(यह मेरी पहली हिन्दी कविता है, जो 1982ई. के लगभग में लिखी गयी थी, जब मैं केवल 14 वर्ष की था।)
वह कदंब का वृक्ष आज
प्यासा खड़ा है
घूरता है पंथियों को
छेड़ दे, कोई मधुर संगीत ही,
स्पर्श से पुलकित करा दे टहनियों को,
ताकि उसकी चटकती-सी टहनियों पर,
कोपलें उग आए कोमल और सुन्दर।
ताकि सूने आसमाँ में उड़ रही मासूम पंछी,
बैठकर कोई मधुर आलाप कर ले।
किन्तु,
उसकी चटकती-सी हड्डियों पर,
गिद्ध बैठे खोजते हैं लाश को।
गगनभेदी नाद सुनकर शस्त्र के
गिर रही नन्हीं सलोनी पंछियों को।
आज भी,
राधा वहीं पर घूमती है,
आज भी अपने किसन को खोजती है,
तोड़कर पाँजेब को, जो चल पड़ा था
चक्र गहने के लिए संग्राम में।
बाबली-सी घूमती चारों तरफ
ताकि कस ले गुंजलक में वह उन्हें
और सदियों रास का झंकार फैले
कूल यमुना का सदा आबाद हो!!!
मिथिला आ मैथिलीक लेल सतत प्रयासरत