लोहिनी के पूर्व सरपत के जंगल में अनेक मन्दिर- विदेश्वर स्थान

लोहिन्याः पूर्वदिग्भागे नड्वले मठिका शुभा।

मन्दिराणि विचित्राणि दृश्यन्ते शोभनानि च।।101।।

लक्ष्मणायाः पूर्वतटे गहनं नड्वलं वनम्।

तत्र वीरेश्वरो शम्भुश्चतुर्वर्गफलप्रदः।।102।।

प्राच्यां ततो वनं घोरमगम्यं नड्वलं महत्।

लोहिनी के पूर्व भाग में नरकट के बीच एक सुन्दर मठिका है। वहाँ अनेक रँगे हुए सुन्दर मन्दिर दीखते हैं। लक्ष्मणा के पूर्व तट पर घना नरकट का जंगल है। वहाँ वीरेश्वर महादेव हैं, जो धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करते हैं। उससे भी पूर्व में नरकट का घना जंगल है जहाँ जाया नहीं जा सकता।

नरकट के जंगल से ईशान कोण में अलर्क की राजधानी- अंधराठाढी

तदैशान्यामलर्कस्य राजधानीं सुशोभनाम्।।103।।

कालेन निर्जनां वीक्ष्य नान्यो जेता पुरा युगे।

स्थापयामास कटकं ख्याता तस्मादियं पुरी।।104।।

कमलापतिं तथादित्यं स्थापयामास मन्दिरे।

बहबो मान्त्रिकास्तत्र निवसन्ति पदे पदे।।105।।

उसके ईशान कोण  अलर्क की सुन्दर राजधानी को बहुत दिनों के बाद निर्जन देखकर विजयी नान्यदेव ने प्राचीन काल में अपना शिविर स्थापित किया जिसके कारण यह नगरी प्रसिद्ध हुई। उन्होंने वहाँ कमलापति तथा सूर्य की स्थापना मन्दिर में की। यहाँ पग-पग पर अनेक मन्त्रसाधक रहते हैं।

अलर्क की राजधानी से एक योजन दक्षिण में मल्लदेव की राजधानी- भाठ भगवानपुर

योजनानन्तरे याम्ये कमलायास्तटे शुभे।

राजधानी सुरम्या हि मल्लदेवनृपस्य च।।106।।

तत्रादित्यो महातेजा लोककल्याणकारकः।

विष्णोश्च मन्दिरं तत्र स्थापितं शोभनं परम्।।107।।

तत्रानेके महात्मानो निवसन्ति पदे पदे।।

यहाँ से एक योजन पर दक्षिण दिशा में कमला के सुन्दर तट पर मल्लदेव नृप की सुन्दर राजधानी है। वहाँ महान् तेज वाले सूर्यदेव हैं साथ ही विष्णु का भी सुन्दर मन्दिर है। वहाँ पग-पग पर महात्मा निवास करते हैं।

मल्लदेव की राजधानी से दक्षिण में महिषी का तारापीठ

ततोऽपि दक्षिणस्यां हि नगरी महिषी शुभा।।108।।

प्रतिष्ठिता पुरा यज्ञे लोककल्याणकारके।

ततो गच्छ वणिक्छ्रेष्ठ तारापीठं महालयम्।।109।।

वहाँ से भी दक्षिण में महिषी नामक सुन्दर नगरी है, जो प्राचीन काल में किसी लोकहितकारी यज्ञ के समय स्थापित की गयी थी। इसलिए हे वणिक् श्रेष्ठ विशाल मन्दिर वाले इस तारापीठ में जाओ।

महिष्यां यत्र सा देवी ज्ञानविज्ञानदायिनी।

चीनाचारेण तत्रापि पूर्वोक्तविधिना जपेत्।।110।।

तत्रानेके महाभागाः गुरवश्च बहुश्रुताः।

पाठयन्ति बटून् विद्याश्चीनाचारविधायिकाः।।111।।

महिषी में वह देवी ज्ञान-विज्ञान देनेवाली हैं। वहाँ चीनाचार से पूर्व में कही गयी विधि से जप करना चाहिए। वहाँ अनेक महान् विद्वान् गुरु शिष्यों को चीनाचार की विधियाँ सिखाते हैं।

बहवो भोटदेशीयाः शिष्याश्च गुरवस्तथा।

देवीमाराध्य यत्नेन सिद्धि यान्ति परां भुवि।।112।।

एवं हि योगिनीयुक्तां वनमध्ये व्यवस्थिताम्।

उग्रतारां समाराध्य महासिद्धीश्वरो भवेत्।।113।।

तिब्बत देश के बहुत सारे शिष्य एऴं गुरु देवी की यत्नपूर्वक आराधना कर इस पृथ्वी पर परम सिद्धि प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वन के मध्य में स्थित योगिनी के साथ संयुक्त उग्रतारा की आराधना कर महासिद्धियों का स्वामी बनना चाहिए।

सार्द्धपंचाक्षरीं विद्यां जपेत् तत्र फलाप्तये।

शरत्काले विशेषण नवरात्रे फलप्रदा।।114।।

वहाँ फल पाने के लिए साढ़े पाँच अक्षरों वाली विद्या का जप करना चाहिए जो शरत्काल में नवरात्र में विशेष रूप से फलदायिनी होती है।

उत्पत्स्यति यदा कृष्णो यदूनां कीर्तिवर्द्धनः।

तदारभ्य नृणां लोके भविष्यति फलप्रदा।।115।।

तथैव कालिकादेवी फलदात्री मुहुर्मुहुः।

सिद्धिं यच्छति भक्तेभ्यो विशेषेण कलौ युगे।।116।।

यदुवंश की कीर्ति बढानेवाले श्रीकृष्ण जब उत्पन्न होंगे (अर्थात् द्वापर युग से) तबसे लेकर मनुष्य लोक में  वह देवी फल देनेवाली हैं। उसी प्रकार देवी काली बार बार फल देनेवाली हैं। विशेष रूप से  कलियुग में वह भक्तों को सिद्धि प्रदान करती हैं।

एवं राजेश्वरी दुर्गा चामुण्डा भद्रकालिका।

मंगला सिद्धिदा नित्या ललिता भुवनेश्वरी।।117।।

सिद्धिदा कामदा चण्डी साधकेभ्यो वरप्रदा।

नवरात्रौ विशेषेण शरत्काले कलौ युगे।।118।।

इस प्रकार कलियुग में विशेष रूप से शरत्काल में राजेश्वरी, दुर्गा, चामुण्डा, और भद्रकालिका, ललिता एवं भुवनेश्वरी हमेशा सिद्धि देनेवाली एवं मंगल करनेवाली हैं। विशेष रूप से शरत्काल की वनरात्रि में चण्डी साधकों को सिद्धि, वर देनेवाली और सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करनेवाली हैं।

महिषी के पास कर्णह्रद- कन्दाहा का सूर्य मन्दिर

तत्र कर्णह्रदः पुण्यः सूर्यकुण्डोतिनिर्मलः।

अङ्गराजेन कर्णेन खानितो बहुपुण्यदः।।119।।

स्नात्वा तस्मिन् जले भक्त्या कुष्ठी भवति निर्मलः।

कार्तिके सूर्यमाराध्य सर्वान् कामानवाप्स्यसि।।120।।

वहाँ पर पुण्य देनेवाला कर्णह्रद है, जो अत्यन्त निर्मल सूर्यकुण्ड है। यह अंगराज कर्ण के द्वारा खुदबाया गया था। उसके जल  में भक्तिपूर्वक स्नान करने से कुष्ठ रोग से पीडित व्यक्ति भी निर्मल हो जाता है। हे सुधामा,  कार्तिक मास में सूर्य की आराधना कर सभी प्रकार की इच्छित वस्तु प्राप्त करता है।

कर्णह्रद से उत्तर विराट की नगरी- विराटनगर

तस्मादुत्तरस्यां वै विराटस्य पुरी शुभा।

पाण्डवा यत्र शरणं लेभिरे द्वापरे युगे।।121।।

युधिष्ठिरश्च तत्रैव दुर्गामाराध्य यत्नतः।

महाहवे जयं लेभे कृष्णेनानुशासितः।।122।।

इसके उत्तर में राजा विराट की पुण्यमयी नगरी है, जहाँ द्वापर युग में पाण्डव आश्रय प्राप्त किये थे। वहीं पर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के कहने पर दुर्गा की आराधना की थी, जिससे वे बड़े युद्ध में विजयी हुए।

शृंगेश्वर महादेव- सिंहेश्वर स्थान

ततः शृङ्गेश्वरो देवः पूज्यः सर्वकामदः।

विष्णुना स्थापितो यत्र मृगरूपधरस्य हि।।123।।

शिवस्य शृङ्गः स्वर्णाभः महारण्ये कृते युगे।

त्रेतायां तपस्तेपे ऋष्यशृङ्गो निजाश्रमे।।124।।

वहाँ शृंगेश्वर देव पूजनीय हैं। वहाँ विशाल वन में सत्ययुग में मृगरूप धारण किये हुए शिव के सींग, जो सोने के समान चमकीला था, की स्थापना विष्णु के द्वारा की गयी थी। वहीं पर त्रेता में अपने आश्रम में ऋष्यशृंग ने तपस्या की थी।

सिंहेश्वर से पश्चिम लौटने पर कुशेश्वर स्थान एवं तिलकेश्वर तथा उसी रास्ते पाण्डुग्राम लौटना

प्रतीचीनं परावृत्य नत्वा शम्भुं कुशेश्वरम्।

तिलकेश्वरञ्च तत्रैव पाण्डुग्राममवाप्स्यसि।।125।।

हे सुधामा, वहाँ से पश्चिम दिशा की ओर चलकर तुम कुशेश्वर शिव को प्रणाम कर तिलकेश्वर को भी प्रणाम कर पाण्डुग्राम पहुँचोगे।

कुशेश्वर इति ख्यातं यल्लिंगं सर्वकामदम्।

गंगाम्भसा वा पयसा यजतां कामदोस्म्यहम्।।126।।

कुशेन ऋषिणा यस्मात् स्थापितः पृथिवीतले।

तस्मात् कुशेश्वर इति भुक्तिमुक्तिसमृद्धिकृत्।।127।।

शिवरात्रौ विशेषेण यो तं तत्र समर्चयेत्।

बिल्वपत्रसहस्रेण भवेदक्षीणवंशकः।।128।।

कुशेश्वर नामक जो प्रसिद्ध लिंग है, वह सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है। भगवान् शिव कहते हैं कि गंगा के जल से अथवा दूध से जो मेरी पूजा करता है, उनकी कामनाओं को मैं पूर्ण करता हूँ। कुश नामक ऋषि ने पृथ्वी पर इनकी स्थापना की थी, इसलिए इनका कुशेश्वर नाम विख्यात है, जो भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं। विशेष रूप से शिवरात्रि में जो एक हजार बिल्वपत्र से वहाँ मेरी अर्चना करते हैं उनके वंश का कभी नाश नहीं होता है।

तिलकेश्वर से पाण्डुग्राम के बीच नदियाँ

मार्गे पुण्यवत्यो हि नद्यः सन्ति पदे पदे।

कमला वाग्वती चैव जीववत्सा च पुण्यदाः।।129।।

गण्डकी च नदीश्रेष्ठा सर्वपापक्षयावहाः।

कमलायास्तथानेकाः धाराश्चात्र शुभा मताः।

विष्णुप्रियाः वेगवत्यो धन-धान्यादिदायिकाः।।130।।

मार्ग में पग-पग पर पुण्यवती नदियाँ हैं- कमला वागमती, एवं जीववत्सा (जीबछ)। गण्डकी भी नदियों में श्रेष्ठ है, जिससे सभी पापों का नाश होता है। इसके अतिरिक्त कमला की अनेक विष्णु की प्रिय धाराएँ हैं, जो शुभ हैं तथा धन-धान्य आदि देनेवाली हैं।

शृङ्गेश्वरो महारण्ये गर्ते च कौशिकेश्वरः।

तिलकेशस्तु तद्याम्ये कौवेरे कन्यकेश्वरः।। 131।।

शृंगेश्वर विशाल वन में हैं, कौशिकेश्वर (कुशेश्वर) गर्त में हैं, उसके दक्षिण में तिलकेश (तिलकेश्वर) हैं तथा उत्तर में कन्यकेश्वर (लोहना ग्राम के वर्णन क्रम में कन्यकेश्वर) हैं।

कालिदास का जन्मस्थल- उच्चैठ आदि स्थल

कपिलेनाराधितो नित्यं शंकरो कपिलेश्वरः।

उच्चपीठे महाकाली मिहिलायां प्रतिष्ठिता।।132।।

कालिदासो यत्र पुरा जन्म लेभे महामतिः।

तत्र पीठे गुरुकुले पठन् वाग्मी बभूव ह।।133।।

कपिल मुनि के द्वारा आराधित शाश्वत शिव कपिलेश्वर हैं। मिहिला में उच्चपीठ पर महाकाली शोभित हैं, जहाँ कालिदास का जन्म हुआ है तथा उस पीठ पर गुरुकुल में अध्ययन कर वे विद्वान् हुए।

यहाँ पर आकर उपलब्ध अंश खण्डित हो जाता है। इस अंश में हम लोहिनी पीठ अर्थात् लोहना को प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में सभी प्रकार की सुविधाओं से सम्पन्न पाते हैं। चूँकि यात्री एक व्यापारी है इसलिए उसे मिथिला तीर्थयात्रा में ऐसे स्थल पर रहने के लिए कहा गया है, जो व्यापारिक केन्द्र होने के साथ-साथ आध्यात्मिक केन्द्र भी हो। इस प्रकार यह अनुमार लगाया जा सकता है कि जिस समय अमरावती नदी के दोनों तटों पर विशाल नगर तथा बाजार था, उस समय लोहना ग्राम में लोहिनी पीठ अपने चरम उत्कर्ष पर रहा होगा।

इस प्रकार इस अंश से हम मिथिला के तीर्थस्थलों की एक झलक पाते हैं।

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1 Comment

  1. चंडिका के पश्चिम सीता सरोवर अभी अज्ञात है। इस सरोवर से पश्चिम पहला रात्रि विश्राम स्थल चकिया मेहसी लगता है जहाँ सीताकुण्ड है। जनकपुर से अयोध्या के 180 मील मे जनकपुर चंडिका चकिया 50 मील, चकिया केसरिया सिवान।हथुआ 55 मील है।इन दोनों स्थान पर सीता राम का पहला दो रात्रि विश्राम लगता है।

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