उदयनिधि स्टालिन ने अपने भाषण में कहा है कि सनातन धर्म में बदलाव सम्भव नहीं है।

आज ऐसी अवधारणा कैसे बन गयी है, इस पर हम सभी सनातनियों को विचार करना आवश्यक हो गया है। हम सबसे पहले सनातन की देव-उपासना पद्धति पर विमर्श करें।

हमें इतिहास देखना चाहिए कि वैदिक काल में यज्ञ उपासना की पद्धति थी। अग्नि को दूत बनाकर इन्द्र आदि देवताओं के लिए हविष्य प्रेषित किए जाते थे तथा उनसे प्रार्थना की जाती थी कि वे देव हमारी रक्षा करें, हमें सुख और समृद्धि प्रदान करें। इस उपासना पद्धति की भाषा वैदिक संस्कृत भाषा थी, सभी मन्त्र वेद के होते थे।

इस उपासना-पद्धति में परिवर्तन हुआ। देवताओं की मूर्तिपूजा आरम्भ हुई। उनकी मूर्ति सामने रखकर पाँच, दस या सोलह उपचारों से पूजा आरम्भ हुई। सभी मन्त्र लौकिक संस्कृत भाषा के बने। यह परिवर्तन इसलिए हुआ कि समाज के सभी लोग जो वेद नहीं जानते थे, जिन्हें वेद के मन्त्र सस्वर पढ़ने में दिक्कत होती थी, वे भी अतिथि-सत्कार की शैली में देवोपासना कर सकें। इस लोक-संग्रह के लिए या सीधे शब्दों में समाज की सभी जातियों को, सभी वर्गों को, विद्वान् से लेकर कामगारों तक को एकसूत्र में बाँधने के लिए आगम-पद्धति का प्रचार सनातन धर्म में पहला परिवर्तन था। यज्ञ के स्थान पर मूर्तिपूजा आरम्भ हुई तथा वेद के मन्त्रों के स्थान पर पुराण तथा आगम के लौकिक मन्त्र लिखे गये।

जयन्त भट्ट अपने ग्रन्थ आगम-डम्बर ने इस स्थिति का चित्र प्रस्तुत करते हैं कि शूद्रलोग गाँवों टोलियाँ बनाकर जाते हैं,जहाँ उनका स्वागत-सत्कार होता है, वे वेदमन्त्रों की तरह पुराणों के मन्त्रों का पाठ करते हैं, प्रवचन करते हैं। क्या यह परिवर्तन नहीं था?

बाद में, ईसा की सातवीं-आठवीं शती में जब क्षेत्रीय भाषाओं का उदय हुआ तो लोकभाषा धीरे-धीरे धर्म की भाषा के रूप में स्थान ग्रहण करने लगी। 84 सिद्धों में अनेक शैव परम्परा के साधक हैं, जिनके उपदेश लोकभाषा में मिलते हैं। उनकी उपासना पद्धति मन्त्र-जप पर आ गयी। यह भी परिवर्तन है। इनमें से नाथ सम्प्रदाय के सन्तों ने शाबर मन्त्र का उपदेश दिया, जिनकी भाषा लोकभाषा थी। क्या वैदिक भाषा से लोक-भाषा में परिवर्तन के स्वर पर हम आँख मूँद लेंगे?

बाद में भक्ति का उदय हुआ तो पूरी उपासना-पद्धति नाम कीर्तन के आसपास घूमने लगी। अष्टयाम संकीर्तन का प्रचलन बढ़ा। यह भी महान् परिवर्तन था। इसका का उद्देश्य यही था कि समाज के व्यापक स्वरूप को एक मंच पर बैठाया जा सके।

इस प्रकार सनातन धर्म में उपासना की पद्धति भी वैदिक मन्त्रों से यज्ञ करने के स्थान पर अष्टयाम के रूप में भगवान् के नाम संकीर्तन के रूप में विकसित होकर परिवर्तित हुआ। तब कैसे कहा जा सकता है कि सनातन में परिवर्तन सम्भव नहीं है।

सच्चाई है कि हर शती में सनातन धर्म में समाज के हितचिन्तकों ने सुधार किया है, परिवर्तन किया है, सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया अपनायी है।

किन्तु यह अवधारणा आज इसलिए बन रही है कि 19वीं शती के कुछ तथाकथित धार्मिक सुधारवादियों ने परिवर्तन के स्वर को विकृति मानकर उसे सनातन से बहिष्कृत कर दिया। जो अच्छा लगा उसे रखा, जो अच्छा नहीं लगा उसे कूड़ा मान लिया।

19वीं शती के इन सुधारकों (?) ने सतत परिवर्तनीय सनातन धर्म में कट्टरता का जहर घोलते हुए हमें केवल वेदों की ओर लौटने के लिए कहा और फल हुआ कि जहाँ से हम चले थे वहीं लौट आये। उन्होंने सभी प्रकार के सुधारवादी परिवर्तनों को एक सिरे से नकार दिया।

समाज बदल चुका था। उसे हम पश्चगामी नहीं बना सकते थे; लेकिन जब उपासना-पद्धति को पश्चगामी बनाने के लिए कहा गया तो आधुनिक समाज के साथ अति प्राचीन उपासना-पद्धति का तालमेल बैठा नहीं सका। फल हुआ कि न माया मिली न राम!

परिणाम हुआ कि हम आज ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं कि सनातन को अपरिवर्तनीय मान बैठे हैं।

सनातन में व्यावहारिक परिवर्तन के स्वर को नकारने का यह खामियाजा भुगतना तो पड़ेगा ही!

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