लेखिका – श्रीमती रंजू मिश्रा
द्वारा, श्री बी.के. झा, प्लॉट सं. 270, महामना पुरी कालोनी, बी.एच. यू., वाराणसी
धर्मायण, महावीर मन्दिर, पटना, 2022ई. अंक संख्या 125, पृ. 62-70
सम्पादक पं. भवनाथ झा की टिप्पणी :
सामा-चकेबा मिथिला का लोकपर्व है। इसकी मूल-कथा कृष्ण, उनकी पुत्री साम्बा, पुत्र साम्ब, उनका एक गुप्तचर चूड़क, उनका क्रीडा-स्थल वृन्दावन तथा उसमें वास कर रहे पक्षियों के संसार के चारों ओर घूमती है। जब हम इसकी कथा तथा लोकपरम्परा के बीच तालमेल बैठाने का प्रयास करते हैं तो पक्षियों के संसार में मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत समायोजन इस लोकपर्व में पाते हैं। इसका अंतिम संदेश है- पक्षियों के संसार में भी मानवीय भावनाएँ हैं, वहाँ भी बेटियों की बिदाई होती है! यह लोकपर्व हमें पक्षियों के संरक्षण की भावना उत्पन्न करने में पूरी तरह से समर्थ है। चकबा और चकई के वियोग शृंगार से तो पूरा भारतीय साहित्य भरा-पड़ा है। पर, यहाँ सतभैंया, डाहुक, मोर, गौरैया, मैना, सुग्गा सबकी भूमिका है।मिथिला के लोकपर्व सामा-चकेबा की कथा को पक्षी संरक्षण की पृष्ठभूमि में व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। लोक-संस्कृति-विमर्श की व्याख्यात्री श्रीमती रंजू मिश्रा का यह आलेख इस आवश्यकता को पूर्ण करता है।
मूल आलेख-
कार्तिक पूर्णिमा की रात को मनाए जानेवाला सामा का त्योहार एक ऐसा लोकमान्य उत्सव है, जिसमें सम्पूर्ण जीवन-यात्रा का लोकभाव, व्यवहारिकता के साथ समाहित है। भाई-बहन के बीच परस्पर स्नेह और त्याग की भावना को समर्पित, मिथिला का यह एक अनुपम त्योहार है। सामा का त्योहार स्थापित क्षेत्रीय विधि-विधान के साथ ही जीवन-दर्शन को भी सहजता से प्रतिबिंबित करता है। इसमे आस्था के साथ ही रंजकता, रचनात्मकता, लालित्य, गीत, हास परिहास के संग परिवार समाज की मूल अवधारणा, सम्बन्ध के बीच स्नेह, समर्पण और त्याग की भावना निहित है।
इस त्योहार का आरंभ भातृ-द्वितीया के शुभयोग में मिट्टी छूने (आकृतियाँ बनाने का आरम्भ करना) के साथ ही शुरु होता है। किसी धार्मिक अनुष्ठान के आरंभ के समय जो कुलाचार के गीत होते हैं, उसी को गाते हुए, सबसे पहले श्री की आकृति में ‘श्री-सामा’ बनती हैं। जो छः की संख्या का एक ईकाई होता है। इसका आकृति कुछ-कुछ स्वस्तिकाकार होता है।
चिकनी मिट्टी को अच्छे से गूँथकर उससे पक्षी-तथा मनुष्य की आकृतियाँ सामा-चकेवा के रूप में बनाई जाती हैं। साथ ही, सामा की कथा से सन्दर्भित सभी पात्र, अनेक प्रकार का पक्षी, लोक जीवन में सहगामी जीवजंतु की आकृति भी बनता है, जैसे सतभैंयां, बाटो-बहिनो, झांझी कुकुर, ढोलकिया, लड्डू वाली, भंवरा इत्यादि। साथ ही काश से झाड़ूनुमा वृंदावन और सनपटुआ से चुगला का केश और उसी के डंठल के अग्रभाग को मिट्टी से ही उसका मुखड़ा बनता है।
ये सब आकृतियाँ पर्याप्त मात्रा में बनायी जाती हैं, ताकि सभी बहनों के डाले में सभी प्रकार की एक सामा पूर्ण हो जाए, जिसे “संपूर्ण डाला” कहा जाता है। दूसरी अपेक्षा यह भी रहती है कि शुभकामना के लिए बाएन (दूसरे के घर संदेश के रूप में) भेजने में भी कोई कमी ना हो। दस-बारह दिनों तक बनने के क्रम मे ही रात्रि को सभी महिलाऐं, गीत नाद के साथ टोले के किसी चौबटिया पर जमा होती हैं, सामा को दूब-धान से चुमाकर ओस चटाने। वहाँ भी घंटों गीत नाद होता रहता है। देवोत्थान की रात मे इन सभी आकृतियों को पीठार से (पीसे कच्चे चावल के घोल) पोत दिया जाता है फिर उसे रंगों से भरा जाता है।मिथिला की महिलाएं तो लिखिया कला (पेंटिंग) में दक्ष होती ही हैं। अपनी संपूर्ण रंगकला से सजा देती हैं इन आकृतियों को, जो देखने में मन को मोह लेता है।
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सामा चकेवा पर विदुषी रंजू मिश्रा का आलेख मन को सहज ही बाल्यपन में ले गया जब हम अपने परिवार के बहिनों को सामा खेलते देखते थे।
मिथिला में सामा चकेवा के रूप में भाई-बहन का स्नेह, संगी-साथियों संग सहभागिता तथा भाभियों के साथ मधुर छींटाकसी देखने को मिला करता था।
लेखिका ने पूरे परंपरा को बहुत ही सटीक विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किया जिसमे तथ्य भी है तथा गायन का उत्कृष्ट नमूना भी है।
लेखिका को कोटिशः धन्यवाद विलुप्त होती परंपरा को पुनः जीवित करने हेतु।