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Home›लोक-वेद›विपरीत परिस्थिति में श्राद्ध की शास्त्र-सम्मत विधि

विपरीत परिस्थिति में श्राद्ध की शास्त्र-सम्मत विधि

By Bhavanath Jha
May 12, 2021
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श्राद्ध-कर्म

आज महामारी की परिस्थिति में, न तो कर्मकाण्ड करानेवाले ब्राह्मण मिल पाते हैं, न ही सामग्रियाँ जुटाने में हम समर्थ हैं। पूरा का पूरा परिवार अस्वस्थ है, इधर श्राद्ध उपस्थित है, ऐसी परिस्थिति के लिए विष्णुपुराण (3-14-21&30) का यह निर्देश सामयिक है। यहाँ श्राद्ध के सात विकल्प दिये गये हैं, जो क्रमशः धन का अभाव या विषम परिस्थिति को देखते हुए विधान किये गये हैं। यहाँ निश्चित रूप से पहला कल्प ( Option) सर्वश्रेष्ठ है। सामान्य परिस्थिति में ऐसा ही श्राद्ध होना चाहिए, इसमें दो राय नहीं। लेकिन परिस्थिति यदि विकराल होती जा रही है, तो वैसी स्थिति के लिए क्रमिक संक्षिप्त करते हुए श्राद्धकर्म नियत दिन में अवश्य कर लेना चाहिए। इसमें एक बात का यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यदि आप तीसरा कल्प कर सकते हैं तो कदापि चौथे कल्प नहीं करना चाहिए। अपनी स्थिति के मूल्यांकन में हमें ईमानदार रहना होगा।

यह सनातन धर्म की विशेषता है कि इसमें सभी विपरीय परिस्थितियों को देखकर विधान किये गये हैं। यहाँ विष्णु-पुराण से उन दस श्लोकों को उद्धृत किया जाता है, जिनमें यह उल्लेख है कि श्राद्ध किन-किन रूपों में किया जा सकता है। यहाँ श्राद्ध के सात विकल्पों का उल्लेख हुआ है।

पितृगीतांस्तथैवात्र श्लोकास्तांश्च शृणुष्व मे।
श्रुत्वा तथैव भवता भाव्यं तत्रदृतात्मना।।21।।

पितरों के द्वारा कही गयी पितृगीता के श्लोकों को मुझसे सुनें और सुनकर आदरपूर्वक इसी प्रकार का आचरण करें।।21।।

प्रथम कल्प

अपि धन्यः कुले जायेदस्माकं मतिमान्नरः।
अकुर्वत् वित्तशाठ्यो यः पिण्डान्नो निर्वपिष्यति।।22।।

क्या हमलोंगों के कुल में ऐसा विचारवाला धान्य व्यक्ति उत्पन्न होगा जो धन का घमण्ड न करता हुआ हमें पिण्ड देगा?।।22।।

रत्नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु।
विभवे सति विप्रेभ्यो योऽस्मानुद्दिश्य दास्यति।।23।।

सामर्थ्य होने पर हमें लक्ष्य कर ब्राह्मणों को रत्न, वस्त्र, विशाल वाहन, सभी प्रकार की भोग्य सामग्रियों का दान करेगा?।।23।।

द्वितीय कल्प

अन्नेन वा यथाशक्त्या कालेऽस्मिन् भक्तिनम्रधीः।
भोजयिष्यति विप्राग्र्याँस्तन्मात्रविभवो नरः।।24।।

अथवा इस समय (श्राद्ध के समय) भक्ति से नम्र बुद्धि वाला अपने सामर्थ्य के अनुसार उतना ही विभव वाला व्यक्ति अन्न से ब्राह्मणश्रेष्ठों को भोजन करायेगा।24।

तृतीय कल्प

असमर्थोन्नदानस्य धान्यमात्रं स्वशक्तितः।
प्रदास्यति द्रिजाग्रेभ्यः स्वल्पाल्पां वापि दक्षिणाम्।25।।

अन्नदान करने में भी यदि वह समर्थ नहीं है तो अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणश्रेष्ठों को केवल धान दान करेगा, साथ ही, थोड़ी ही सही, दक्षिणा भी देगा।25।

चतुर्थ कल्प

तत्राप्यसामर्थ्ययुतः कराग्राग्रस्थितांस्तिलान्।
प्रणम्य द्विजमुख्याय कस्मैचिद् भूप! दास्यति।।26।।

हे राजन्, यदि इतना भी सामर्थ्य न हो तो उंगलि के अगले भाग से तिल (एक चुटकी भर तिल) उठाकर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को देगा।26।

पंचम कल्प

तिलैः सप्ताष्टभिर्वापि समवेतं जलाञ्जलिम्।
भक्तिनम्रः समुद्दिश्य भुव्यस्माकं प्रदास्यति।।27।।

अथवा सात या आठ तिल से युक्त जल अंजलि में लेकर भक्ति से नम्र होकर हमें लक्ष्य कर धरती पर देगा।27।

षष्ठ कल्प

यतः कुतश्चित् सम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवाह्निकम्।
अभावे प्रीणयन्नस्माञ्छ्रद्धायुक्तः प्रदास्यति ।।28।।

अथवा इसके अभाव में भी जहाँ कहीं से भी गाय के एक दिन का भोजन संग्रह कर हमें प्रसन्न करते हुए श्रद्धा के साथ गाय को अर्पित करेगा।28।

सप्तम कल्प

सर्वाभावे वनं गत्वा कक्षमूलप्रदर्शकः।
सूर्यादिलोकपालानामिदमुच्चैर्वदिष्यति।।29।।
न मेऽस्ति वित्तं न धनं न चान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य।।30।।

कुछ भी नहीं रहने पर वन जाकर अपनी काँख दिखाते हुए अर्थात् दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्य आदि लोकपालों के प्रति जोर से यह कहेगा-

“मेरे पास न तो सम्पत्ति है, न अन्न है न ही श्राद्ध के लिए उपयोगी अन्य वस्तुएँ हैं। मैं अपने पितरों के प्रति नतमस्तक हूँ। मेरी इस भक्ति से मेरे पितर तृप्त हों, मैंने वायु के रास्ते अपने दोनो हाथ ऊपर उठा लिए हैं।।”29-30।

इत्येतत् पितृभिर्गीतं भावाभावप्रयोजनम्।
यः करोति कृतं तेन श्राद्धं भवति पार्थिव।।31।।

हे राजन्, इस प्रकार, सामर्थ्य एवं अभाव दोनों बातें कहनेवाली पितरों की इस वाणी के अनुसार जो कर्म करते हैं उनके द्वारा श्राद्ध सम्पन्न माना जाता है।31।।

यही अंश वाराहपुराण में भी 13-51 से 13-61 तक अविकल उद्धृत है। यहाँ उल्लेखनीय है कि जो आर्थिक रूप से समर्थ हैं, वे दान-दक्षिणा में जो दें, उसकी कोई सीमा नहीं है। किन्तु जो सम्पन्न नहीं हैं, गरीब हैं, उनके लिए यह विधान है कि एक मुट्ठी तिल देने से या कुछ तिलों के साथ जलांजलि देने से भी काम चल जायेगा। इसमें यह विधान भी है कि एक गाय को एक दिन चारा खिलायेगा, उससे भी पितर प्रसन्न रहेंगे। कुछ भी नहीं है तो वन जाकर अपने हाथ उठाकर 20वें श्लोक में जो भाव है उसको प्रस्तुत कर श्राद्ध सम्पन्न कर लेगा। अतः अनुरोध है कि धन के अभाव में अथवा विपरीत परिस्थिति में अपने परिवार को बचाते हुए उपर्युक्त विधियों में से अपनी ईमानदारी से एक विधि अपनाकर श्राद्ध-कर्म सम्पन्न करें।

यहाँ जिस प्रकार विकल्प दिये गये हैं, उनके अवलोकन से पता चलता है कि महामारी आदि विपरीत परिस्थितियों का भी यहाँ संकेत है। मान लीजिए, युद्धकाल में किसी व्यक्ति के घर के सारे सदस्य मारे गये हैं, एक व्यक्ति अकेला अपनी जान बचाने के लिए वन में भाग रहा है, वैसी भी परिस्थिति में वह अंतिम विकल्प को अपनाकर नियत समय पर पितरों का श्राद्ध कर सकता है।

Tagsश्राद्धकर्म
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