सनातन धर्म पर उँगली उठाकर उसे बरबाद करने का एजेंडा चलाने वाले लोगों को भड़काते रहते हैं कि सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं, एक-एक अच्छत से से पूजा करें तों क्विंटल भर चावल लग जायेंगे…देश की जनता जहाँ भूखी है…वहाँ एक आदमी एक क्विंटल चावल एक बार की पूजा में लगा दे… आदि आदि।

ऐसे कमेंट देखकर हँसने ही जरूरत है। जिन्हें सनातन के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है वे तो ऐसी ही फजूल बात करेंगे।

आइए आज हम आपको असलियत बताते हैं-

सनातन धर्म में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि के अनुसार एक इष्टदेव चुनने की स्वतंत्रता है। सनातनी की रुचि है कि वे विष्णु को चुनें, या शिव को या सूर्य को या दुर्गा को- कोई एक प्रधान इष्टदेवता उन्हें चुनना है। इन्हीं की पूजा, साधना उन्हें प्रधान रूप से करनी है। इसी आधार पर वे वैष्णव, शैव, शाक्त, आदि कहलाते हैं। वैष्णव में भी उन्हें स्वतंत्रता है कि चाहें तो वे चतुर्भुज विष्णु की उपासना करें, राम की उपासना करें, कृष्ण की उपासना करें- लेकिन एक प्रधान देवता उनके लिए होंगे।

जितने लोग, उतनी रुचि- यही कारण है कि देवताओं की संख्या पुराणों में बढ़ गयी है। एक ही देवता के शतनाम हैं, सहस्रनाम हैं। आप सहस्रनामों को देखिए तो आपको लगेगा कि सभी देवताओं के नाम इसी सहस्रनाम में हैं।

आगम की परम्परा में इन देवताओं कों पाँच समूहों में विभाजन किया गया- सूर्य गणपति, विष्णु, दुर्गा तथा शिव। ये पंचदेवता कहलाते हैं। इऩ पाँचों देवताओं की एक साथ पूजा अनिवार्य कर दी गयी। एक ही बार में सूर्यादिपंचदेवता की पूजा को अनिवार्य पूजन माना गया। इन पाँचों की पूजा के बाद ही आप अपने इष्ट देवता का व्यापक पूजा करें।

मिथिला में इस परम्परा में हम थोड़ा बदलाव देखते हैं। यहाँ के लोग सूर्य, गणेश, अग्नि, दुर्गा तथा शिव की पूजा पंचदेवता के अन्तर्गत करते हैं। साथ ही, अनिवार्य रूप से विष्णु की पूजा इसके बाद करते हैं। इस प्रकार मैथिल छह देवताओं की अनिवार्य पूजा करते हैं उसके बाद अपने इष्ट देवता की पूजा सांगोपांग करते हैं।

इसका अर्थ हुआ कि एक बार में पंचदेवता की पूजा औऱ उसके बाद एक इष्टदेवता की पूजा- यही आपका कर्तव्य है।

अब बतलाइए कि कितने क्विंटल अच्छत आपको चाहिए!

यह सनातन धर्म की अपनी प्रकृति है, क्योंकि यहाँ कट्टरता नहीं, स्वतंत्रता है। कोई सनातनी आप पर जोर नहीं दे सकता कि आप फलाने देवता को ही अपना इष्टदेव मानें।

अब रही ग्रन्थों की बात तो आपके जो एक इष्टदेवता हैं, उनसे सम्बन्धित आगम-साहित्य आपके लिए हैं। दुर्गा के पूजक हैं तो उसके लिए शक्ति उपासना में भी दुर्गा से सम्बन्धित ग्रन्थ हैं। आप उन्हें पढ़ें। उनकी पारिभाषिक शब्दावली अलग हैं। उनकी परिभाषा को पढ़कर उपासना करें। आपकी परम्परा के गुरु आपको जो कहें, आप करें।

आज की समस्या है कि सभी विभिन्न परम्परा के ग्रन्थ आपको सुलभ हैं। शब्दावली आप एक परम्परा से लेते हैं, परिभाषा दूसरी परम्परा के ग्रन्थ में पढ़ते हैं और तीसरी परम्परा के ग्रन्थ पर विमर्श करते हैं। ऐसी स्थिति में अटपटा तो लगेगा ही।

सनातन धर्म की उदारता है कि आप जिस इष्टदेव की उपासना करते हैं, उन्हीं में समस्त विश्व को लीन देखते । वे ही वेदान्त के ब्रह्म हैं, एकमात्र उपास्य हैं। आप अपने एकमात्र इष्टदेव की उपासना करें। भटकाव छोड़ना होगा, तभी आप लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे। इसीको तुलसीदासजी अनन्या भक्ति कहते हैं। तुलसीदासजी ने जो कहा है, वहीं पुराणों का कथन है, सभी आगमों का कथन है। जो लोग आपको परस्पर विरोध दिकाते हैं उनका अपना एजेंडा है आपको फोड़ने का।

आपके एक ही इष्टदेव आपकी समस्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए सक्षम हैं। इसी लिए तो शिवमहिम्न स्तोत्र में पुष्पदन्त ने लिखा है-

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

नाना प्रकार की रुचि होने के कारण ऋजु और कुटिल नाना पथ भी हैं। किंतु हे परमात्मा सबका गम्य तू ही है, जैसे सभी स्थानों से जल अंत में समुद्र में ही पहुँचता है।

जय सनातन!!

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