आस्थावान् लोग तो किसी भी पत्थर के टुकड़े को शिवलिंग मानकर जल-फूल चढा देते हैं, पर सच्चाई यह है कि शिवलिंग बनाने की विधि शास्त्रों में दी गयी है। उसकी लंबाई, चौड़ाई, मोटाई तथा अन्य चिह्नों के सम्बन्ध में पूरी व्यवस्था दी गयी है। अतः हम किसी भी शंकुनुमा या गोल स्तम्भ के आकार के पत्थर को शिवलिंग नहीं कह सकते हैं।

इतना ही नहीं, शिवलिंग की लंबाई को मापकर उसका काल निर्धारित भी किया जाता है।

शिवलिंग की मूल संकल्पना में दिव्य-ज्योति का एक स्तम्भ है। इस स्तम्भ के रूप में भगवान् शिव प्रकट हुए थे। चूँकि भगवान् शिव का स्वरूप इतना व्यापक है कि संसारी मनुष्य यह जान नहीं पाते थे कि इनकी  आराधना किस रूप में की जाये। ऐसे सांसारी मनुष्य पर कृपा कर भगवान् शिव ने स्वयं को एक दिव्य ज्योति के स्तम्भ के रूप में प्रकट किया। कालान्तर में इसी रूप में उनकी पूजा होने लगी। इसे शिवलिंग कहा गया।

स्वरूप की दृष्टिसे शिवलिंग के भाग           

शिवलिंग में तीन भाग होते हैं- ब्रह्म भाग, विष्णु भाग तथा शिव भाग।

इनमें ब्रह्मभाग (या ब्रह्ममेखला) सबसे नीचे होता है तथा वह चौकोर रहता है।

इसके ऊपर अष्टकोणीय आकृति होती है, जो विष्णुभाग कहलाता  है।

सबसे ऊपर का भाग गोल होता है, जो शिवभाग कहलाता है। शिव के रूप में इसी भाग की पूजा होती है।

गुप्तकाल तक के शिवलिंग में हम इन तानों भागों को स्पष्ट रूप से पाते हैं। विष्णु भाग के ऊपर एक गोल घोरा बना हुआ होता है, जो अरघा का स्थान होता है। इस प्रकार अरघा से ऊपर केवल गोल शिवभाग रहता है तथा शेष तीनों भाग स्थापना के समय धरती में अंदर डाल दिये जाते हैं।

गुप्तकाल में इन तीनों भागों की लंबाई लगभग समान रही है। यदि कही  भेद मिलता भी है तो बहुत कम का अंतर रखा गया है। इस काल के शिवलिंग-निर्माण की प्रचलित विधि वराहमिहिर में बृहत्संहिता में इस प्रकार लिखी है-

लिङ्गस्य वृत्तपरिधिं दैर्घ्येणासूत्र्य तत् त्रिधा विभजेत्।

मूले तच्चतुरस्रं मध्ये त्वष्टाश्रि वृत्तमतः।।53।।

अर्थात् लिंग के वृत्त रूप परिधि को लम्बाई में सूत्र से नाप कर उस सूत्र के तीन भाग करना चाहिए। और उन भागों के बराबर लिंग के भी तीन भाग करना चाहिए। मूल भाग चौकोर, बीच का भाग अष्टकोणीय तथा ऊपर का भाग गोल बनाबें।

चतुरस्रमवनिखाते मध्यं कार्यं तु पिण्डिकाश्वभ्रे।

दृश्योच्छ्रायेण समा समन्ततः पिण्डिका श्वभ्रात्।।54।।

लिंग के चौकोर भाग को भूमि में गाड़ देना चाहिए, मध्यभाग के बराबर स्थान में पिण्ड अर्थात् अर्घा का निर्माण करना चाहिए। शेष गोल भाग ऊपर रखें। ऊपर गोल भाग की जितनी लंबाई हो उतनी त्रिज्या वाले गोलाकर अर्घा बनाबें।

वराहमिहिर ने जो विधि दी है उसका पालन सभी गुप्तकाल तक के लगभग सभी लिंगों में किया गया है।

बादमे चलकर ब्रह्ममेखला तथा शिवमेखला की लंबाई घटती गयी है।

लगभग 9वीं शती के बाद से तो अर्घा शिवलिंग के साथ ही जुडा हुआ बनने लगा है, जिसमे ब्रह्ममेखला बिल्कुल विलुप्त हो गयी है। वराहमिहिर ने जहाँ केवल विष्णु-मेखला के बराबर अर्घा बनाने का निर्देश दिया है वहाँ बाद में ब्रह्ममेखला भी इसी के अंदर डाल दिये गये हैं।

इस प्रकार, वास्तविकता है कि शिवलिंग के निर्माण की विधि का भी एक शास्त्र है। अतः हम जिस-किसी भी स्तम्भ को शिवलिंग नहीं कह सकते हैं।

जब प्राचीन शिवलिंग कहीं पर खुदाई में मिलती है तो पुरातत्त्ववेत्ता उसकी लंबाई, तीनों भागों की लंबाई तथा मोटाई मापकर ही निर्णय लेते हैं कि यह शिवलिंग है अथवा अन्य प्रकार का स्तम्भ मात्र है।

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