत्वा नमेद् भक्त्या महासिद्धीश्वरो भवेत्।

याज्ञवल्क्याश्रमात् सौम्ये भग्नं तिष्ठति  तद्धनु।।81।।

तत्र गत्वा तदभ्यर्च्य  पापराशीन्   प्रणाशयेत्।

निवसत्युटजं कृत्वा वाल्मिकिस्तत्र पश्चिमे।।82।।

वाल्मिक्याश्रममागत्य स्नात्वा नद्योस्तु संगमे।

तमुद्दिश्य नमेद् भक्त्या सामपाठफलं लभेत्।।83।।

गौतम के आश्रम के पास विभाण्डक नामक महायोगी का आश्रम है वहाँ जाकर उन्हें जो भक्तिपूर्वक प्रणाम करे वह महान् सिद्धियों का स्वामी हो जाये। याज्ञवल्क्य के आश्रम से उत्तर दिशा में वह धनुष टूटा पडा है वहाँ जाकर उसकी पूजा कर पापों की ढेर का नाश करें। वहा पश्चिम में अपना आश्रम बनाकर वाल्मीकि रहते हैं। वाल्मीकि के आश्रम में आकर वहाँ नदियों के संगम पर स्नान कर उन्हें भक्तिपूर्वक जो प्रणाम करता है उसे सामवेद के पाठ का फल मिलता है।

दरभङ्गा से पश्चिम गोक्षुर तीर्थ- गायघाट, बेनीबाद

दर्भाङ्गात् पश्चिमे भागे योजनानन्तरे शुभम्।

वाग्वत्याः गोक्षुरं तीर्थं सर्वपापहरं कलौ।।84।।

मकरार्के तत्र मुनयो सर्वदेवाश्च सङ्गताः

निवसन्ति महापुण्ये तीर्थे चोष्मपास्तथा।।85।।

पुरा कृतयुगे कश्चिन्नृपो वैदेहकः खलु।

ईतिं प्रजासु प्रसृतां वीक्ष्य तेपे महातपः।।86।।

देवैः सम्प्रार्थिता तत्र कामधेनुरवातरत्।

तस्याः पयःसुधाधारा दुःखदारिद्र्यनाशिनी।।87।।

ईतिभीतिमपाकर्तुं प्रसृता सर्वतः पुरा।

तस्मात् गोक्षुरं तीर्थं प्रथितं भूमिमण्डले।।88।।

दर्भाङ्ग के पश्चिम में एक योजन पर कलियुग में सभी पापों का नाश करने वाला, वाग्वती का शुभ गोक्षुर तीर्थ है। मकर में सूर्य के रहने पर (माघ मास में) इस तीर्थ पर मुनिगण, सभी देवता तथा पितर एक साथ रहते हैं। प्राचीन काल में सत्ययुग में विदेह के किसी राजा ने प्रजाओं में आपदाओं के निवारण के लिए यहाँ तपस्या की थी। देवताओं के द्वारा विनती करने पर वहाँ कामधेनु उतरी थी। दुःख और दरिद्रता का नाश करनेवाली अमृत के समान उसकी दुग्धधारा विपदाओं और भय को दूर करने के लिए चारों ओर प्राचीन काल में फैली थी। इसलिए वहा गोक्षुर तीर्थ के मान से पृथ्वी पर विख्यात हुआ। (गाय घाट, जहाँ आज भी गोखुर के समान वागमती बहती है।)

गोक्षुर तीर्थ से पश्चिम चण्डिकास्थान

तस्मात्प्रतीच्यां वाग्वत्याः पुलिने चण्डिकास्थलम्।

शिवेनाराधिता देवी सौम्या मङ्गलकारिणी।।।89।।

इसके पश्चिम में वाग्वती के सटे किनारे पर भगवान् शिव के द्वारा आराधिता, सौम्यरूपा,मङ्गल करनेवाली चण्डिका देवी का स्थान है।

चण्डिकास्थान से पश्चिम सीताकुण्ड

प्रतीच्यां तु ततो रम्यं सीताकुण्डमथोच्यते।

पुरा जनकजा मार्गे स्नात्वा संपूज्य पार्वतीम्।।90।।

गता पतिगृहं सीता प्रथमेहनि शोभना।।

स्नानात् सरोवरे तस्मिन् वैधव्यं नोपजायते।।91।।

मोदते सा पुण्यवती पुत्रपौत्रादिभिर्वृता।

वहाँ से पश्चिम में सुन्दर सीताकुण्ड है। प्राचीन काल में प्रथम दिन मार्ग में वहाँ स्नानकर तथा पार्वती की पूजा कर सुन्दरी सीता ससुराल गयी। उस सरोवर में स्नान करने से कोई नारी विधवा नहीं होती। वह पुण्य वाली नारा पुत्र-पौत्रादि से धिरी हुई प्रसन्न रहती है।

देविका के तट पर ससुराल जाती सीता का द्वितीय रात्रि-विश्राम

ततः पश्चिमदिग्भागे देविकायास्तटे पुरा।।92।।

रात्रिमेकां व्यतीयाय रामो सीतया सह।

सीतामुद्वाह्य वैदेहीमयोध्यागमनोद्यतः।।93।।

दिव्यैर्महर्षिभिः सार्द्धं सर्वैश्च वरयात्रिभिः।

वहाँ से पश्चिम में देविका नदी के तट पर प्राचीन काल में विदेह की पुत्री सीता से विवाह कर दिव्यों, महर्षियों तथआ वारातियों के साथ अयोध्या जाते हुए श्रीराम ने सीता के साथ एक रात बितायी थी।

जेविका तट से पश्चिम महाकोट- केसरिया का बेनस्तूप

प्रतीच्यां तु ततो राज्ञो महाकोटो मनोहरः।।94।।

बेनस्य महतो लोके महोच्छ्रायो दिवं स्पृशन्।

दूरादेव नमस्कृत्यतत्र सिद्धिमवाप्नुयात्।।95।।

पुरा तत्र महाकोटे नृपो वेनः पदे पदे।

शम्भुमाराधयामास लिङ्गं निर्माय पार्थिवम्।।96।।

पद्भ्यां तत्स्पर्शदोषेण निःस्वो जायते जनः।

इससे पश्चिम में राजा वेन का विशाल प्रासाद है, जो बहुत ऊँचा है तथा आकाश को छूता हुआ-सा दीखता है। वहाँ दूर से ही उसे प्रणाम करने से सभी सिद्धियाँ मिलतीं हैं। प्राचीन काल में इस विशाल प्रासाद में राजा वेन ने पग-पग पर शिवलिंग का निर्माण कर पूजा की थी। पैर से उसके स्पर्श से मनुष्य निर्धन हो जाता है।

बेन प्रासाद से पश्चिम चम्पारण्य में शिव

तस्मादुदीच्यां गहने चम्पारण्ये सदाशिवः।।97।।

महागर्ते तपोलीनः सर्वानन्दकारकः।

इसके उत्तर में घनघोर चम्पारण्य नामक वन में सदाशिव विशाल गड्ढे में तपोलीन हैं और सबको आनन्दित करनेवाले हैं।

चम्पारण्य से पूर्व सीमाराम का चण्डिकास्थान, नान्य का दुर्ग- सिमरौनगढ़

सीमारामस्ततो प्राच्यां चण्डिकायाः स्थलं परम्।।98।।

तत्र देवीं समाराध्य दुर्गे नान्यो नृपो महान्।

विदेहाधिपतिर्भूत्वा पश्चात्स्वर्गं गतः कृती।।99।।

इसके पश्चिम में सीमाराम है जहाँ चण्डिका देवी का परम स्थल है। वहाँ महान् राजा नान्यदेव दुर्ग में उनकी आराधना कर विदेह के राजा बने तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग गये।

सिरौनगढ से उत्तर त्रिवेणी संगम

ततोऽप्युदीच्यां विमला कलिकल्मषहारिणी।

त्रिवेणी हिमवत्पादे तीर्थानामुत्तमोत्तमा।।100।।

वायव्ये मिथिलायां सा राजते मोक्षदा शुभा।।

वहाँ से उत्तर में हिमालय के पाद प्रदेश में, निर्मल, कलियुग के पापों का नाश करनेवाली त्रिवेणी उत्तम तीर्थों में उत्तम है। सुन्दर एवं मोक्ष प्रदान करने वाली वह मिथिला के वायव्य कोण में विराजमान है।

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1 Comment

  1. चंडिका के पश्चिम सीता सरोवर अभी अज्ञात है। इस सरोवर से पश्चिम पहला रात्रि विश्राम स्थल चकिया मेहसी लगता है जहाँ सीताकुण्ड है। जनकपुर से अयोध्या के 180 मील मे जनकपुर चंडिका चकिया 50 मील, चकिया केसरिया सिवान।हथुआ 55 मील है।इन दोनों स्थान पर सीता राम का पहला दो रात्रि विश्राम लगता है।

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