2
मण्डन मिश्र प्रातःकालक अग्निहोमसँ उठले रहथि कि हुनक एकटा भातिज हबोढ़कार भेल कनैत हुनक अग्निशालापर पहुँचि गेलाह आ हुनका देखैत आर कानय लगलाह।
-“की भेल? की भेल?”
-“काकाजी हमरापर दुनू दिससँ दैवक डाँग पड़ि गेल। समर्थ बेटा घरसँ भागि संघाराममे प्रव्रज्या लेलक आ पिता सेहो आई अग्नि मिझाए संन्यास ग्रहण करताह।”
-“अएँ! षडानन संन्यास लेताह? ई किएक?”
-“अहीं हुनका बुझा सकैत छियनि।”
-“पहिने भूमिका कहू जे ई फुरलनि केना?”
ओ युवक कहय लगलाह- “काल्हि हमरासँग कए पिता आपण ग्राम गेल रहथि। हम सभ वस्त्र क्रय क’ घुरैत रही कि एक संन्यासी भेटि गेलाह। ओ संन्यासी वाराणसीसँ अबैत रहथि आ हिमालयक तीर्थ यात्राक क्रममे गंगा कौशिकीक बाट धेने चल जाइत रहथि। आपण ग्रामक श्रेष्ठिसंघ आ बौद्ध-संन्यासी सभ राजाक आदेश पाबि हुनक अरियाति क’ अनने रहय। ओतहि आम्रवाटिकामे हुनक प्रवचन चलि रहल छल। हमहूँ सभ सुस्ताएबा लेल ओतए बैसि गेल रही। ओ संन्यासी वाराणसीमे शंकराचार्यसँ दीक्षा नेने रहथि। हुनक प्रवचनपर मुग्ध भए अनेक ब्राह्मण दीक्षित भए रहल छलाह। हमर पिता सेहो तखनिएसँ कहि रहल छथि जे हमहुँ दीक्षित होएब आ अग्नि मिझाए संन्यास लेब। हमर माता तँ ई सुनितहि खाट धए नेने छथि। आब अहीं हुनका बुझाक’ एहि संकल्पके तोड़ि सकैत छियनि।”
-“मुदा एकटा नै बूझि रहल छी जे एहि वैदिक संन्यासीक स्वागतमे बौद्धलोकनि किएक अग्रसर भेलाह?”
-“बेसी तँ हम नै बुझलिए मुदा मोटा-मोटी बात ई जे शंकाराचार्यक शिष्यलोकनि सेहो अग्निक विरोधी आ बौद्धो लोकनि सैह। जतए गार्हपत्याग्नि मिझाए संन्यासक बात उठैत छैक ओतए दुनू मिलि जाइत छथि। ओ संन्यासी बौद्धधर्मक प्रति शंकराचार्यक समन्वय दृष्टिपर व्याख्यान दैत कहने रहथि जे शंकराचार्ये सभसँ पहिने कृष्णकेँ अपदस्थ कए बुद्धकेँ विष्णुक नवम अवतार मानने छथि। आ एहिपर बौद्धलोकनि हुनक प्रति आर सदाशय भए गेल रहथि। पितृव्यपाद! हमरा तँ एहि चक्करमे माथोपरक गेल आ पैरो तरक गेल? एक बेर त’ होइए जे भगवाने किए ने हमरा उठाए लैत छथि।”
ओ युवक भोकारि पाड़ि कानए लगलाह।
3
संघाराममे आइ गोहरिया सभक बेसी आबा-जाही छल। कारण जे आइ बुद्धपूर्णिमा रहैक। ओहि अवसरपर विशेष हवनकुण्ड बनल रहय आ अनेक श्रमण गोहरिया सभसँ सम्पर्क कए रहल छलाह। आजुक दिन संघारामक लेल विशेष आयक अवसर छल। दूर-दूरसँ हाथी-घोड़ाक रथ आ पालकीसँ सजि-धजि क’ महारानी आ महाराज लोकनि सेहो आबथि। किनकहु पुत्रक गोहारि छलनि तँ केओ दूर देशस्थ कोनो राजकुमारीक आकर्षण कए हुनका अपन अंकशायिनी बनयबा लेल श्रमणलोकनिक चमत्कारक लाभ लेबाक लोभसँ आयल रहथि। किनकहु मन्त्रक बलें शत्रुकेँ पकड़ि अनबाक छलनि तँ केओ शत्रुसँ आक्रान्त भए संघारामक शरणमे आयल छलाह।
पार्श्ववर्ती गामक राजा हस्तिकर्णदेवक सबारी जखनहि कदलीवनक द्वारपर आयल कि दूटा श्रमण हुनका दिल लपकलाह। ई पाँच गामक राजा रहथि आ महाराजकेँ अपन उपजाक छठम भाग कर देथि। दस टा योद्धा आ एक सचिवक अनुमति भेटल रहथि तेँ ओएह सचिव कोषाध्यक्षसँ लए नर्मसचिव धरि रहथिन्ह। महाराज रथपर बैसले रहथि, किन्तु हुनक सचिव उतरि श्रमण सभ लग पहुँचलाह आ कहलथिन्ह- “महाराज आबि गेल छथि। यज्ञ कखनि होएत?”
-“पहिने यज्ञक उद्देश्य तँ बाजू?”
-“महाराजकेँ शत्रु बड़ तंग करैत छथिन। काल्हि हिनक आमक गाछी लुटबाए लेलथिन। सभ चण्डलबा दू बिगहाक कलम झाँटि-पीटि चौपट्ट कए देलक। एहन मन्त्र फुकू जे सभ मरि जाए।”
-“भए जाएत। अहाँ निश्चिन्त रहू।” मुदा एहि लेल हवन सामग्रीमे गायक पित्त आ मनुक्खक अस्थि चाही। एहिसँ हवन होएत सेहो रातिमे। कदलीवनक अग्निकोणमे जगह देखाए दैत छी। ओतए एकटा श्रमण साधक रहताह। हुनक निर्देशनमे सभटा व्यवस्था करबाउ। संघारामक शुल्क एक दीनार जमा कए दियौक।”
हस्तिकर्णक इसारापर सचिव दीनार निकालि ओहि श्रमणके देलथिन तालपत्रपर लिखल अनुमति पत्र लेलनि आ दोसर श्रमणक संग कदलीवनक इंगित स्थान दिस बढ़ि गेलाह।
एही क्रमेँ अनेक महाराज अबैत गेलाह आ ओहि श्रमणक संग वार्ता होइल गेलनि-
महाराज-2
-“श्रमण महाशय, वटग्रामके राजकुमारीक आनयन कर्म।”
-“महिषक मांस चाही। निशीथमे आकर्षण कराय देब।”
-“वेश लिय’ एक दीनार आ स्थान देखाउ।”
महाराज-3
-“शत्रुक सेना हमर सीमामे घर बना रहल अछि। ओकर उत्सादन करएबाक अछि।”
-“भए जाएत। कुकुरक माँसक आयोजन करू। एम्हर ओकर आहुति पड़ल आ ओम्हर ओ सभ भागि जाएत।”
-“वेश। लिय’ शुल्क आ स्थान देखाउ।
महाराज-4
-“हमर राज्यक श्रेष्ठिसंघक प्रधान… (महाराज लजाइत छथि।)”
-“निःसंकोच भए कहू। एतए कोनो भय नहि।” (महाराज श्रमण कानमे कहैत छथिन्ह) हमर राज्यक श्रेष्ठि संघक प्रधानक पुत्रवधू हमरासँ गर्भवती भए गेल छथि। हुनक पति विदेशमे छथिन। ओहि गर्भवतीक मारण कर्म कराए हमरा लोकलाजसँ बचाउ। जे माँगब से दक्षिणा देब।”
-“भए जाएत। मनुष्यक माँस, गिद्धक पाँखि आ ओहि स्त्रीक तैलचित्रक व्यवस्था करू। एकटा गर्भवती अजा सेहो चाही। निशीथमे ई साधन होयत।”
-“वेश लिय’ शुल्क। आ अहाँ अपनहि कराए दी से हमर प्रार्थना।”
महाराज-5
-“श्रमण महाशय, हमर महारानी आब नतोदरी भए गेलीह तेँ हम नित्ययौवना यक्षिणीक साधन करए चाहैत छी। सुनैत छी जे अहाँ लोकनिक लेल ओ सुगम अछि।”
-“यक्षिणी-साधन तँ कराए देब, मुदा आइ तँ नहि होयत। ओहि लेल एक मासक साधना चाही। अहाँ अपन राज्यमे कोनो नदीक कातमे एक बीघा भूमिके एकान्त करू। एक सय खदिर कील आ एकटा समर्पिता रजःस्वला कुमारि कन्या चाही। आषाढ़मे ई कृत्य कराए देब। आजुक बाद शीघ्रे आबि अपन निबन्धन कराए ली।”
महाराज प्रसन्न भए अपन मुक्ताहार श्रमणकेँ दए घुरि गेलाह। द्वार खाली भए चुकल छल, तथापि एकटा दीप्त मुखाकृति वला युवक ठाढ़ रहथि। जखनि सभ महाराज लोकनि ओतएसँ चलि देलनि तँ ओ युवक श्रमण लग आबि बजलाह- “हमरा विद्या सिद्ध करबाक अछि।”
-“तँ एतए किएक अएलहुँ। कोनो गुरुकुल जेबाक चाही।”
-“सुनैत छी जे एतए माँ ताराक कृपासँ विद्याप्राप्ति सेहो कराओल जाइछ।”
-“ठीके अहाँ सुनलहुँ। मुदा अहाँ संघारामक शुल्क आ दक्षिणा दए सकब। एक दीनार शुल्क, चीनांशुकक चीवर आ मुक्ताहार। कतएसँ लाएब अहाँ”
-“हँ। से तँ ठीके। मुदा कोनो आन उपाय नै अछि।”
-“उपाय तँ अछि। महाश्रमणसँ दीक्षा लए संघाराममे सम्मिलित भए जाउ। अहाँ ब्राह्मण छी। यज्ञकर्म जनैत होएब। यजमान सभकेँ यज्ञ कराए देबनि। अहाँके संघाराम दिससँ चारि यजमानपर एक दीनार दक्षिणा भेटि जाएत।”
-“मुदा यज्ञ तँ वैदिक लोकनि करैत छथि, तखनि संघाराममे यज्ञ किएक। बौद्धधर्म तँ यज्ञक प्रबल विरोध करैत आएल अछि।”
-“अहाँक सभ प्रश्नक उत्तर देबा लेल हम बाध्य नै छी। अहाँ जा सकैत छी।”
ओ युवक धुरि गेलाह। श्रमण बटुआमेसँ निकालि दीनार गनि रहल छलाह कि एकटा मसोमात पालकी रखबाए उतरलीह। श्रमण हुनका दिस लपकिक’ पहुँचलाह। ओ महिला उतरि “हम बुधग्रामक रानी छी। राजाजी अपने युवावस्थहिमे स्वर्गवासी भए गेलाह। एकटा पुत्र छल, ओहो अपन गर्भवती पत्नीकेँ छोड़ि स्वर्ग चल गेल। आई ओहि पुतोहुक द्वादशाह कर्म थिक। हमरा आब केओ नहि रहल। हमरा शान्ति चाही, हमरा निर्वाण चाही, श्रमण महाशय!”
-“परम कारुणिक बोधिसत्त्वक शरणमे आबि जाउ। संघक शरणमे आबि जाउ। शान्ति भेटत, निर्वाण भेटत। दुःख आर्य सत्य थिक। जन्म दुःख थिक, वृद्धत्व दुःख थिक, मृत्यु दुःख थिक। एहि सभ दुःखक क्षय भेलापर शान्ति भेटत जेना तेल सधि गेलापर दीप शान्त भए जाइछ। बोधिसत्त्वक अवतार एही दुःखक प्रवाहमे भसियाइत लोकके उबारबाक लेल भेल रहय।”
-“श्रमण महाशय, हम अपन सकल सम्पत्ति परोपकारमे लगाबए चाहैत छी। हमरा रास्ता देखाउ, श्रमण!”
-“अहाँकेँ महाश्रमणक दर्शन करबाए दैत छी। ओ सभटा बुझाए देताह।”
श्रमण इशारा कए एक दण्डधारी सुरक्षा पुरुषकेँ बजओलनि आ ओहि महिलाकेँ संघारामक भीतर प्रवेश कराए देलनि।
थोड़ेक काल ओ श्रमण ओतहि द्वारपर रहलाह, मुदा केकरो अबैत नहि देखि क’ ओहि द्वारा दिस बढलाह, जतए सामान्य जनक धररोहि लागल छल आ दू टा भगता माँटिक चबुतरापर बैसल छलाह। ओ गहवरक द्वार छल।
गहवर द्वारपर माटिक एक ढूह छल, जकर बाहरी भागपरके माँटिक भीत जकाँ बना देल गेल छल। ओहिमे एकटा खोह बनल छलैक, ओ खोहक एक मुंह बाहर दिस खुजैत छल तँ दोसर मुँहक नीचामे कपड़ापर लिखल चित्र टाँगल छल जाहिमे बोधिसत्त्व कुमार मंजुश्री, आर्यतारा, भ्रकुटी, अवलोकितेश्वर, यमराज आदि समस्त देवी देवता बनाओल छल। ओकर आगाँमे माँटिक चबुतरा रहय। चबुतराक दुनू कात माटिएक चबुतरापर श्रमण बैसल छलाह।
आगाँ स्त्री-पुरुषक हेंज संचमंच बैसि चुकल छल। हाड़-हाड़ बैसल देह। बाहरेसँ देखाइत अस्थि पंजर, जेना अस्थिएपरकारी कपड़ासँ मढ़ि गेल गेल होइक। ई गोहारि कएनिहार सभक झुण्ड छल। केकरो बेटा दुखीत रहैक तँ केकरहु स्त्री बताहि भए गेल रहैक, केओ अपनहि शोणित बोकरैत रहए तँ केकरहु बेटा बौर गेल रहै। सभक अपन अपन दुख रहैक मुदा आशा रहैक जे आई देवताक दर्शन अवस्से भए जाएत आ हमर सभटा दुख छूटि जाएत। ते सभक नजरि ओहि खोहक मुँहपर छलैक जतए देवता प्रकट भए सभक दुख हरि लेथिन। सभ गोहरिया आइ किछु ने किछु दक्षिणा अवश्य अनने रहय। श्रमण कहि देने रहथि जे अहाँ सभलेल कोनो बात नै, जैह भेटए सएह नेने आएब, नै किछु तँ एक मुट्ठी सागे लए लेब, मुदा खाली हाथ देवताक दर्शन नै हैत।
विशिष्ट द्वारसँ जखनि विशिष्ट श्रमण एतए पहुँचलाह तँ सभ केओ ठाढ़ भए गेल। ओ सभ के बैसबैत स्वयं माटिक चबूतरापर ढाढ़े संबोधित कएलनि-
“ये धर्मा हेतुप्रभवा तेषां विषये तथागतोह्यवदत्।
तेषां च यो निरोधः एवंवादी महाश्रमणः।”
अहाँलोकनिक सभटा दुःख कोनो ने कोनो कारणसँ भेल अछि। संसारमे जे कोनो कार्य अपन कारणसँ होइत छैक तकरा विषयमेँ भगवान् बुद्ध उपदेश कए गेल छथि। ओ कखनहुँ मिथ्या नै भए सकैए, मुदा एहि दुःखकेँ रोकबाक जे उपाय छैक से महाश्रमण स्वयं कहताह। आई देवताक जन्मदिन छियनि। आई हुनक जरूर दर्शन होएत। ओ अहाँ सभक दुःख सुनताह आ ततबे नै आई सभ प्रसाद ल’ क’ जाएब। मध्याह्न भोजनक व्यवस्था आइ संघारामक दिससँ होएत।”
ओ श्रमण चल गेलाह तखनि गोहरिया सभ एक एककेँ आबए लागल। दू टा सहकिया सेहो पीपरक पल्लव नेने ओतए ढाढ़ रहथि जे जे गोहरिया आबए तकर पीठपर ओहि पल्लव स’ मारैत पूछथि-
-“की छियौ?”
-“गोहारि, माय बाप!”
-“गोहारि कर।”
-“हमर बेटाके दस दिनसे झाड़ होइ छै।
पटक आगाँ पीड़ीपर धकेलिक’ ओकरा बैसाए देल गेल आ दुनूकातसँ दुनू श्रमण पीपरक पल्लवसँ झाड़य लगलाह।”
-“गोहारि कर, गोहारि।”
आ तखनहि ऊपर खोहक मुँहपर भगवान बुद्ध प्रकट भेलाह आ भूमिस्पर्श मुद्रामे बैसि गेलाह। हुनक मुँहसँ धीर गम्भीर वाणी निकलल-
“ये धर्मा हेतुप्रभवा तेषां विषये तथागतोऽह्यवदत्।
तेषां च यो निरोधो एवंवादी महाश्रमणः।”
सोझाँमे बैसल जनसमूह हर्ष आ श्रद्धासँ जयजयकार कए उठल। भगवान् बैसल रहलाह। गोहरिया सभ अबैत गेल, अपन अपन गोहारि सुनबैत गेल आ ओतहि अपन-अपन आनल दक्षिणा रखैत गेल। आइ सभमे उल्लास छल, आँखिमे गोहारि पूरा हेबाक आस छल, विश्वास छल।
गोहारि खतम भेल तँ भगवान् उठलाह आ अभय मुद्रामे सभके आशीर्वाद देलनि आ ओहि खोहक रास्तासँ भीतरे-भीतर अपन आवास कक्षमे पहुँचि महाश्रमणक वेश-भूषा धारण कएल।
चन्द्रश्री ओहि संघारामक विशिष्ट विद्वान् रहथि। यजुर्वेदक यज्ञविद्या आ अथर्ववेदक आंगिरसी विद्या, दुनूमे निष्णात रहथि। संगहि महायानक सूत्रग्रन्थ सेहो हुनका देखल रहनि। संघाराममे प्रवेशसँ पहिने कर्मकाण्ड कराय जीवन-यापन करैत रहथि। हुनकामे लोककेँ आकृष्ट करबाक क्षमता देखिक’ स्वयं महाश्रमण एतए आनि हुनकर प्रतिष्ठित कएने रहथि। संघाराममे कोनो शास्त्रीय प्रश्न उठैक तँ चन्द्रश्री महाश्रमणक कक्षमे बजाओल जाथि।
से आइयो एहने प्रश्न उठि गेल रहय। एकटा श्रेष्ठी महाश्रमण लग प्रस्ताव देने रहथिन जे ओ यज्ञ कराबए चाहैत छथि, से जँ संघारामक निर्देशनमे यज्ञ भए जाएत तँ ओ संघाराममे अपन मृत भ्राताक सकल दायभाग दान कए देताह। यज्ञ केना होएत ताहीपर विमर्श लेल चन्द्रश्री महाश्रमण कक्षमे बजाओल गेल रहथि।
-“हमरालोकनिक धर्ममे यज्ञ आ कर्मकाण्डक विरोध कएल गेल अछि। तखनि हम सब यज्ञ केना कराय सकैत छी।”- चन्द्रश्रीक तर्क छल।”
-“देखू धर्मक मूल उद्देश्य अछि- जनकल्याण। बौद्धधर्म सदासँ सभक कल्याण लेल तत्पर रहैत आएल अछि। तें एकमात्र लक्ष्यपर ध्यान राखि ई यज्ञ कराओल जा सकैत छै।”
-“यज्ञक विधान की तँ शतपथ-ब्राह्मणमे अछि नहि तँ गोपथ-ब्राह्मणमे। ओकर उपयोग तँ बौद्धधर्मक मूल सिद्धान्तके आहत करत।”
-“मुदा यज्ञ तँ करएबाक अछि। तखनि अग्निस्थापन विधि शतपथसँ लए लिय’। हव्य वस्तु गोपथसँ आ मन्त्र महायानसूत्रसँ।”
-“ई तँ शास्त्रक संग अन्याय होएत।”
-“अपन पद्धति बनाए लिय’। ओएह शास्त्र भए जाएत। जाउ आ जेना कहलहुँ तेना यज्ञक आयोजन कए लिय।”
4
आचार्य शंकरक ओ शिष्य तँ चल गेलाह, हुनका जे उपदेश करबाक छलनि, जे कहबाक छलनि से सम्पन्न कए कौशिकीमे स्नान कए हिमालयक उपत्यका दिस बढ़ि गेलाह। लक्ष्य रहनि जे त्रिविष्टप (तिब्बत) बौद्धक महायानक तन्त्र-मन्त्रसँ ततेक आक्रान्त भए गेल छल जे ओतए वैदिक धर्मक लोप भए रहल छलैक, एतए उपनिषदक सिद्धान्तक प्रचार आवश्यक रहनि जाहिसँ कोनहुना वेद पुनः प्रतिष्ठित भए सकए।
महिषीसँ थोड़ेक दूरपर आपण ग्राममे जखनि ओ पहुँचल रहथि तँ श्रेष्ठिसंघ आ बौद्ध संघारामक द्वारा ओ भव्य स्वागत कनेक तँ अनसोहाँत लगलनि मुदा राजभय आ स्थानीय विद्रोह भयक कारणे ओहि स्वागतक विरोधो नहि कएल आ दोसर कारण छल जे एहि कारणे बेसीसँ बेसी लोककेँ सम्बोधित करबाक अवसर भेटलनि जे हुनक लक्ष्यक साधके छल। मुदा जखनि ओ अन्तरंग वार्ताक क्रममे सुनल जे महिषीमे मण्डन मिश्र मीमांसा आ वेदान्तक विद्वान् छथि आ हुनक ब्रह्मसिद्धिग्रन्थक, किछु तथ्य विद्वान् लोकनिक मुँहसँ अवगत भेलथि तँ हुनका मने-मन प्रणाम कए हुनक वाक्-छायामे वैदिक धर्मके सुरक्षित बूझि निश्चिन्त भए प्रस्थान कएल। मुदा हुनक उपदेशसँ षडाननमिश्र संन्यास दिस उन्मुख हेताह आ तकरा रोकबाक लेल मीमांसक आ वेदान्ती मण्डनमिश्रपादकेँ सक्रिय होमए पड़तनि तकर हुनका भान नहिं भेलनि।
ओहि शांकर संन्यासीके भलें कोनो भान नहि भेल होनि मुदा मण्डनमिश्र पूर्ण सचेत रहथि। बौद्ध महायानी लोकनिक द्वारा एहि विषयमे हस्तक्षेप हुनक मस्तिष्ककेँ झकझोरि देने छल आ तेँ ओ ठानि नेने रहथि जे एहि बेर शास्त्रार्थ भए जाए जाहिसँ सामान्य जन एहि विषयमे निश्चित अवधारणा बनाए वैदिक धर्म दिस उन्मुख रहए।
ओम्हर संघारामक दिससँ तँ सतत प्रयास रहबे करए जे मण्डन मिश्रकेँ कहुना तोड़ल जाए। एक तँ ओ कुमारिल भट्टक शिष्य रहथि जे महायानक सभटा गुह्य आ सभटा दार्शनिक सिद्धान्त गुप्त रूपसँ जानि गेल रहथि, जकर उद्भेदन समाजमे महायानक प्रति धूमिल छवि बनएबाक लेल पर्याप्त छल। दोसर दिस वैदिक कर्मकाण्डकेँ विकृत कए अपन महायानी तान्त्रिक गुह्य कर्मकाण्डक स्थापनामे सेहो मण्डन मिश्र बाधक बुझाइत रहथिन। गार्हस्थ्य आ संन्यासक विषयपर ओतेक कटुता नै छल किएक तँ महायानी लोकनि गार्हस्थ्यकेँ आत्मसात् कए चुकल छलाह। मुदा मण्डन मिश्रक छवि धूमिल करबा लेल एखनि षडानन मिश्रक संन्यास ग्रहणक प्रसंग उपयुक्त बुझएलनि जाहिमे ओहि शांकर संन्यासीक आगमन आ हुनक उपदेश अनुकूल वातावरण बनओलक आ संघारामक महाश्रमण श्रेष्ठिसंघके शास्त्रार्थक आयोजन करबाक गुप्त आदेश देलनि।
मण्डनहुँके एहि गुप्त आयोजनक तँ आभास रहबे करनि मुदा ई नहि जनैत रहथि जे ठीक जाहि दिन ओ अपन पिताक निमित्त पार्वण करैत रहताह ओही दिन ई शास्त्रार्थ बजरि जाएत।
महायानी लोकनि जनैत रहथि जे पितृ-पार्वणक समय संन्यासीक उपस्थिति मण्डन मिश्रके उत्तेजित करबाक लेल पर्याप्त अछि। तें महाश्रमण ओहि दिन एकटा गृहस्थ वेदान्तीकेँ धनक बलपर लोभाए शांकर संन्यासीक वेषमे पठाओल।
एक तँ विद्वान् स्वयं शास्त्रार्थप्रिय होइत छथि। ताहिपरसँ जँ शास्त्रार्थ अर्थकर भए जानि तँ सोनमे सुगन्धि। निर्धनताक दंशसँ छटपटाइत गृहस्थ वेदान्ती विद्वानकेँ महाश्रमण ई प्रस्ताव लक्ष्मी आ सरस्वतीक संगम जनित ब्रह्मानन्द सदृश बुझएलनि जकर अद्वैतक प्रवाहमे ओ भासि गेलाह आ माथ मुड़ाए यज्ञोपवीत तोड़ि दण्ड-कमण्डलु धारण कएल आ शास्त्रार्थक मुद्रामे मण्डन मिश्रक ओतए पहुँचि गेलाह। आ हुनक पाछाँ-पाछाँ किछु विद्वान् बौद्ध संन्यासी लोकनि सेहो पहुँचि गेलाह।
मण्डन मिश्रक ओतए ओहि दिन मिश्रटोलक प्रायः सभ वैदिक जुटल रहथि तें हुनकहु कोनो असुविधा नहि भेलनि। जखनि ई सभ पहुँचल रहथि तखनि श्राद्धकर्मक वेला नहि आएल छल तें शास्त्रानुसार ओहि संन्यासीलोकनिक स्वागत कए हुनका उचित सत्कार करबाक भार परिजन लोकनिपर दए श्राद्ध-भोजमे सम्मिलित हेबाक लेल निमन्त्रित कएल।
-“मुदा हम सभ तँ संन्यासी छी। श्राद्धमे संन्यासी वर्जित होइत छथि।”- महाश्रमण लजाइत बजलाह।
-“सत्य कहल। मुदा ई वर्जना श्राद्धस्थलाक प्रसंग अछि। प्राचीन स्मृतिकार सभ कहैत छथि जे जँ श्राद्ध-कर्मक दिन संन्यासी उपस्थित भए जाथि, तँ हुनक स्वागत कए भोजनमे निमन्त्रित कएल जाए। ई गार्हस्थ्यक धर्म थिक आ एकरा हम अपन अहोभाग्य बुझैत छी।”
महाश्रमणक सभटा योजनापर तुषार-पात भए गेल। हुनका केवल गृहस्थ आ संन्यासक बीच दुष्प्रचारित विरोधे टा क ज्ञान छल। ई नहि बुझल रहनि जे चारू आश्रमक आश्रयक रूपमे गार्हस्थ्य कतेक महिमामण्डित अछि। मुदा ई तँ बुझल रहनि जे भगवान् बुद्ध सेहो उपदेश देने छथि जे जँ केओ गृहस्थ सदुपार्जित धनसँ संन्यासीकेँ भोजन करबाक लेल निमन्त्रित करथि तँ ओकरा स्वीकार करब संन्यासीक धर्म थिक।
-“मुदा हम सभतँ एहि दिव्य संन्यासीक संग आएल छी। ई दार्शनिक शंकराचार्यक शिष्य थिकाह। अहाँक संग शास्त्रार्थक लेल उपस्थित भेल छथि। हिनका गुरुवर्यक ततेक सांन्निध्य भेटल छनि जे बुझू जे स्वयं शंकराचार्ये थिकाह।” -महाश्रमण बजलाह।
मण्डन मिश्रक तँ हर्षक सीमा नहि रहल। शंकराचार्यक ओ चर्चा सुनि चुकल रहथि। एतेक कम वयसमे वैदिक धर्मक जतेक दूर धरि ओ पताका फहरा चुकल रहथि से मण्डन मिश्रकेँ आह्लादित कएने रहनि। शंकराचार्यक द्वारा कएल गेल प्रयास देखि ओ निश्चिन्त भए गेल रहथि जे भविष्यमे वैदिक ध्वज हुनक कान्हपर सुरक्षित रहत आ तें मण्डन मिश्रक मनमे हुनका प्रति असीम श्रद्धा, स्नेह, आ वात्सल्य भाव उमड़ि अएलनि। ओ तथाकथित शंकराचार्यक शिष्य दिस उन्मुख होइत बजलाह-
“आहाँकेँ देखि हम अपनाकेँ धन्य अनुभव कए रहल छी। अहाँक गुरुओ हमरासँ बयसमे छोट छथि, बच्चाजकाँ छथि, मुदा हुनक ज्ञान श्रेष्ठ अछि। हमरा प्रसन्नता अछि जे अहाँ लोकनिक वाक्-छायामे वेद सुरक्षित रहत। हम तँ आब अत्यन्त वृद्ध भेलहुँ। पाकल आम छी। कखनि खसि पड़ब तकर ठेकान नै, अहाँ लोकनि बैसू। हम पार्वण-श्राद्ध कए लैत छी। भोजनक बाद जे विचारणीय विषय आओत ओहिपर वार्ता कए लेब।”
संगहि ओ महाश्रमण दिस सेहो आभार प्रकट कएल- “अहाँ तँ अपन लोक थिकहुँ। एहन विशिष्ट अतिथिकेँ अहाँ अनलहुँ तें हम सभ अहाँक आभारी छी। हम पार्वण कए लैत छी। सभ भोजन करब आ तखनि शास्त्रीय चर्चा कए लेब।”
मण्डन मिश्र अतिथि सत्कारक सभटा निर्देश दए घरक भीतर चल गेलाह आ हुनक परिजन लोकनि संन्यासी लोकनिक सत्कारमे लगलाह।
विद्वानकेँ विद्वान् सभक बीच चुप रहब कड़ कष्टकारक होइत छथि। ओ छद्मवेशी शांकर शिष्यक आन्तरिक विद्वत्ता ओहि छद्मवेषक दीवालके तोड़ि बहराए गेल। ओ मण्डन मिश्रक कृति सभक प्रसंग चर्चा कए देलनि। मिश्रमहोदयक परिजन हुनका ब्रह्मसिद्धिक संग-सग मीमांसाक समस्त लघुग्रन्थ विधिविवेक, भावनाविवेक, शक्तिविवेक आदि सेहो आबिक’ देलखिन आ ओ वैदिक विद्वान् सभटा पढ़ि गेलाह। महाश्रमण सेहो एकरा शास्त्रार्थेमे मण्डन मिश्रक पराजयक सहायके बुझलनि तें रोकलखिन नहि । ओम्हर ओ विद्वान् शंकराचार्यक समस्त ग्रन्थ पढ़ि चुकल रहथि। दुनूमे यद्यपि कतिपय स्थलपर मतैक्य नहि छल, मुदा दुनूक लक्ष्य एके रहनि, वैदिक धर्मक स्थापना। ओ विद्वान् ब्रह्मसूत्रक शांकरभाष्यमे ज्ञानकाण्डक अधिकारीक निरूपणक वाक्य हुनक अभिभूत कएलक जे कर्म कएलाक बादे ज्ञानक अधिकार होइत छैक। ब्रह्मज्ञानक तँ अधिकारी ओएह होएताह जे यज्ञादि कर्म कए चुकल छथि आ तें याज्ञवल्क्यो यजुर्वेदक अन्तिम अध्यायमे ज्ञानकाण्डक सम्पादन कएल। आ तखनि मण्डन मिश्रक मीमांसा हुनक ब्रह्मसिद्धिक पृष्ठभूमि बुझएलनि। एही सोचमे पड़ि गेलाह जे विरोध कतए अछि। जतए शास्त्रार्थ हो।’
ओ महाश्रमणकेँ ई बात कहल तँ महाश्रमण खोखिएलाह- “उपनिषदहुमे यज्ञक विरोध अछि। ओतए यज्ञ करओनिहारक तुलना कुकुरसँ कएल गेल अछि आ तखनि यज्ञमे जतेक अन्न आ घी जराओल जाइत अछि ई की विरोधक बात नहि?”
ओ संन्यासी बजलाह- “नहएबाक बेरमे चानन लगएबाक विरोध आ चानन लगएबाक काल नहएबाक विरोध होएब स्वाभाविक अछि तेँ की नहाएब आ चानन लगाएबमेपरस्पर विरोध मानबैक?”
महाश्रमण आँखि कड़ा कए फेर हुनका कर्तव्यक स्मरण करबैत आँखि दाबि देलनि। ओ संन्यासी सिहरि उठलाह। लक्ष्मी जेना सरस्वतीकेँ फेर एक थापड़ मारि देलथिन्ह!
मण्डन मिश्रक कर्म सम्पन्न भेल। सभ भोजन कएल। भोजनोपरान्त सभ बैसलाह आ शास्त्र चर्चा आरम्भ भेल। मण्डन मिश्रकेँ महाश्रमणक उपस्थितिसँ कोनो षड्यन्त्रक भान नै भेलनि तें शांकर संन्यासीसँ अनौपचारिक शास्त्रचर्चा के ओ ओतक गम्भीरतासँ नहि लेलनि अतिथि-स्वागत आ हुनक परितोषे प्रधान रहल। मुदा ओ संन्यासी तँ बँधुआ मजदूर जकाँ अफारो खेतमे तेखार करैलेल तैयारे रहथि। मुदा महाश्रमणक आँखि गिरगिट जकाँ स्वतन्त्र चलि रहल छल ओ दुनू फतिंगाकेँ एके बेरमे चट करए चाहैत रहथि तँ बात बढ़ओलनि- “मध्यस्थक बिना शास्त्रार्थ पथभ्रष्ट भए जाइछ ते मध्यस्थताक निर्णय भए जाए।”
-“बेश तँ अहीं निर्णय करू जे के मध्यस्थ होथि।”
महाश्रमणक इच्छा रहनि जे मध्यस्थते ल’ क’ पहिने कटुता उत्पन्न कएल जाए मुदा जखनि हिनकहिपर निर्णयक भार भेटलनि तखनि गोंगिआए लगलाह। तखनि मण्डन मिश्र कहलथिन्ह- “एहि गाममे तँ साक्षात् सरस्वती छथिए। अहाँलोकनि हुनका तारा कहैत छियनि आ हम सभ वाक् कहैत छियनि, तखनि एतए शास्त्रर्थमे हुनका छोड़ि दोसर के मध्यस्थता कए सकैत छथि! ‘संसाररूपी समुद्रक पार करओनिहारि ऊपर दिस दुनू आँखि तकैत तारा स्वयं वाणी आ भारती थिकीह, जनिक वन्दना तँ सभ देवता लोकनि करैत छथि ओएह भारती एहि शास्त्रार्थक निर्णायिका होथु।’ तखनि तँ हम कहब जे ओतहि चलिक’ हुनक आराधना कए शास्त्रार्थ आरम्भ हो।”
महाश्रमणकेँ मुखर देखि मण्डन मिश्रकेँ माथ ठनकि गेल रहनि, तें अपन दरबज्जापर आएल अतिथिक बातपर प्रतिवाद करब उचित नै बुझएलनि ते ओ संघारामक भीतर जाए देवी ताराक समक्ष शास्त्रार्थ करब उचित बूझि एहन प्रस्ताव देलनि।
प्रस्ताव सभके सहर्ष स्वीकार भेलनि। महाश्रमणक तँ आँखि चमकि उठल आ मनेमन गूड़-चाउर फाँकए लगलाह-‘ हँ हँ। चलू ने। अपन सीमानपर तँ कुकुरो बताह रहैत अछि। जेना चाहब दुनूक नरेठी टीपि देब।’
यैह सभ होइत होइत साँझ पड़ि गेल। तें शास्त्रार्थ काल्हि प्रातःकालसँ होएत ई निर्णय ल’ सभ सान्ध्यकृत्य करबाक लेल अपन-अपन घरक दिस विदा भेलाह। महाश्रमण सेहो ओहि शांकर संन्यासी के ल’ संघाराम दिस चललाह।