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आन दिन रहितैक तँ बाट चलैत काल मिश्र महोदय लोकनि भोजक प्रसंग अवश्य चर्चा करितथि, मुदा आई मण्डन मिश्रक आलयसँ बहएइते एही विषयपर वार्ता चलल जे मध्यस्थताक लेल ओ देवी ताराक प्रस्ताव किएक देलनि? ओ तँ बौद्ध लोकनिक देवी थिकीह।

-‘मण्डनमिश्रपादकेँ बूझब कठिन अछि, हुनक ज्ञानक सागर ततेक अथाह छनि जे ओकर अन्तस्तल हमरा लोकनिक लेल दुष्प्रवेश्य अछि। तें एहिपर विचारे व्यर्थ थिक।’ एक गोटे भोजमे सुगन्धित आ मधुर पायस खाक’ ततेक मधुराएल रहथि जे दोसर कोनो विचारक तरंग अपना मोन उठएबासँ असमर्थ रहथि। मुदा ई विषय गम्भीर छल तें सभक मनकेँ ई बात मथय लागल।

एक गोटे बजलाह- ‘आइ तँ नहि, मुदा एक दिन एहि प्रसंग मण्डनमिश्र  महाशयसँ हमरा गप्प भेल छल। हुनक अभिमत छनि जे मातृशक्ति तँ समस्त ब्रह्माण्डमे एके अछि- “एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा” ई देवीवाक्य थिक। तखनि मूर्तिभेदसँ जे नामभेद होइत अछि ओ अविद्या थिक आ ओहि अविद्याक आश्रय ओ मातृशक्ति नै भए सकैत अछि। प्रकाशस्वरूप विद्याक संग अन्धकारस्वरूप अविद्याक उपस्थिति एकठाम किन्नहुँ नै होएत। आगिमे शीतलताक कल्पनो व्यर्थ थीक। हँ, अविद्याक विषय ओ मातृशक्ति भए सकैत छथि। मुदा सदिखन अविद्याक आश्रय जीव होएत तेँ ई स्वाभाविक अछि जे हमरालोकनि एहि प्रकारक भेदबुद्धि रखैत छी। ओ बौद्धलोकनिक देवी थिकीह आ ई पौराणिकलोकनिक थिकीह, ई भेदबुद्धि अज्ञानता थिक, अविद्या थिक। आ एक दिन तँ ओ इहो कहने रहथि जे कमलासनस्थ ब्रह्माक शक्ति ब्रह्माणी सरस्वतीक रूपमे ओ हिनक आराधना सेहो करैत छथि।”

-“धन्य छथि मण्डन मिश्र महाशय! तें तँ कहलहुँ जे हुनक पार पाएब कठिन अछि।’

ई पण्डितलोकनि आपण ग्रामक निवासी रहथि। देवी वनदुर्गाक छत्र-छायामे सुखपूर्वक रहैत रहथि। ऐतिह्य छल जे एहि आपण ग्राममे बुद्ध आएल रहथि आ शिष्य लोकनि के उपदेश देने रहथि तेँ कालान्तरमे एतए बौद्ध धर्मावलम्बी लोकनि आबिक’ बसैत गेलाह आ ओ धन-धान्यसँ समृद्ध होइत गेल। श्रेष्ठी लोकनि अपन अपन व्यापार करथि आ नदीमातृका भूमि प्रचुर अन्न दैत रहथि, जाहिसँ आपणग्राम समृद्ध छल।

ओतए गृहस्थ बौद्ध धर्मावलम्बी सभ प्रचुर संख्यामे छलाह जे मूर्ति पूजा करथि आ बुद्धकेँ भगवान् मानथि। प्रातःकालमे स्नान कए झटपट धूप, दीप, आरती देखाए अपन अपन काजमे लागि जाथि। के बुद्ध, के विष्णु, के तारा आ के वनदुर्गा, एकर विवेचन करबा लेल ने हुनका फुरसति छलनि आ ने ओ ज्ञान रहन्हि। कहियो कोनो बौद्ध संन्यासी आबि जाथि तँ हुनकहु स्वागत करथि आ कोनो ब्राह्मण आबि आशीर्वाद दए जाथि तँ हुनको दान देथि। चूड़ाकरण, कर्णवेध, विवाहादि दशकर्मक अवसरपर वैदिक कर्मकाण्डी लोकनि सभा करथि तँ थोड़बो काल लेल अपन-अपन काज हरजा कए प्रवचन सुनबा लेल बैसि जाथि।

ओहि आपण ग्रामक एक भागमे निम्न जातिक लोक सभक बस्ती छल। ओ सभ अपन-अपन पुश्तैनी व्यवसाय अथवा दासवृत्तिसँ जुड़ल रहथि। दिन भरि अथक परिश्रम कए कहुना जीवन-यापन करथि। शिक्षाक कोनो प्रसार नहि छल। श्रेष्ठी आ ब्राह्मण लोकनिक बीच ई ‘भृत्यकुल’ कहाबय।

तें ओहि आपणग्राममे देवी वनदुर्गाक स्थानक चारूकात वैदिक ब्राह्मण लोकनिक खूब सुखितगर छलाह। मुदा पौरोहित्य वृत्तिमे रहबाक कारणें शास्त्रचिन्तनमे पछुआ रहल छलाह। एकर विपरीत दोसर टोल महिषीमे रहनिहार मिश्र लोकनि सदिखन शास्त्र चिन्तनमे डूबल रहथि, तें लक्ष्मी रूसल रहथिन्ह। मुदा आपणग्रामक वैदिक लोकनिक दृष्टिमे ई सभ केओ वरेण्य रहथि, श्रद्धेय रहथि। विशेष अवसरपर आपणग्रामक वैदिक लोकनि हिनक आर्थिक सहायता सेहो करैत रहथि आ सदिखन इच्छा रहनि जे तन-मन-धनसँ हिनका लोकनिक सेवा कए धर्मक भागी बनी।

तँ महिषीसँ आपण ग्राम घुरैत काल बाटमे काल्हुक शास्त्रर्थपर चर्चा आगाँ बढ़ल- ‘हम तँ कहब जे काल्हि सभ केओ जुटि क’ चली। संघारामक ओहि दुष्प्रवेश्य स्थानमे शास्त्रार्थक आयोजन निरापद नहि।’- एकटा धनाढ्य वैदिक ई कहिते रहथि कि तावत ढोलहोक शब्द सुना पड़लनि- ‘सुनू! सुनू!! सुनू!!! काल्हि संघाराममे मण्डनमिश्र आ शंकराचार्यक शिअ,यक बीच शास्त्रार्थ होएत। जँ ओहिमे शंकराचार्यक शिष्य हारि जेताह तँ ओ विवाह कए गृहस्थ बनताह आ जँ मण्डन मिश्र हारताह तँ ओ संन्यास ल’ लेताह। एहि अवसरपर समस्त ग्रामवासी आमन्त्रित छथि। भोजन सेहो भेटत । सुनू! सुनू!! सुनू!!!।”

सभक कान ठाढ़ भए गेलनि। हुनका सभक समक्ष शास्त्रार्थक योजना बनल छल, मुदा एहि प्रकारक तँ कोनो शर्तक प्रस्ताव नै छल। ओ शांकर संन्यासी सेहो एहन कोनो प्रस्ताव नहि देने छलाह आ बजबो केना करताह? गार्हस्थ्यसँ संन्यासमे प्रवेश तँ भैयो सकैत अछि मुदा एक संन्यासी गार्हस्थ्यमे कोना प्रवेश कए सकैत छथि? ओ आरूढपतित होएताह जकर प्रायश्चित्त तँ केवल मृत्यु थीक। एतबा गप्प तँ हमहूँलोकनि बुझैत छी, तखनि झूठक ई ढोलहो किएक देल जा रहल अछि आ दोसर बात जे संघाराम एतेक खर्च कए भोज किएक कए रहल अछि?

ई लोकनि शब्द अकानलनि तँ ओ आपणग्रामक भृत्यकुलक दिससँ आबि रहल छल। ओ लोकनि ओम्हरहि झटकि क’ बढलाह।

मार्गमे ओ ढोलहो देनिहार सभ घुरैत भेटलनि तँ पुछलखिन जे केकर आज्ञासँ ई ढोलहो देल जा रहल अछि। ओ सभ कहलकनि जे महाश्रमण ई आज्ञा देलनि अछि। ओहि ढोलहो देनिहारक संग दू टा राजकीय दण्डधारी पुरुष सेहो छल तें ई लोकनि चुप्पे रहलाह मुदा माथ चकराए लगलनि जे महाश्रमण ई दुष्प्रचार किएक कराए रहल छथि!

-“हमरा तँ बुझाइत अदि जे मण्डनमिश्रक विरुद्ध ई कोनो गम्भीर षड्यन्त्र थिक। समाजमे हुनक छवि धूमिल कए संघाराम कोनो विशेष प्रयोजन साधि रहल अछि।”

-“षड्यन्त्र तँ स्पष्टे अछि। हमरा बाल्यकालमे पितामहपाद अपन संस्मरण सुनौने छथि जे कोन प्रकारें एतए संघारामक स्थापना भेल छल। एखनि राजा धर्मपालदेव शासक छथि मुदा आइसँ करीब डेढ सय वर्ष पूर्व दखनि श्रीमान् हर्षदेवक मृत्यु भेले छल ताहि समयक घटना थीक। एखनि हमर वयस शताब्द पुरबामे किछुए वर्ष शेष अछि। हम दश वर्षक रही तखनि हमर पितामह शताधिक वर्षक भए चुकन रहथि। हुनके मुँहसँ सुनल घटना आइयो स्मरण अछि। ओहि समयमे ओ युवा रहथि। ओहो अर्जुनदेवक सैनिकक रूपमे वीरतापूर्वक लड़ल रहथि। एक दिस तिब्बत आ नेपालक सेनाक पराक्रम मौखरि राजा भोगवर्माक आर्थिक सहयोग राज्य हथिअएबा लेल आदित्यसेनक कूटनीति। अहा! धन्य रहथि ओ अर्जुनदेव जे अन्त धरि लड़ैत रहलाह।” ओहि मिश्रमण्डलीक सभसँ वयोवृद्ध दण्डधर मिश्र बजलाह।

-“तखनि की भेलैक बाबा!” हुनक पौत्र पूछि देलकनि।

-“खिस्सा रातिमे कहब। एखनि चलू पहिने भृत्यकुल जाए एहि दुष्प्रचारक प्रतिवाद कए वास्तविकता बुझाए दियैक।”

ओलोकनि सभ झटकारने भृत्यकुल पहुँचलाह। सन्ध्याक समय छल। बाँस, खढ़ आ लकड़ीसँ बनल गोटेक सय घर गोंठिआएल छल। जाहिपर विभिन्न प्रकारक लत्ती लतरल रहय। ओहि टोलक आगाँमे एकटा पोखरि रहैक, जकर चिक्कन आ समतल महारपर विशाल पीपरक गाछ छल। गाछक जड़िमे चारूकात माँटिक गोल चबूतरा बनल रहैक जे असंख्य दीपसँ जगमगा रहल छल। चबूतराक चारूकात टोलक वृद्ध सभ गोंठिआएल बैसल रहथि आ नंगधड़ंग धिया पुता सभ दौड़ा-दौड़ी खेलि रहल छल।

मिश्रलोकनिकेँ बुझल रहनि जे अखनि केओ युवक एतए नै भेटत। कारण जे आपणमे सभ काज करैत अछि। जेहो भरि दिन कृषि कर्म करैत अछि ओकरहु संध्याकाल घंटा दू घंटा लेल मशाल जरएबाक काज आपणमे भेटि जाइत छैक आ एकर बदलामे अन्नसँ अतिरिक्त गृहोपयोगी वस्तु मजूरीक तरे भेटि जाइत छैक। तें मिश्रलोकनि वृद्ध सभक लक्ष्य बनाए ओतए पहुँचलाह आ सभसँ पहिने करमापाक पुछारि कएलनि।

करमापा ओहि टोलक सभसँ मुँहपुरुख रहथि मानिजन कहाबथि। ओ करीब बीस वर्ष पहिने एतहि संघाराममे दीक्षा नेने रहथि आ एक बेर तँ नालंदासँ सेहो घुरि आएल छलाह। संघाराममे रहैत-रहैत किछु प्रवचन करब सीखि गेल छलाह आ अपना भरि पूजा-पाठ सेहो कराए लैत छलाह। ओ विवाह तँ नै कएने रहथि, मुदा छोट भाइक अनुरोधक कारणें संघाराममे नै रहि क’ एतहि टोलेपर फूट घरमे रहैत ओहि टोलक गुरु बनि क’ रहि रहल छलाह। सभ हिनक आदर करैत छलनि आ साँझके एही चैत्यपर ओ अपन उपदेश आ कथासँ लोक मोन बहटारैत छलाह। संघाराममे दीक्षाक बाद ‘करमाʼ नाम भेटलनि जाहिमे आदरसूचक ‘पाद’ शब्द लागि गेल आ ओ एहि भृत्यकुलमे ‘करमापा’ नामसँ प्रचलित भए गेलाह।

नालंदामे रहैत-रहैत ततेक ने प्रवचन सुनने रहथि जे हुनको मोनमे बैसि गेल छल जे बाभन जाति छोटका सभके पयर तर राखि ओकरा कहियो मनुक्ख नै बुझलकै। नालंदा महाविहारमे फरिछाक’ बुझाओल गेल रहै जे वेदमे शूद्रकेँ पयरसँ जनमल कहल गेल छैक ते ओ सभसँ नीचाक जाति मानल गेल आ अपन जन्म मुँहसँ भेल कहि क’ सभसँ ऊपरक स्थान पाबि गेल। संगहि इहो रटा देल गेल छल जे ब्राह्मणक विरोध कएलासँ शूद्रकेँ ऊँच स्थान भेटल, जाहि लेल बौद्धधर्म सदिखन तैयार अछि। भगवान् बुद्धक शरणमे शूद्रकेँ ओ सभटा अधिकार भेटतैक जे ब्राह्मण लोकनि ओकरासँ छीनि नेने छथिन आ तें करमापा बौद्धधर्ममे रमि गेल छलाह।

मिश्र लोकनि जखनि ओतए पहुँचलाह तँ दूरहिसँ देखलनि जे करमापा अपन आसन पीपरक गाछ तर लगाए रहल छथि। लग पहुँचलाह तँ सुनलनि जे करमापा काल्हुक शास्त्रार्थक प्रसंगमे कहि रहल छलथिन्ह।

-“काल्हि अवश्य मण्डनमिश्रक नाक कटि जाएत। महाश्रमण तँ एके तीरसँ दू शिकार कएलनि। शंकराचार्यो बड़े वेद-वेद रटैत छथि। अपनहिमे लड़ि दुनू गोटेक काल्हि नाक कटत। जँ शंकराचार्य हारलाह तैयौ एक खाम्ह झुकत आ मण्डन हारताह तैयो एक खाम्ह खसत।”

मिश्रलोकनिकेँ करमापाक गप्प सूनि सभटा फरिछाए गेलनि। जतबा सोचने रहथि ताहूसँ अधिक दूर धरि बात स्पष्ट भए गेलनि। ओ सभ चैत्यक लग पहुँचलाह तँ करमापाक संग एभ केओ उठि हुनका लोकनिक स्वागत कएल।

-“संध्यामे बाट बिसरि गेलियैक की? एम्हर तँ भृत्यकुलक रास्ता छैक।” करमापा जीह मरोड़िक’ बजलाह।

-“नहि! अहाँ सभकेँ जे झूठ सुनाओल गेल अछि ताहिपरसँपरदा हटाबए आएल छी।’ मिश्रमण्डलीमेसँ कओ बजलाह। “पहिल झूठ थिक जे शंकराचार्यक संग शास्त्रार्थ होएत। सत्य थिक जे शंकराचार्यक शिष्यक संग शास्त्रार्थ आयोजित अछि। दोसर झूठ जे शास्त्रार्थमे हारि-जीतक कोनो गप्प नै छैक जे जँ मण्डनमिश्र हारताह तँ संन्यास लए लेताह। अहाँ सभकेँ ठकल गेल अछि।”

करमापाकेँ मोने मोन हँसी लगलनि- “शंकराचार्यक शिष्य!! सत्यसँ तँ अहूँ सभ दूरे छी मिश्र महाशयलोकनि!!!” मुदा ओ प्रकट नहि भेलाह। महाश्रमण करमापाकेँ अपन निकटतम लोक बुझैत रहथि ते वास्तविकता कहि देने रहथिन्ह जे ओ संन्यासी तँ वस्तुतः मुद्गगिरिक संघारामक माध्यमसँ खोजिक’ आनल गेल एकटा स्थानीय वेदान्ती गृहस्थ थिकाह, जे धनक लोभमे केश कटाए, काषाय वस्त्र पहिरि नेने छथि। मुदा ई भेद कोना खोलताह! तें बजलाह- “राजकीय दण्डधारीक संग ढोलहो देल गेल छैक। ओकरा झूठ केना मानि लेबैक आ मानि लिय’ जे ओ झूठे अछि तँ अहाँकेँ की? आइ धरि तँ अहाँ सभ कहियो सत्य सिखाबए एहि भृत्यकुलमे पयर नै देने रही। सभ दिन तँ इएह ठकैत रहलहुँ जे तों सभ पयरसँ जनमल छेँ तें पयर तर रहल कर।”

-“काल्हुक शास्त्रचर्चाक मादे ई झूठ संघारामसँ प्रचारित कएल गेलैए। ओ मण्डनमिश्र आ शंकराचार्य दुनूके अपमानित करए चाहैत अछि।” एक मिश्र बजलाह। करमापा चाहिते रहथि जे कटुता उत्पन्न कए कहुना असल बातकेँ मोड़ि दी तें बजलाह- “तँ की ओ मण्डनमिश्रक सम्मान करत, जे ‘पद्भ्यां छुद्रो अजायत’ भखैत छथि आ कि शंकराचार्येक आरती उतारत जे हालहिमे अपशूद्राधिकरण लीखि एही बातकेँ भखैत छथि। शंकराचार्य तँ ओएह थिकाह ने जे हालहिमे दक्षिणक राजाकेँ सनकाए बौद्धलोकनिकेँ समुद्रमे डुबा कए आ तरुआरिसँ काटि कए मरबा देलनि। देखि लिय’! कमसँ कम हमरा सभक लग संघारामक कोनो हीनताइ नै करू। ओ हमरा सभकेँ सम्मान देलक ओ अधिकार देअओलक जे अहाँ सभ हरि नेने रही। नालंदामे हमर गुरुदेव सभटा कहने रहथि जे केना ब्राह्मणलोकनि अपने सभसँ श्रेष्ठ बनि गेल छथि।”

“एतहुए एक झूठ बाजि रहल छी अहाँ।” मिश्रलोकनिमेसँ एक टा युवाकेँ नहि रहल गेलनि ओ गरजलाह- ”के कहलक जे शंकराचार्य बोद्धलोकनिकेँ मरबाए देलनि? एना झूठक अट्टालिका ठाढ़ कए की होएत।”

मिश्रलोकनिकेँ करमापाक ई आक्रोश रेहल-खेहल रहनि। कतेक बेरमे एहि प्रकारक विवाद उफस्थित भेल रहनि। तें बात नै बढ़ल। तैयो एक वृद्ध कहि सुनौलनि- “अहाँक गुरुदेव कहियो भद्दसाल जातकक खिस्सा नै सुनौलनि की? अओ करमापाजी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शूद्रमे केवल क्षत्रियकेँ ऊपर कए देलासँ शूद्र तँ ठामक ठामहि रहलाह! ‘जत्तियानं खत्तियो सेट्ठो’ नै कहियो पढओलनि आ ‘छुददो खुद्दो लुद्दो’ वा’ सेहो नै?”

करमापा कने आहत तँ भेलाह मुदा दुधगरि गाइक लथाड़ जकाँ ओकरो सहि गेलाह आ साझे बजलाह- “अहाँ सभ चलि जाउ एतएसँ, हमरा ‘धम्म’क बेर भए गेल अछि। देखियौ बोधिवृक्षक जड़िमे सभटा दीप जरि गेलैक। जाऊ अहूँ सभकेँ ‘अरघ’क बेर बीतल जा रहल अछि।”

मिश्रलोकनिकेँ करमापाकेँ आगाँ किछु कहबाक साहस नै भेलनि आ सोझे अपन बाटपर घुरि गेलाह।

6

रातिमे भोजन करबाक तँ रहनि नहिं तखनि हाथ-पयर धो कए सन्ध्या सम्पन्न कए जहाँ ने दण्डधर मिश्र अपन शय्या धेलनि आ कि हुनक पौत्र आबि तुलाएल आ पूछि देलकनि जे ‘की अहाँक बाबा सेनामे लड़ल रहथि? कोन खिस्साक मादे कहने रहियै बाबा!ʼ

पूर्वजक कथा अनुभावीलोकनिकेँ सुनाएब सेहो आवश्यक छल। तखनि ने इतिहासकपरम्परा बनल रहतैक। दण्डधरक पौत्र आब ततेक छोट नै छलनि। सिद्धिरस्तु रटि चुकल रहनि, उपनयनक बाद लघुपाणिनीय सेहो कण्ठस्थ भए गेल रहैक। बालकक स्मरणशक्तिक सभ प्रकारें परीक्षा भए चुकल छल तें दण्डधरमिश्र अपन पूर्वदक सुनाओक खिस्सा पौत्रकेँ सुनाए स्वयं ओकर गोपनक उत्तरदायित्वसँ मुक्त होमए चाहैत रहथि। ओ करीब डेढ़ सए वर् पूर्वक कथा सुनाबए लगलाह-

“ओहि समयमे मगध, तिरहुत, कामरूप, अवध, ई सभटा क्षेत्र हर्षवर्द्धनक शासनक अधीन छल। ओ धार्मिक प्रवृत्तिक लोक रहथि। अधिक काल यज्ञ सेहो कराबथि आ बौद्धपरम्पराक अनुसार पूजन-दान आदि सेहो करथि। नालंदा विश्वविद्यालक व्यवस्था सभटा स्वयं देखैत छलाह, जाहिसँ छात्रलोकनिकेँ अध्ययनमे कोनो बाध नहिं हो। करीब दूसए गाममे पसरल ई विश्वविद्यालय अद्बुत छल जतए सभ धर्मक अध्ययन-अध्यापनक व्यवस्था रहए। हर्षदेव स्वयं उद्गारमे बाजल करथि जे हुनक प्रजाक जे धर्म सैह हुनको धर्म। ओ कोनो व्यक्तिकपरम्पराक विरुद्ध कोनो आदेश नहिं करथि।

हुनक राज्य अति विस्तृत छल तें ओ सभ क्षेत्रमे अपन शासनप्रतिनिधि नियुक्त कएने रहथि। मगधमे माधवगुप्त छलाह आ तिरहुतमे अरुणाश्व। ई सभ यद्यपि हर्षक प्रान्तीय शासक रहथि आ कर कन्नौजक राजकोषमे जमा करथि, मुदा हर्षक सदाशयताक कारणे अपन-अपन क्षेत्रक वास्तविक राजा बनि गेल रहथि। कारण जे हर्ष हिनक आन्तरिक शासनमे कोनो हस्तक्षेप नहि करैत छलथिन्ह। आ अपन-अपन शासनक्षेत्रमे लोकक मन जितबाक लेल ई लोकनि सभ प्रकारक यत्नमे लागल छलाह।

हर्षक मृत्यु होइतहि मगधमे माधवगुप्तक पुत्र आदित्यसेन आ तिरहुतक अरुणाश्व अपनाकेँ स्वतन्त्र घोषित कए देल। आदित्यसेन युवा छलाह, हुनकामे शौर्य आ उत्साह छल, किन्तु अरुणाश्व वृद्ध भए चुकल रहथि ओ शासनक अनुभव आ बुद्धिमत्तासँ तिरहुतक जनतामे राजसत्ताक प्रति आस्था उत्पन्न कए शासन सुदृढ़ करबामे लागल रहथि। हुनक कालमे प्रजा सुखी आ समृद्धि छल तेँ हुनका प्रति सभकेँ भक्ति रहैक।

तिरहुतक उत्तरमे नेपालक उपत्यकामे नरेन्द्रदेवक शासन छल जे कट्टर बौद्ध धर्मावलम्बी रहथि। तिब्बत आ चीनसँ बड़ नीक सम्बन्ध रहनि जे सभ अपनहुँ बौद्धक महान् केन्द्र छल। तिब्बत वज्रयान आ मन्त्रयानक साधना स्थल छल, चीन तँ एतेक प्रख्यात भए गेल छल जे भारतीय बौद्ध कहल करथि जे भगवान् बोधिसत्त्वक कुमाररूपमे आर्यमंजुश्री चीन देशक पोंग्-चु नगरमे एखनहुँ धरि जिबैत छथि। ओही अवधारणापर आधारित एकटा ग्रन्थ हालहिमे किछु वर्ष पूर्व मध्यदेश मे लिखएल अछि- आर्यमंजुश्रीमूलकल्प। ई ग्रन्थ एतबे दिनमे महायानी साधकक बीच सभसँ प्रामाणिक आ पवित्र बुझल जाए लागल अछि। मुदा कुमार मञ्जुश्री स्वयं बहुत पहिनहिंसँ देवतुल्य मानल जाइत रहलाह आ हुनक निवासस्थानक रूप मे चीन पवित्र आ श्रद्धास्पद देश मानल जाइत रहल।

तिरहुतमे महाराज अरुणाश्व वैदिक धर्मक अनुयायी रहथि। यज्ञक प्रति विशेष आस्था रहनि। कोशीक तटपर हुनक शासन कालमे विशाल यज्ञक आयोजन भेल रहए जाहिमे काशी, मगध आ कामरूपक राजा सेहो सम्मिलित भेल रहथि आ एहि तीनू साम्राज्यक बीच नैतिक एकता सुदृढ़ भेल रहय।

महाराज अरुणाश्व यद्यपि वैदिक आ पौराणिक धर्मक प्रति विशेष श्रद्धालु रहथि किन्तु बौद्ध धर्मक प्राचीन स्वरूपसँ कोनो विरोध नै रहनि। बुद्धक उपदेशक प्रति सश्रद्ध रहनि आ ओकरा ओ अनुकरणीय मानैत रहथि। ‘धम्मपद’क अनुवाद संस्कृतमे कराए ओकर एक सहस्र प्रति अपना राज्यमे विद्वान् सभक बीच वितरण करओने रहथि। बेर-बेर एहि बातक चर्चा करथि जे हिनक उपदेशक अनुपालनसँ समाजक उत्थान अवश्य भए सकैत अछि।

मुदा महायानक मन्त्रयान आ वज्रयानसँ हुनका विरोध छलनि। नेपाल, तिब्बत आ चीनमे जे मन्त्र-साधनाक नामपर कदाचार आ वज्रयानमे जे यौनाचार पसरल जा रहल छल, तकरासँ तिरहुतकेँ मुक्त राखए चाहैत रहथि। दक्षिण भारतहुमे ई बौद्ध तन्त्र-मन्त्र पसरि गेल छल। पण्ढरपुर, श्रीशैलम् आदि स्थानपर बौद्धलोकनि अपन अड्डा जमा चुकल रहथि आ अशिक्षित जनता सभमे सेहो तन्त्र-मन्त्र प्रचलित भए गेल छल जाहिसँ अथर्ववेदक वैदिक तन्त्र विकृत भए रहल छल।

तिरहुत भौगोलिक दृष्टिसँ तीन प्रकारक क्षेत्रमे बँटल छल- कोशी-स्कन्ध, कमला स्कन्ध आ गण्डकी स्कन्ध। एहिमे कोशी-स्कन्ध पूर्वी मिथिला छल जे राजनीतिक दृष्टिसँ उन्नत रहय। अंग, पुण्ड्रवर्धन, बंग आ नेपालक सीमा लग ई क्षेत्र रहय। कमला-स्कन्ध जलाप्लावित आ दुर्गम क्षेत्र छल। सदानीराक मुख्य धारामे परिवर्तन भए गेलाक कारणें गण्डकी-स्कन्ध सेहो ह्रद आ स्रोतसँ भरल छल।

जखनि हर्षदेव जिबिते रहथि तखनहिं चीनसँ वाँग पो-चु नामक राजदूत नेपाल होइत तिरहुतमे ओहि सभ प्रदेशक भ्रमण करबाक योजना बनाओल, जतय बुद्धक प्रथम पाँच शिष्यमेसँ तीन मैथिल शिष्यक जन्मभूमि रहय। जखनि नेपालक माध्यमसँ सुनिश्चित भए गेलनि तँ अपन ओहि धर्म-यात्राकेँ राजकीय यात्रामे बदलिक’ सुख-सुविधाक प्रत्याशामे राजा अरुणाश्वकेँ संवाद देल।

वाँग-पो-चु स्वयं तँ महायानी रहबे करथि, हुनक दलमे अनेक सिद्ध तान्त्रिक लोकनि रहथि। राजा अरुणाश्व हुनक एहि यात्रासँ चिन्तामे पड़ि गेलाह आ राजकीय सभा बजाओल गेल। एहिमे क्षेत्रीय सामन्त लोकनिक संग-संग प्रतिष्ठित विद्वान् सभकेँ बजाओल गेल। दूर दूरसँ तँ विद्वान् सभ नहि पहुँचि सकलाह मुदा कोशी-स्कन्धसँ ततेक वैदिक विद्वान् पहुँचल रहथि जे राजमहलक भीतर सभाक आयोजन सम्भव नै भए सकल तँ धर्ममूला नदीक तटपर रउटी लगा क’ ई आयोजन भेल।

सभामे सभ बैसि गेलाह तखनि राजा अरुणाश्व घोषणा कएलनि- “मिथिला आर्थिक दृष्टिसँ कहियो समृद्ध नै रहल। एतए ने तँ पर्वते अछि आ ने समुद्रक कछेर। जलमय प्रदेशक अधिकताक कारणें कृषियोग्य भूमि सेहो अल्प भेल जा रहल अछि। कृषक लोकनिक आधा शक्ति खेतमे उगैत वनकेँ उपटएबामे खर्च भए जाइत छनि। तखनि विद्या एहि ठामक सम्पत्ति रहलैक अछि आ आइ हम गौरवान्वित छी जे हमर एहि सभामे मात्र सुगम्य क्षेत्रसँ आएल एतेक विद्वान् उपस्थित छथि! आइ जे हमरा सोझाँ समस्या उपस्थित भेल अछि ओ मिथिलाक धार्मिक, सांस्कृतिक आ सामाजिक विषयसँ अछि तें एहि विषयपर विद्वानलोकनिक निर्णय बुझलाक बादे कोनो कार्य करय चाहैत छी। एहि विषयपर जे विद्वान् अपन मत राखए चाहथि हुनक स्वागत अछि। मन्त्रीकेँ आदेश देल जाइत अछि जे उपस्थित समस्याकेँ यथावत् विद्वान् सभक समक्ष राखथि।”

मन्त्री सभा आ राजाक अभिवादन कए सभटा सुनाए देल। हुनक बात खतम होइते सान्धिविग्राहिक उठिक’ ठाढ़ भेलाह। राजाक ध्यान आकृष्ट भेल तँ ओ बजलाह- ‘महाराज! एखनहिं गुप्तचर एहीसँ सम्बद्ध एकटा महत्त्वपूर्ण सूचना लए आएल अछि। जँ आदेश हो तँ प्रकाशित कएल जाए, जाहिसँ विद्वान् लोकनिकेँ विचार करबामे सुविधा हो।”

-“अवश्य! एहि विषयसँ सम्बद्ध कोनो सूचना गुप्त नहि राखल जाए।” महाराज बजलाह।

-“गुप्तचर एखनि सूचना लए आएल अछि जे ओ चीनी राजदूत बुद्धक तीन प्रतिमा अनताह आ ओही तीनू ग्राममे स्थापित कए संघारामक संग अन्नशाला बनओताह जतए नेपाल आ चीनक सहयोगसँ लोककेँ भोजन कराओल जाएत।”

-“अएँ! एतेक दूर धरि योजना अछि!’ महाराज चौंकलाह।

 विद्वान् लोकनिक मण्डली स्तब्ध भए गेल। मुदा महाराजक संकेत पाबि एकटा विद्वान् उठलाह आ कहल- “महाराज! अपने हमरा सभकेँ एतेक सम्मान देल एहिसँ गौरवान्वित छी। यद्यपि ई विषय सान्धिविग्राहिक, धर्माधिकरणिक, महामात्य आ महाराज एहि चारूक सम्मिलित वार्तासँ निर्णय लेबा योग्य अछि, तथापि आदेशानुसार अपन मन्तव्य राखए चाहैत छी। मिथिला वैदिक धर्मक केन्द्र रहल अछि। एतए जनक आ याज्ञवल्क्यकपरम्परा रहल अछि। वैदिक यज्ञसँ मृत्युलोक के पार कए ज्ञानकाण्डक द्वारा मोक्ष प्राप्त करब एहि ठामक संस्कृति रहल अछि। हमरा लोकनिक मान्यता अछि जे यज्ञादि कर्म कएलाक बादे केओ ज्ञानक अधिकारी भए सकैत छथि। मण्डनमिशअरपाद जे अत्यधिक वृद्धावस्थाक कारणें एतए स्वयं उपस्थित नै भए सकलाह, मुदा हुनक लिखल ब्रह्मसिद्धसँ हमरालोकनिकेँ हुनक आशय बुझबामेँ कोनो तारतम्य नै अछि। एहिपरम्पराकेँ अक्षुण्ण राखब हमरालोकनिक दायित्व थिक आ वेदकेँ सुरक्षित राखबपरम धर्म थिक। एहि स्थितिमे प्रस्तुत विषय बड़ महत्त्वपूर्ण जाइत अछि। प्रथम दृष्टिमे चीनसँ ओ राजदूत वाँग-पो-चु हमरा लोकनिक अतिथि थिकाह, हुनक सत्कार करबाक चाही, मुदा हुनक ई धार्मिक यात्रा थिक तें एकरा राजकीय दृष्टिसँ ओतेक महत्त्वे नहि देल जाए।”

आरो आरो विद्वानलोकनि विभिन्न शब्दावलीमे बजलाह मुदा सभक आशय यैह रहनि जे ई धर्मयात्रा थीक तें एकरा राजकीय दृष्टिसँ ओतेक महत्त्व नै देल जाए आ बुद्ध मूर्तिस्थापन बए कैत अछि, मुदा संघागामक स्थापनासँ यथासंभव रोकल जाए। अन्तमे सभाक निर्णय भेल जे महाराज स्वयं घोषित कएल-

“एहि विषयपर जे मतवाद उपस्थित भेल आ निर्णय लेल गेल से एहि प्रकार अछि। ओहि चीनी यात्रीक स्वागतमे विद्वानलोकनिक शिष्य-मण्डली रहथि जे ओहि क्षेत्रसँ परिचित होथि। ओहि शिष्य-मण्डलीक संग किछु सैन्यबल रहत जाहिसँ रात्रिविश्राम आ यात्रामे हिंस्र-पशुसँ कोनो आघात नहि होनि। मूर्ति-स्थापन, संघारामक निर्माण आ अन्नशाला-निर्माणक अनुमति नहि देल जाइन आ जँ बलात् किछु करथि तँ प्रशासन हुनका रोकय। ई तीन निष्कर्ष भेल। एहिपर किनको आपत्ति हो, तँ फेर विमर्श भए सकैत अछि।”

सम्पूर्ण सभा करतल ध्वनिसँ महाराजक निर्णयक अनुमोदन कएलक। तखनि फेर महाराज घोषणा कएल- “सभाक ई निर्णय समस्त जनतामे प्रसारित कएल जाए आ जनिका कोनो आपत्ति हो से प्रतिवाद करथि।”

महाराज आसनसँ उठलाह तँ सभा विसर्जित भेल आ वैदिक लोकनि समवेत स्वरसँ गओलनि-

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूणस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

7

“बाबा, तखनि की भेलैक?”- दण्डधर मिश्र कथाक एक प्रसंग सुनाए जहाँ चुप भेलाह कि हुनक पौत्र टोकि देलकनि। फेर ओ दोसर अंश आरम्भ कएलनि-

मगधमे आदित्यसेनकेँ अफसदक आयोजनसँ घुरलाक बाद दू टा शुभ समाचार एकहि संग भेटलनि आ ओकरा ओ भगवान् विष्णुक सद्यःकृपा बुझलनि जनिक एक धनुष परिमाणक विशाल प्रतिभाक स्थापना कराए घुरल रहथि। प्रथम समाचार हुनका अपन महारानी द्वारा प्राप्त भेल रहनि जाहिमे हुनक पुत्री मल्लिका आ कामरूपक युवराज भोगवर्माकपरस्पर आकर्षणक संकेत रहैक। ई घटना सद्यःघटित भेल छल, ओही अफसदक आयोजनक क्रममे, जाहिमे कामरूपक मौखरि नरेश भास्करवर्मन् अपन परिजन आ पुरजनक संग आहूत छलाह। आ भोगवर्माकेँ देखिते राजमाता देवीके पौत्री मल्लिकाक रक्तिम होइत कपोल आ स्थिर होइत आँखि स्मरण भए गेल छलनि। हुनक इच्छा जानि मल्लिकाक सहचरी सभ दुनूकेँ प्रस्फुटित होएबाक प्रायोजित अवसर प्रदान कएने छल।

ई सभटा महाराज आदित्यसेनक लेल हर्षक विषय छल आ ओ अपने माताक प्रति श्रद्धासँ भरि गेल रहथि। मगध आ कामरूपक बीच ई वैवाहिक सम्बन्ध भए जाए तँ बुझू जे हर्षवर्धनक उत्तराधिकारीलोकनि कहियो मगध दिख कुदृष्टि नहि रखताह। आ एहि सम्बन्धक संबलपर तिरहुतकेँ जीतब आसान भए जाएत। कारण जे युवराज भोगवर्मा हर्षवर्धनक बहिन राज्यश्रीक पौत्र रहथि आ तिरहुतक राजा अरुणाश्वके राजद्रोह कए स्वतन्त्र घोषित करबाक दण्ड देबाक व्याजसँ अपना अधीन करबामे कन्नौजक सेना आ कामरूपक सहयोगक अपेक्षा छलनि।

दोसर समाचार तिरहुतसँ प्राप्त छलनि। राजा अरुणाश्वक शासन मे चीनी राजदूतक आगमन कारणे जे भू-चाल आएल छल, इहो आदित्यसेनकेँ ओहने प्रसन्न कएलक, जेना व्याध अपन लक्ष्यके, जालमे फँसैत दखि प्रसन्न होइल अछि। मुदा तिरहुतक ई समाचार किछु पहिने घटित भेल सन बुझएलनि जाहिसँ लाभ लेबाक लेल तत्काल प्रस्तुत नहि छलाह। तथापि एहि स्थितिमे राजमाताक मन्त्रणापर अवश्य विश्वास छलनि। आदित्यसेन प्रातःकालक प्रतीक्षामे सुमधुर स्वप्न देखैत निद्रामे निलीन भए गेलाह।

प्रातःकाल जखनि नियत समयपर महाराज सिंहासनपर बैसलाह तँ प्रतीहारी दू टा दूतक आगमन सूचना देलकनि। एक दूत नेपालसँ आएल छल। नेपालक महाराज नरेन्द्रदेवकेँ पुत्ररत्नक प्राप्ति भेल छलनि। एहि उत्सवक अवसरपर ओ सभ राजाकेँ आमन्त्रित कएने रहथि, जाहिमे आदित्यसेनक लेल विशेष आग्रह छलन्हि, तें अपन छोट भाइकेँ सेहो पठओने रहथि। दोसर दूत महाराज अरुणाश्वक छल। ओ कौशिकीक तटपर राजसूय यज्ञक आयोजन कए देने रहथि, जाहिमे वैदिक आ पौराणिक धर्मक अनुयायी पड़ोसी राजा सभकेँ आमन्त्रित कएन रहथि। आदित्यसेन दुनूकेँ आतिथ्य स्वीकार करबा लेल आग्रह कए स्वयं विचार-विमर्श लेल माताक कक्ष दिस चलि देलनि।

राजमाता देवी अपन कक्षमे भगवान् विष्णुक मूर्तिक सोझाँमे ध्यानस्थ छलीह। जहियासँ माधवगुप्तक मृत्यु भेलनि आ आदित्यसेन शासन कार्यसँभारलनि तहियासँ ओ पुत्रक कल्याणक लेल सदिखन भगवानक ध्यानमे लीन रहए लगलीह। शयनकक्षमे पुत्रके उपस्थित देखि हुनका बैसबाक संकेत कएल आ भगवानक नैवेद्य आ आरती लए पुत्रकेँ अशेष आशीर्वाद देलनि।

आदित्यसेन किछु कहबाक लेल उत्सुक भेलाह तँ राजमाता कहलथिन्ह- “हमरा सभ किछु बुझल अछि। तिरहुतमे जे राजसूय यज्ञ छैक, ओकर एकमात्र उद्देश्य बौद्धक विरोध करबाक लेल राजा सभकेँ संगठित करब अछि। अहाँकेँ एहिसँ उदासीन रहबाक चाही। तखनि नेपालक नरेन्द्रदेवक निमन्त्रण स्वीकार्य अवश्य अछि, मुदा बालकक जन्मोत्सव तँ वर्ष भरि रहतैक। एखनि अहाँ माता कामाख्याक दर्शन लेल तीर्थयात्रापर महारानी कोणदेवी आ राजकुमारी मल्लिकाक संग निकलि जाउ। मगधके हमसँभारि लेब। भास्करवर्मनकेँ अपन तीर्थयात्राक सूचना दए दियन्हु।”

आदित्यसेन राजमाताक चरण छुबि महारानी कोणदेवीक कक्षमे पहुँचि गेलाह आ ओतहिसँ महामात्यक द्वारा दूत सभकेँ उत्तर पठबाए स्वयं कामरूप पर्वतपर स्थित भगवान् सूर्यदेव आ माता कामाख्याक दर्शन करबाक योजना बनावए लगलाह।

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