वैताल साधना सीखने के लिए बौद्धों को पूछें।

हर आदमी चाहता है कि वह इतना शक्तिशाली बन जाये ताकि वह जो चाहे, उसे मिले। यही प्रवृत्ति इसे पतन के गर्त तक ले जाती है। इसीके लिए तंत्र-मंत्र, जादू-टोना सब काम करने पर वह उतारू हो जाता है।

वह इस दुनियाँ में भटकने से पहले यह नहीं सोचता है कि विना परिश्रम किये कुछ मिलने वाला नहीं है। ये कार्य केवल हमें बरबादी की ओर ले जाते हैं।

वैताल साधना का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। बौद्ध महायान के ग्रन्थ में तो इसकी पूरी साधना विधि दी गयी है। इस वैताल को सिद्ध कर लेने पर वह क्या-क्या कर सकता है, इसका भी उल्लेख मिलता है।

यह बौद्धों की साधना है, पर बदनाम किया गया है, सनातन परम्परा का तन्त्रशास्त्र। लोग बौद्ध-साधना का नाम लेते श्रद्धा से झुक जाते हैं, पर ज्यों ही तंत्र का नाम लें, नाक-भोंह सिकोड़ने लगेंगे।

करे कोई और भुगते कोई, यही है न्याय।

मैं आपको दिखाता हूँ कि बौद्ध लोग कैसे वैताल साधते थे!

आर्यमंजुश्रीग्रन्थ जिसका रचना 750 ई. के लगभग में हुई थी, उसके 26वें पटल में वैताल साधना की दो विधियाँ दी गयी हैं।

वैताल-साधना
<<<पुस्तक में देखें>>>

यह बहुत पुरानी प्रकाशन की पुस्तक है। इस ग्रन्थ का सम्पादन टी. गणपति शास्त्री ने अनन्तशयन ग्रन्थावली से किया था। कई अक्षर घिस गये हैं तो मैं आपको इसका सही पाठ पढा देता हूँ-

पहली विधि

अथ वैताडं साधयति। अक्षताङ्गं पुरुषं गृहीत्वा, चतुस्खदिर कीलकैर्यन्त्रितस्योरस्युपविश्य, रत्नचूर्णं जुहुयात्। तस्य जिह्वाग्रे चिन्तामणिरत्नं दृश्यते। तं गृह्य विद्याधरचक्रवर्ती भवति यानि प्रहरणानि चिन्तयति, तानि मनसैवोपपद्यन्ते। योजनशतं प्रभयावभासति, इच्छया कालं करोति। यत्रेच्छति, तत्र गच्छति। लोकधात्वन्तरेऽपि विद्याधरचक्रवर्ती भवति। च्युतो विमलायां लोकधातावुपपद्यन्ते।

संस्कृत भाषा आपको अटपटी लग रही होगी। पाणिनि व्याकरण के नियम यहाँ नहीं चलते। जो मन में आया लिख दिया।दूसरे आदमी को अर्थ लग गया, बस आपना काम इतना ही। मुझे अर्थ लग गया है तो आपको बता देता हूँ।

पहली विधि में कहा गया है कि जिस पुरुष की लाश में कोई कटा-फटा न हो उसे लावें। खैर की लकड़ी से बने चार कीलों से इस लाश के दोनों हाथ और दोनों पैर जकड़ दें। फिर उसकी छाती पर बैठकर रत्न के पाउडर से हवन करें। मन्त्र भी कहीं ऊपर कहा गया होगा। हवन करने के बाद उस लाश की जिह्वा के अगले भाग पर आपको एक रत्न मिलेगा। वह चिन्तामणि रत्न कहलाता है। उसे अपने पास रखकर विद्याधरों के राजा बन जावें। जो हथियार आप मन में लावेंगे, वह सामने आ जायेगा। उस व्यक्ति का तेज इतना होगा कि सौ योजन तक उसकी चमक जायेगी। समय आपकी मुट्ठी में होगा। इस धातु यानी इस शरीर को त्यागने के बाद भी विद्याधरों के चक्रवर्ती आप बने रहेंगे। वहाँ से फिर इस संसार में जन्म लेने पर वह फिर आपके साथ बना रहेगा, यानी जन्म-जन्मान्तर तक इस रत्न के प्रभाव से आप विद्याधरों के चक्रवर्ती बने रहेंगे।

यह भी एक बौद्ध-साधना थी!

दूसरी विधि

यदि आपके पास रत्न का पाउडर नहीं हैं तो घबराइए नहीं। बौद्धों ने आपके लिए दूसरी विधि भी तैयार कर रखी है। आगे दूसरी विधि में भी विना कटे-फटे अंगों वाला लाश तो तो लाना ही होगा। पर उसे बेर के कील से वैसे ही दोनों हाथों और पैड़ो को बाँधना होगा। उसके मुँह में लोहे के चूर्ण से हवन करें। लोहा का चूर्ण मिलना तो आसान है, सस्ता है। इससे हवन पूरा हो जाने पर उस लाथ की जीभ निकल आयेगी। उसे काट कर अपने पास रख लें। सौ लोगों को साथ लेकर आकाश मार्गसे आप उड़ सकते हैं। कल्प के अंतर में भी आपको कोई मार नहीं सकता। दूसरे कल्प में भी आप जीवित रहेंगे। देवता जिस सुमेरु पर रहते हैं वहाँ खेल-कूद कर सकते हैं, स्त्रियों के साथ जो मन हो कर सकते हैं। जब मृत्यु होगी तब आप एक स्थान के राजा होंगे-

द्वितीयं वैतालसाधनम्। अक्षताङ्गं वेतडं गृहीत्वा, बदरकीलकै कीलयित्वा, तस्य मुखे लोहचूर्णं जुहुयात्। तस्य जिह्वा निर्गच्छति। तं छित्वा शतपरिवार उत्पतति। अन्तरकल्प जीवति। सुमेरुमूर्द्धनि क्रीडति, रमति। यदा मृयते, तदा एकदेशिको राजा भवति।

यह है बौद्धों की साधना। घृणा होती है यह सब पढ़कर, सुनकर!

पर तकलीफ तो तब होती है, जब बदनाम होता है- सनातन धर्म।

आठवीं शती की पुस्तक खोलकर मैंने दिखा दी। उससे पहले ऐसी साधना का वर्णन कोई सनातन ग्रन्थों में दिखा दें! यदि नहीं है तो आज से बौद्धों की करनी का ठीकरा सनातनियों के माथे पर फोड़ना बंद करें।

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