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महाराज हर्षक शासनमे मिथिलाक उत्तरी सीमापर सैनिक प्रबन्ध रहबे करए। कारण जे नेपालक लिच्छवि शासकलोकनि हर्षक अधिकारमे नहि छलाह। जखनि अरुणाश्व अपनाकेँ स्वतन्त्र घोषित कएल तँ ओहि प्रबन्धके आर मजबूत कए देल गेल छल। एक कोसपर पूब आ आध कोस पश्चिमक प्रदेशक रक्षा करबाक लेल प्रत्येक दू कोसपर एक-एक टा सैन्य केन्द्र बनाओल गेल। सभ केन्द्रपर एकटा नगाड़ा राखल छल। कोनो प्रान्तरमे शत्रुक सेनाक प्रवेशक आशंका होइतहि ओ नागाड़ा बजा देल जाइक आ ओकर शब्द जाहि शिविरक लोक सुनए ओहो नगाड़ा बजाए दियय। एहि प्रकारे समस्त सीमावर्ती क्षेत्र सभटा सैन्यबल साकांक्ष भए अपन अपन प्रान्तरक रक्षा लेल सन्नाह पहिरि लियय। एतबे नहि प्रत्येक चारिम शिविरपर विशेष बल राखल गेल रहए जे योजक शिविर कहाबए आ प्रत्येक योजक शिविरक बीचक दूरी एक योजन कहाबए। ई व्यवस्था प्राचीन कालसँ आबि रहल छल आ तें सीमा अभेद्य बूझल जाइत छल। नेपाली आ तिब्बती सेनाक सम्मिलित आक्रमणक सूचना भेटलापर महाराज अरुणाश्व किछु केन्द्रीय बल ओतए पठाए एहि आक्रमणसँ निश्चिन्त भए गेलाह।

जेना प्रकृतियोके ई कहियो भान नै भेलैक, जे नेपाल आ मिथिलाक बीच कहियो युद्ध भए सकैत अछि। नेपालमे जनमि अनेक नदी मिथिलामे जुआनीक करियाझुम्मरि खेलाइत बहि रहल छल, जकरा सीमामे अवरुद्ध नहि कएल जा सकैत छल। महाराज अरुणाश्व स्थल प्रदेशकेँ तँ सैन्यबलसँ दुर्भेद्य बना देलनि, मुदा नदीमार्गसँ नाव द्वारा रातुक अन्धकारमे असंख्य सैनिक गामे गाम केना पसरि गेल से केओ नहि बुझलक।

प्रातःकाल जा धरि राजा ई ज्ञात भेलनि ता धरि तँ धमनीक रक्तमे प्रविष्ट विष जकाँ सौंसे तिरहुत शत्रुक सैन्यसँ आक्रान्त भए चुकल छल। सभसँ बेसी सैन्यबल धेमुड़ाक कछेरमे उतरल, कारण जे एही दलमे स्वयं वाँग-पो-चु सेहो रहथि आ हुनका संग चीन आ नेपालक अनेक मण्डलाचार्य सिद्ध सभ छलथिन। वाँग-शि-त्सांग् जहियासँ राज्याश्रय छोड़ि स्वतन्त्र भए गेलाह, तहियेसँ वाँग-पो-चु मण्डलाचार्य सिद्ध सभक अन्वेषणमे लागि गेल रहथि, जाहिमे नेपालेश्वरक पर्याप्त सहयोग भेटल रहनि।

वाङ्-पो-चुक एकेटा जिद्द छल जे कहुना महिषीमे धर्मकीर्ति द्वारा पूजित स्थलपर देवी ताराक मूर्ति स्थापित करी आ संघाराम बनावी। तें सैन्यदलकेँ आन कोनो काज नै रहैक। ओकरा आदेश भेटल रहैक, जे ओहि निर्द्दिष्ट स्थानके घेरि कए मुस्तैद रहए। कोनो निःशस्त्र ग्रामीणसँ विरोधक स्वरमे गप्पो नै करए। अपना समीप आएल ब्राह्मण लोकनिक अभिवादन करए आ एहन कोनो कार्य नै करए जाहिसँ ग्रामीणमे आक्रोश पसरए। केवल राज्य सैनिक आ कार्यमे बाधा उत्पन्न कएनिहार कोनो व्यक्तिक सामना करए।

सैनिक ओहि स्थानकेँ घोरि कए सन्नद्ध भए गेल आ ओकर भीतर मण्डलाचार्य लोकनि मण्डल, वेदिका आ मण्डप निर्माणमे लागि गेलाह। नेपालसँ आएल मूर्तिकारकेँ आर्या ताराक मूर्ति बनएबाक आदेश भेटलैक। चन्दन, कुंकुम, बगरु, कस्तूरी, गुग्गुल, घृत, कुश, पुष्प, अक्षत, मएनापात, पसीजक गाछ, दूध, दही, गोंत, गोबर आदि लेल सैनिक’ अलक्षित रूपें आपण ग्रामक दौड़ करए लागल।

एतेक पैघ अतीतगाथा सुनैत-सुनैत दण्डधर मिश्रक ओ पौत्र पता नै कखनि सूति रहल छल। कथा कहबाक झोंकमे ओहो भाँसि गेल रहथ तें ई बुझबो नै कएलनि। एतए आबि ध्यान गेलनितँ ओ नेना निभेर छल। इहो कथाकेँ एतहि विराम दए निद्रादेवीक आह्वान कएल।

13

प्रातःकाल होइतहिं दैनिक कर्मसँ निवृत्त भए आपणग्रामक धनाढ्य वैदिकलोकनि दण्डधर मिश्रक घर पहुँचि गेलाह। ओहि गाममे सर्वाधिक वृद्ध ओएह रहथि तें हुनका प्रति सभक मोनमे विषेश आदर भाव छल। संगहिं हुका अपन पितामहक मुँहें सुनल सभटा अतीत गाथा बुझल छलनि जे एहि संघारामक स्थापना कोना भेल। वाँग-शि-त्सांग् चीनी प्रशासनसँ अलग भए अपन योग्यताक बलपर एकर स्थापना कएल। महाराज अरुणाश्वपर चीनी आक्रमणक बाद की भेलैक, सेहो विस्तारसँ केवल दण्डधर मिश्रकेँ बुझल रहनि।

मुदा आइ सभसँ आवश्यक छल जे संघारामक शास्त्रार्थ मे पहुँचि मण्डनमिश्रक संग कोनो असहज घटना भेलापर हुनक पक्ष लए समर्थन कएल जाए। तें आपण ग्रामक वैदिक लोकनि सजि-धजिकेँ जाए चाहैत रहथि। अश्व, गज, रथ, मल्लभृत्य- जतेक जे साधन छलनि सभटाकेँ संग लए जेबाक विचार  कए ई सभ दण्डधर मिश्रक अनुमतिक प्रतीक्षामे हुनक घरपर पहुंचल रहथि जे हुनक जँ अनुमति होएत तँ सकल साधनसँ सम्पन्न भए चली जे महाश्रमण जँ कनेको बदमासी करताह तँ पकड़ि थकुचि देबनि। यद्यपि संघाराममे सेहो एकटा छोटछिन सेने बुझू, हरदम रहैत छल। तें ई लोकनि सावधान भए जाए चाहैत छलाह।

दण्डधर मिश्र हुनकालोकनिकेँ एतबे कहल जे तैयार भए चली से कोनो बेजाए नहिं, मुदा ओकर आवश्यकता नै पड़त। मण्डन मिश्र कुमारिलक शिष्य थिकाह तें हमरालोकनि जकाँ बौद्धधर्मक गूढ़ वस्तुसँ अपरिचित नै छथि। हुनकापर पूर्ण विश्वास अछि जे ओ अवश्य विजयी हेता आ अपन विद्वत्तासँ ओहि शांकरशिष्य आ महाश्रमणकेँ निरुत्तर करताह।

सभ अपनहिं घरपर भोजन कए जाए चाहैत रहथि तें हुनकालोकनि लग पर्याप्त समय रहनि। दण्डधर मिश्र अपन गृहवाटिकाक बीच एकटा विशाल मण्डप बनौने रहथि तें सभकेओ ओतहि बैसि गेलाह। दण्डधर मिश्र सभकेँ पुछलथिन्ह जे जँ अहाँलोकनिक घरमे भोजन बंद करा दियैक  हमरहि ओतए सभ भोजन कए संगहि चली तँ कोनो हर्ज?

सभ की बजताह। दण्डधर मिश्रक प्रत्येक कथन हुनका लोकनिक लेल आदेश छल। तखनि की, दण्डधर मिश्रक भृत्य दौड़ल आ सभघर घुरि समाद कहि आएल आ अपनहिं आँगन मे विशाल भोजक व्यवस्थामे लागि गेल।

ताबत ई लोकनिक सेहो दण्डधरमिश्रसँ अतीत गाथा सुनए चाहैत रहथि जाहिसँ आइए संघाराम गेलाक बाद अज्ञानताक कारणें कोनो असहज स्थित नहिं हो। वस्तुतः ई लोकनि आइ पहिल बेर संघारामक बाहर बनाओल दुर्गक भीतर पहिल बेर जाए रहल छलाह। एहिसँ पहिने दूरहिसँ कदलीवन मात्र देखने रहथि।

एकगोटे पुछलनि- “हमरा एतबा बुझल अछि जे चीनदेशक ओ राजदूत तिब्बती आनेपाली सेनाक आश्रय लए एही क्षेत्रपर भयंकर आक्रमण कएल, जाहिमे पराजित भए महाराज अपन स्कन्धावार छोड़ि भागि गेलाह। मुदा ओ कतए गेलाह से किनको ज्ञात नहिं।”

-“हमरा बुझल अछि। दण्डधर मिश्र बजलाह। हमर पितामह स्वयं अरुणाश्वक स्कन्धावारमे रहेत रहथि तें हुनका सभटा ज्ञात रहनि। ओ कहने रहथि जे जखनि तिब्बती आ नेपाली सेना नदीक रास्तासँ गामे गामे पसरि गेल आ स्कन्धावारकेँ घेरि लेलक तखनि महाराजक प्राण संकटमे पड़ि गेल। ओ सोचलनि जे दक्षिणमे गंगा पार कएलापर आदित्यसेनक साम्राज्य अछि जे हालहिमे वराहदेवक मूर्ति स्थापित कएने छथि तें ओ बौद्धधर्मक विरुद्ध युद्ध कएनिहारक रक्षा कए सकैत छथि। ई अबधारि राजा किछु विश्वस्त सैनिक आ भृत्यकेँ संग कए अपन स्कन्धावारकेँ छोड़ि राताराती दक्षिण दिस बढलाह। अगिला दिन गंगाक तटपर पहुँचलाह तँ ओतए आर-पार गेनिहार नाविकक द्वारा ज्ञात भेलनि जे ओहि पार आदित्यसेनक सैनिक सभ बजैत छल जे एहि युद्धक समय जँ तिरहुतसँ कोनो राजा गंगापार करथि तँ सैनिककेँ सूचना कएल जाए। हुनका पकड़ि लेबाक अछि। नाविक सभ एही पारक छल आ ओ सभटा जनैत छल तें राजाकेँ चेताए देलकनि जे ओहि पार नहिं गेल जाए।

आब अरुणाश्वक लेल चिन्ताक विषय छल। हालहिमे योजित यज्ञमे आदित्यसेनक अनुपस्थितिए टा नहिं, एकोटा प्रतिनिधियोक नै आएब नाविकक कथनकेँ समपुष्ट करैत छल जे गंगाक ओहि पार गेलापर सम्भव थीक जे आदित्यसेन हुनका पकड़ि नरेन्द्रदेवक अधिकारमे सौंपि सकैत छथि। कारण जे मगध बौद्धक केन्द्र छल आ नरेन्द्रदेवक संग आदित्यसेनकपरम घनिष्ठता छलनि। जँ ओ नरेन्द्रदेवक द्वारा पकड़ि लेल जाइत छथि तँ हुनक वध निश्चित अछि तें गंगापर करब वस्तुतः भुखाएल बाघक सोंझा जाएब होएत।

तखनि अरुणाश्व नाविककेँ आदेश दए गंगाक बीच देने धाराक अनुकूल पूर्व दिशा दिस चलबाक आदेश देलनि। नाविक सेहो एहन आपात स्थिति अपन राजाक संग रहब सौभाग्य बुझलक आ सभसँ मजबूत नाव लए पूर्व दिशा दिस चलि पड़ल।

राजा अरुणाश्व गौड़ प्रदेशक लक्ष्य कए चललाह जतए शशांक वैदिक धर्मावलम्बी रहथि आ हालहि कएल यज्ञमे जाहि प्रकारें ओ स्वयं उपस्थित भए अतिथिक रूपमे नै, अपितु एकटा अनुज जकाँ सदिखन सभ काज करबाक लेल तत्पर रहल छथि, तें हुनका आत्मविश्वास छलनि जे जँ गौड़क सीमामे प्रवेश कए जाएब तँ प्राण सुरक्षिते टा नहिं रहत, अपितु शशांकक दिससँ सैन्य सहयोग सेहो भेटत, जाहिसँ नेपाली आ तिब्बती सेनाक संग पुनः युद्ध कए ओकरा भगाओल जा सकैत अछि।

नाव पूर्व दिशा दिस चलल। धाराक अनुकूल रहबाक कारणें गति तीव्र छलैक। केवल जलावर्तमे फँसबासँ बचाएब नाविकक काज छलै। नाव अपनहिं बढल जा रहल छल। नाव सायं होइत होइत कौशिकी आ गंगाक संगमपर पहुंचि गेल। एतए कौशिकीक धारा उत्तर दिशासँ अएबाक कारणें गंगाक धारा ठमकि जकाँ गेल छल। नाविकक कहलापर एही ठाम रात्रि विश्रामक व्यवस्था कएल। नाविक कहलकनि जे एक बाद यात्रा सावधानीसं करबाक होएत। काल्हि हमरालोकनिकेँ कोनो प्रकारें गौडक सीमामे पहुँचए पड़त कारण जे गंगाक उत्तर तटपर कामरूपक सैनिक रहैत अछि। गौड़क संग सभखन युद्धक आशंका बनल रहैत छैक। जँ सैनिककेँ संदेह भए गेलैक जे हमरालोकनि गौड़देश जाए रहल छी तखनि ओ सभ सक्रिय भए जाएत आ घेरि लेत। नाविक गंगाक एहि धारासँ पूर्ण परिचित छल आ कतेको बेर गंगासागर संगम धरित यात्रा कएने छल। विभिन्न प्रकारक लोकक संग वार्ता भेलासँ तटवर्ती क्षेत्रक राजनीतिकेँ सेहो जनैत छल। संगहिं इहो मन मे रहैक जे महाराजक एहि यात्रामे कोनो प्रकारक असावधानी नहिं कएल जाए। तें नाविक अपन सभटा कौशल आ बुद्धि लगाए नाव नेने बढ़ल जा रहल छल।

अरुणाश्व सोचलनि जे कामरूपक मौखरिवंश सेहो शैव धर्मक अनुयायी अछि तें जँ कामरूपो धरि पहुँचि जाएब तँ बौद्ध आक्रमणसँ त्राण भेटत। नाविककेँ कहलनि जे कोशी पार केलाक बाद गंगाक उत्तर तट देने चलबा मेँ कोनो हर्ज नै। ओ देखने रहथि जे गंगाक बीच देने नावकेँ आगाँ लए जेबामे जलावर्तसँ बचबाक लेल नाविककेँ बड़ शारीरिक परिश्रम करए पड़ैत छैक!

मुदा नाविक कहलकनि- एहि मार्गमे हम अपनेक बात नै मानब। हम जखनहिं तटवर्ती प्रदेश होइत निकलब कि सैनिक सभ घेरि लेत। बीच देने गंगासागरक तीर्थयात्री बूझि आगाँ निरापद भए जाए सकब। दूरसँ आएल यात्रीकेँ लए गंगासागर धरि जेबाक लेल गंगाक बीचक मार्ग सुनिश्चित अछि। संगहिं कर्णसुवर्ण सेहो गंगाक दक्षिणी तटपर अछि, तें हमरालोकनि दक्षिणिए तटक निकट देने आगाँ बढी से उचित।

मुदा भावी टारल नहिं जाए। नाव जखनि चम्पासँ आगाँ बढल तखनहिं गंगाक धारामे महान् परिवर्तन आबए लागल। बेर बेर जलावर्त भेटए। दूरसँ किछु नै बुझाए मुदा लग गेलापर ओकर भयंकर रूप देखि नाविक सेहो त्रस्त भए दाए। एम्हर दक्षिण तट दिस पर्वतीय प्रदेशक कारणें जलमग्न शिलाखण्डसँ टकराए नाव टूटि जेबाक भय रहेक आ बीचक मार्गमे जलावर्तक भयंकरता। एक ठामतँ सभकेँ भेलनि जे आब नै बचब। तखनि अनिच्छो मे गंगाक उत्तरे भाग देने नावकेँ बढाबए पडल। मार्गमे ततेक ने व्यवधान उपस्थित भेलैक जे ओहि दिन फेर सन्ध्या भए गेलैक आ नावकेँ कछेर लगाए रात्रि विश्रामक आवश्यकता भेलनि।

नाविककेँ सभटा स्थान देखल रहैक तें ओ एकटा तीर्थपर नाव रोकि विश्रामक व्यवस्था ककरए लागल। नहाराज अनुचर सभ सेहो अपन अपन काजमे लागि गेल। ओ तीर्थ कामरूपक शासनक अंतर्गत छल। महाराज अपन बुद्धिसँ निश्चिन्त रहथि। मात्र नाविक टा सचेष्ट छल। राति बितएबाक लेल स्थान तकैत काल महाराजक एक अनुचरक द्वारा ई व्यक्त भए गेल जे ई तिरहुतक राजा अरुणाश्व थिकाह। हिनका स्थान तँ लगले भेटि गेलनि मुदा ई सूचना राजाक सैनिककेँ भेटि गेलैक  रातिअहिमे विश्राम करबाक काल हिनका पकड़ि लेल गेल।

महाराज आश्वस्त रहथि जे कामरूपक राजा कोनो एहन काज नहिं करताह जाहिसँ हमर अनिष्ट हो। मुदा से भेलनि नहिं। अगिला दिन हुनका सैनिक बंदी बनाए मराजाक दरबार मेँ लए गेल। ओतहु भाकरवर्मन्सँ भेल वार्तालाप मे कोनो संदेह नहिं भेलनि। बुझएलनि जे जेना हुनक स्वागते भए रहल हो। हुनका राजकीय व्यवस्थाक संग एकटा महलमे राखल गेल। महाराजक भ्रम ता धरि रहबे कएल मुदा अगिले दिन ओ भ्रम टुटि गेलनि जखनि भास्करवर्मन् हुनका अपन ससुर नरेन्द्रदेवक सैनिकक हाथ लगाए देलनि।

महाराजक हत्या कए देल गेल आ भास्करवर्मनकेँ पुरस्कारक रूप मे तिरहुतक कोशी स्कन्धक बहुतो भू-भाग हुनका भेटल। एम्हर आदित्यसेन सेहो यथाशक्ति गंगाक उत्तर अपन अधिकार जमाए तिरहुतक अंश लुझलनि। नेपालकेँ तँ सभसँ बेसी लाभ भेल। कृषियोग्य भूमि बहुत भेटलनि आ बुझू जे सौंसे मिथिलापर अपने राज्य स्थापित भए गेलनि। कहबाक लेल तिब्बती सेनाक शासन मे तिरहुत आबि गेल मुदा असल भोग केलनि नेपालक सम्राट् नरेन्द्रदेव।

दण्डधर मिश्र अतीत गाथाकेँ केनेक विश्राम देलनि। एखनहुँ बड़ समय छल। भोजन बनिए रहल छलैक। तें बीचमे ताम्बूलपरसल गेल आ फेर दण्डधर मिश्र गाथा आरम्भ कएल।

सत्य पूछी तँ ओएह समय छल जखनिसँ वैदिक धर्मक ह्रास होमए लागल। त्रिबिष्टपक सेना जखनि सौंसे कोशी-स्कन्धमे पसरि गेल तखनि नेपाल, त्रिबिष्टप आ चीनसँ भाँति-भाँतिक महायानी आबए लगलाह आ यत्र-तत्र संघाराम, मन्दिर आदि बनए लागल। यद्यपि कमला स्कन्ध सेहो जलसँ प्लावित रहलाक कारणें दुरूह छल, मुदा ई लोकनि कमलाक विभिन्न प्रवाह होइत नाव द्वारा सौंसे पसरि गेलाह आ दीन-हीन जनताकेँ किछु लोभ दए अपना दिस आकृष्ट करबामे सफल भेलाह। बहुतो स्थानपर आर्यताराक मूर्ति स्थापित भेल, जनिका मातृशक्तिक रूपमे प्रचारित कए वैदिक धर्मावलम्बी सभकेँ सेहो ओहि दिस आकृष्ट कएलनि।

एही क्रममे वाँग-शि-त्सांग्केँ अवसर भेटल। ओ आकाशमार्गसँ महिषी पहुंचलाह आ पूर्व निर्धारित स्थानपर आर्या ताराक मूर्तिक संगहि शयनमुद्रामे बुद्धदेव सेहो स्थापित भेलाह। शिल्पीसभ पाथरक मन्दिर बनओलक। मूर्तिस्थापनाक बादो ओ शिल्पीसभ विस्तार करबाक लेल लागले रहल। शनैः शनैः क्षेत्रक विस्तार भेलैक। आ संघाराम व्यवस्थित भेल।

आब तँ अहाँलोकनि जनिते छी जे केना ओ वाँग-शि-त्सांग् आइ वशिष्ठक नामसँ विख्यात भए गेल छथि, आर्या ताराक स्मरण कए वैदिको लोकनि अपन घरमे हुनक उद्दिष्टपूजा मातृशक्तिक रूपमे कए रहल छथि। मण्डन मिश्र सेहो ओही आस्थाक प्रवाह मेँ बहि हुनके सांनिध्यमे शास्त्रार्थक स्वीकृति दए चुकल छथि आ भारतीक रूपमे मध्यस्थताक लेल देवीकेँ मानि चुकल छथि। हमरालोकनिकेँ हुनक निर्णयपर किछु वक्तव्य नहिं मुदा कदलीवनक बीच ओहि भित्ति दुर्गक बीच जाएब कोनो युद्धमे जएबासँ कम आशंका नहिं उत्पन्न कए रहल अछि। अस्तु चलू, जे हेतैक देखल जेतैक। हमहूँ सभ कोनो कम संख्यामे नहिं छी, सभक संग भृत्य आदि रहबे करत। भृत्यक रूपमे मल्लयोद्धाकेँ संग लए ली तँ बेसी नीक।

ताबत भोजनक समय आबि गेल। सभकेओ स्वादिष्ठ भोजन कएलनि आ भण्डारसँ फल आ मिष्टान्न पर्याप्त मात्रामे संग कए लेलनि जे समय भेटत तँ महिषीक मिश्रमहोदय लोकनिक सेवामे अर्पित करब।

14

आइ पहिल बेर वैदिक लोकनिकेँ संघारामक दुर्गनिर्माणक व्यवस्था देखबाक अवसर भेटल छल। एहिसँ पहिने केवल कदलीवनकेँ चारू कातसँ देखि संतोष करैत रहथि। ओम्हर जएबामे लाजक अनुभूति होइत रहनि जे आन केओ देखि लेत तँ की कहत। संघारामक दिससँ कोनो रोक-टोक रहनि से बात नै, अपितु किनको गेलापर संघारामक महाश्रमण अवश्य प्रसन्नता हेताह, जहिना जाल फेंकैत मल्लाह अपना दिस अबैत माँछकेँ देखि प्रसन्न होइत अछि, से सभकेँ विश्वास छलनि। मुदा कहियो केओ भीतर नै प्रवेश कएने छलाह।

मण्डन मिश्र सेहो देवी ताराक उपासना करैत रहथि, मुदा घरेपर उद्दिष्ट पूजाक रूपमे हुनक आवाहन कए। ओहो कहियो संघारामक भीतर प्रवेश नै कएने रहथि। आइ विशेष आमन्त्रणपर सभ केओ एक संग कदलीवनक प्रवेश द्वारपर एकत्र भेलाह। आपणग्रामक वैदिक लोकनि हाथी, घोड़ा आ रथ सेहो लए गेल रहथि। एकटा रथ विशेष रूपसँ सजल-धजल छल, जाहिपर पण्डितप्रवर मण्डन मिश्रकेँ बैसाए आगाँ कएल गेल तकर पाछाँ अश्ववाहन वैदिकलोकनि एकत्र भेलाह आ सभसँ पाछाँ हाथीक झुण्ड विदा भेल। कदलीवनक बीच देने एकटा प्रशस्त मार्ग छल। ओ मार्ग अन्त भेलापर एकटा द्वार बनल छल। एहि स्थानपर एक सेतुबन्ध संघारामक चारूकात बनाओल छल, जाहिपर लगाओल काँटवला बाँसक बीट ओकरा सुदृढ कएने रहए आ संगहि दुष्प्रवेश्य सेहो बना देने छल। एतेक धरि जे द्वारक सोझाँमे सेहो माँटिक ऊँच बान्ह छले, मुदा ओतए बाँस लगाओल नै रहैक।  स्पष्ट छल जे जलप्लावनसँ संघारामकेँ बचएबाक लेल ई व्यवस्था रहैक। दिनानुदिन बाँसक जंगल आर बढले जाइ, ते ओ आर घनगर भेल जाइत छल। किलाबंदीक ई पहिल परिधि छल, ओकरे एकटा प्रशस्त द्वार बीचमे बनाओल गेल रहए। ओहि द्वारसँ प्रवेश कएलापर आम्र, जामु, कटहर, बेल, आता, दाड़िम आदि फलक व्यवस्थित उपवन रहैक, जे छायाक संग-संग भोजनक सामग्री सेहो उपलब्ध कराबए। एकर नीचाँ भूमि तेहन बनाओल गेल छल जे कतहु बैसि सुस्ताएल जा सकैत छैक। एही क्षेत्रमे अनेक कूप आ पनिशाला सेहो छल। ठाम-ठाम पर्णमय कुटी बनल रहैक, जकर सोझाँ चतरल दूबि सतरंजी जकाँ बिछाओल लगैत छल। कतहु कोनो व्यवधान नै छलै। ई भू-खण्ड सामान्यजनक लेल बनाओल गेल छल। दूर-दूरसँ भृत्यकुलक लोकसभ अपन कल्याणक आशामे एतए आबि भर-भरि दिन प्रतीक्षामे रहैत छलाह। जँ केओ सन्ध्या भेलाक कारणें अपन गाम घुरबामे असमर्थ रहैत छल तँ पर्णकुटी सभक आश्रय लए रातियो बितएबामे कोनो बाधा नै होइत रहनि।

एहि विशाल अन्तरालक बाद माँटिक ऊँच भीतक एकटा परिधि छल, जकर ऊपर वर्षासँ भीतकेँ बचएबाक लेस छाही देल गेल छल। एही भित्ति मे एकठाम विशाल स्तूपाकार संरचना छलैक, जाहिमे एकटा गह्वर छल। एकरे सभ गहबर कहथि। ओही गहबर देने महाश्रमणक दर्शन होइत छलैक आ हुनक आशीर्वाद पाबि कृतार्थ भए लोक अपन घर घुरैत छल। एहि भित्तिमय प्राकारक द्वार संवेदनशील छल। अनेक मल्ल आ द्वारपाल एकर रक्षामे तत्पर रहैत छलाह। विना अनुमतिक प्रवेश वर्जित छल।

वैदिकलोकनि गाछीमे अपन अपन वाहन त्यागि सभ एक संगे ओही द्वारपर पहुँचलाह। हुनका अरियाति भीतर लए जेबाक लेल स्वयं महाश्रमण अनेक श्रमण सभकसंग आइ उफस्थित रहथि। वैदिक लोकनिक भव्य स्वागत भेल। ओ सभ भीतर गेलाह तँ भीतरो मेँ चारूकात घरक पंक्ति एकटा तेसर प्राकारक रूपमे देखलनि। पोखरापाटन जकाँ ईंटाक भव्य वर्गाकार गृहपंक्ति शोभित छल, जकर ओसारा एक दोसरासँ जुडल वर्गाकार रहैक। एकर भीतर चारू कोनपर विशाल मण्डप ऐश्वर्य आ उन्नत वास्तुकलाक प्रतीक छल। एहि भूखण्डक बीचमे देवी ताराक मन्दिर बनल छल जे अपना समयक उन्नत शिल्पकलाक आदर्श जकाँ ठाढ़ छल। एहि भूखण्डमे प्रवेश करितहिँ महाश्रमण सभकेँ एकटा मण्डप दिश लए जाए लगलाह तँ सभसँ आगाँ चलैत मण्डन मिश्र हुनका रोकि देल- “पहिने देवीक दर्शन कए ली।”

महाश्रमण पचिले दिन मण्डनक वक्तव्य सुनि चुकल छलाह तें अकचकएलाह नै। मुदा हुनक पूर्वयोजनामे क्रमभंग भेलनि तें कनेक असहज भेलाह। मुदा शीघ्रहि स्थिर होइत श्रमण समुदायकेँ आदेश देलनि- “मन्दिरमे दर्शन-पूजनक व्यवस्था करी।”

दू टा श्रमण मन्दिर दिस दौड़लाह आ शीघ्रहिं ओतहिसँ संकेत कएलनि- ‘सभ ठीक अछि।ʼ मण्डन मिश्र मन्दिरक दिस बढैत महाश्रमणसँ विमुख होइत सन अपसँग चलैत वैदिक मण्डली दिस उन्मुख होइत कहलनि- “माँ तारा मातृशक्ति थिकीह। माता सभक एके होइत छथि- ओएह मातृत्वगुणसँ अवच्छिन्न। ओ सदिखन ज्ञानस्वरूपा होइत छथि हुनकामे अज्ञानक कल्पनो ओहिना अनुचित जेना आगिमे शीतलता। हँ, अज्ञानता विषय ओ भए सकैत छथि। अज्ञानताक आधार हमरहि लोकनि भए सकैत छी। भने तँ एम्हर सुनलहुँ अछि शंकराचार्यक एक स्तोत्र एल अछि- कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति। इहो शंकरपाद स्तोत्रमे ठीक छथि मुदा पता नहिं, तत्त्वबोधक बेरमे कोन बाध्यता हुनका शून्यवाद दिस लए जाइए।”

सभ केओ मन्दिर पहुँचलाह। मन्दिरमे स्थित श्रमण पूजक दूटा मालतीक माला लेलनि आ माँ ताराक चरणपर राखि ओतएसँ श्रद्धापूर्वक उठाए मण्डन मिश्र आ ओहि तथाकथित शंकरशिष्यकेँ आदरपूर्वक पहिराए देलनि। श्रमण किशोर वयसक छलाह छलाह तें आदरातिरेकवश दूनू वृद्धकेँ माला पहिराए दूनूक पयर स्पर्श करए लगलाह आ कि मण्डन हुनक हाथ पकड़ि लेलनि- “नहिं वत्स अहाँ, एखनि ओहि माताक चरणमे छी जतए अनकर चरणक कोनो प्रयोजन नै। हमरालोकनिकेँ पापक भागी नहि बनाउ। एकनि अहीं सभक पूज्य थिकहुँ।”

सभ एकटा मण्डपपर आबि जुमलाह। अतिथि लोकनिकेँ विशाल मण्डपक उत्तर भाग भेटलनि आ श्रमण लोकनि दक्षिण भागमे बैसलाह। महाश्रमण कहलनि- “तखनि आब शास्त्रार्थ आरम्भ हो। माँ ताराक चरणपर राखल माला अहाँ दूनूक गरदनिमे अछिए, जनिक माला पहिने मौला जाएत ओ पराजित बूझल जाएब।” ई संघारामक वैद्य हुनका फुरओने रहथि। ओ कहने रहथिन जे शास्त्रार्थमे पराजित होएबाक समय शास्त्रार्थी उत्तेजित भए जाइत छथि आ शरीरक ओहि उत्तापसँ स्वाभाविक रूपसँ माला मौलाए जाएत। मण्डनक प्रतिद्वन्द्वीके केवल एतबे टा कहियनु जे ओ कहुना मण्डन मिश्रकेँ उत्तेजित करबाक काज करथि।

दू-चारि टा वार्ता चललʼ तखनहिं मण्डन मिश्र बूझि गेलाह जे हमर प्रतिद्वन्द्वी छद्मवेषी छथि आ गृहस्थ छथि महाश्रमणक द्वारा धनक लोभ देखओलापर एतए उपस्थित भेल छथि। तखनि हुनका अत्यन्त क्रोध भेलनि, जे एकटा गृहस्थ काषाय वेष धारण कए संन्यासीक छद्मवेष बनाए उपस्थित भेल छथि। हुनका वैदिक धर्ममे एहि प्रकारक भ्रष्टताक प्रचलनक कल्पनो नहिं रहनि। हुनक प्रतिद्वन्द्वीक अध्ययन नीक रहनि, प्रत्युत्पन्नमति सेहो छलनि मुदा छद्मशास्त्रार्थमे हुनक प्रवृत्ति देखि मण्डन मिश्रकेँ रहल नै गेलनि- “अओ वैदिक महोदय, एतेक नीचाँ खसि पड़लहुँ। गृहस्थ भए शंकरपादक द्वारा दीक्षित कहैत छियैक। शंकरपादकेँ कहियो देखलियनि। हुनक त्याग, अलौकिक क्षमता आ साधनासँ कहियो भेंट भेल? अहाँ हमरासँ की छद्म करब? अहाँ तँ ओहि आदरणीय शंकराचार्यकेँ कलंकित कएल अछि। हुनका अहाँ एतेक छोट बुझि लेलहुँ। शास्त्रीय खण्डन भिन्न वस्तु थिक, ओ तत्त्वबोधक एक माध्यम मात्र थीक, एकटा पक्ष मात्र थीक, मुदा अहाँ गृहस्थ भए कर्मकाण्डी भए वैदिक यज्ञ कराए दक्षिणा ग्रहण करैत छी आ से अपनाकेँ संन्यासी कहि देलहुँ! गार्हस्थ्य धर्मक पालन करैत ई गैरिक वस्त्र धारण करबा काल अहाँकेँ एहि वस्त्रक गरिमा नै बुझल छल? गृहस्थ भए रावण जखनि छद्म संन्यासीक वेष धारलक तँ माता सीताक हरण भेल। अहाँ एकरा धारण कए पुनीतपरम्पराक हरण करए आएल छी? कतेक राशि भेटल? क्रीतदास जकाँ बिकाए गेलहुँ?”  मण्डनमिश्र ततेक ने क्रोधित भए गेलाह जे हुनक गरदनिक माला सुखाए गेल।

एतेक काल महाश्रमण चुप्प भेल बैसल रहथि एहने स्थितिक प्रतीक्षामे रहथि। ओ तुरत घोषणा कएलनि- “मण्डन मिश्रक गरदनिक माला मौलाए गेल, मण्डन हारि गेलाह, मण्डन हारि गेलाह।” पहिनहिंसँ व्यवस्था कएल गेल तूर्य फूँकल गेल। एक तूर्यक शब्द सुनैत दोसर तूर्य ध्वनि कएलक आ बाहर उपवनमे एही तूर्यध्वनिक प्रतीक्षा करैत करमापाक नेतृत्वमे थहाथहि करैत भोजनार्थीलोकनि सेहो संग देलनि- “मण्डनक माला मौलाए गेल, मण्डन हारि गेलाह। शंकराचार्य जीति गेलाह, शंकराचार्य जीति गेलाह।”

बाहरक ई सम्मर्द भीतर मण्डप धरि पहुँचि रहल छल। मण्डन मिश्र चौकि गेलाह  मुदा बुझबामे किछु भाँगठ नै रहलनि। तखनि हुनक क्रोधाग्निमे पड़लाह महाश्रमण- “सभटा अहाँक खुराफात छी! बाहर घोषणा करबाए देलहुँ जे ई स्वयं शंकराचार्य थिकाह? वास्तविक रूपसँ गृहस्थ वैदिक कर्मकाण्डी, हुनका शास्त्रार्थ कराओल शंकरपादक शिष्य कहि आ बाहर हल्ला कराए देल जे स्वयं शंकराचार्य थिकाह!”

आब महाश्रमण सेहो ठाढ़ भेलाह आ हँसैत बजलाह- “जहिया अपनेक गुरु कुमारिल छद्मबौद्ध बनि नालंदा गेल रहथि, तहिया तँ अहाँक वैदिक धर्म बड़ नीक! सुनि लियʼ अहाँक गुरु आ हमर पितामह नालंदामे सहपाठी रहथि। जहिया छद्मवेषी कुमारिल हुनकासँ शास्त्रार्थ कएने रहथि, तहिया कतए गेल छल अहाँक आरूढच्युतत्वक प्रायश्चित्त! बौद्ध संन्यासी भए पुनः गार्हस्थ्य जीवनमे प्रवेश करबाक लेल दण्डविधान कतए चल गेल छल? निकालू स्मृतिग्रन्थ! आ एतबा बूझि लियʼ कान खोलि सूनि लियʼ, हमरा लेल तँ शंकराचार्य हारलाह तँ दहिना हाथ मोदक, मण्डनमिश्र हारलाह तँ वामा हाथ मोदक आ वैदिक धर्मक हानि भेल तँ सोझे मुँहेमे मोदक। एकरा लेल संघाराम किछु कए सकैत अछि। पुछियनु एहि वैदिक महोदयसँ, कतेक शत दीनार देल गेल छनि। आधा पहिने, आ आधा काज भेलाक बाद!” -महाश्रमण भभा कए हँसि पड़लाह।

ओ छद्मवेषी वैदिक मूड़ी गोंतने ठाढ रहलाह। बुझाइन जेना लाजें खसि पड़ताह। मुदा हुनक कातेमे ठाढ़ दण्डधर एखनो वयससँ अत्यन्त बूढ़ रहितो क्रोधें काँपि रहल छलाह मुदा दृढ़ भेल मण्डनमिश्रक दिस ताकि रहल छलाह। जखनि मण्डन मिश्र अपन वक्तव्य समाप्त कएल तँ दण्डधर महाश्रमणकेँ कहलनि- “अहाँक हाथक लड्डू आ मुँहक लड्डू सोझ आब पेटमे ढुकाबए पड़त। बुझि गेलहुँ अहाँक शास्त्रार्थक आयोजनक मर्म, अहाँ शास्त्रार्थ नै, युद्धार्थ प्रस्तुत भेल छी। प्रतिशोधक ज्वाला मे धधकैत एकटा अग्निपिण्ड बनि चुकन छी अहाँ। आब ओहिपर पानि ढारबाक अवसर आबि गेल अछि।”

महाश्रमण जोरसँ सैनिककेँ सोर कएलनि- “सैनिक!, घेरि ले हिनकासभकेँ। ओओ पण्डितप्रवर लोकनि महाराजक असीम कृपा हमरालोकनिपर अछि।”

ताबतमे दस-बारह टा दण्डधर आबि तुलाएल आ वैदिकलोकनिक भीड़केँ घेरि लेलक। एम्हर एकेटा दण्डधर मिश्र यद्यपि सभसँ वृद्ध छलाह, मुदा हुनक पितामह राजा अरुणाश्वक सेनामे सेनापित रहथि तें शौर्य हुनक रक्तमे समाहित छल, जकर आदर सभ करैत रहथि। ओ मण्डन मिश्रकेँ संबोधित कएल- “आब अपनेक शास्त्रनीतिक अवसर बीति गेल। अपने आब एतएसँ जाउ।” ओ अपन चारूकात थहाथहि करैत वैदिक सभकेँ कहल- “हिनका सुरक्षित करू।”

चारि टा वैदिक मण्डनकेँ घेरि ओहि भीड़सँ बाहर कएल आ तखनि दण्डधर बजलाह- “एहि महाश्रमणकेँ लडडू खुआइए देल जाए। ई सुनितहिँ युवा वैदिकलोकनि महाश्रमणकेँ घेरलनि आ तखनि प्रारम्भ भेल मल्लयुद्ध। एकहि थापड़केँ महाश्रमणक थुलथुल करैत देह  सहि नै सकल आ ओ मण्डपहिपर भूलुंठित भेलाह। ओहि मण्डलपर करीब तीस टा युवा वैदिक रहथि। युवावस्था, योग आ उत्साहसँ शौर्यक प्रतिमूर्ति। सभसँ पहिने ओ सभ सैनिकक दिस झुटलाह आ ओकरहि हाथक दण्ड छीनि ओकरा भूलुंठित कएल। सभ निःशस्त्र रहथि मुदा आब जतेक सैनिक भूलुंठित भेल जाए ओतेक दण्डधरक संख्या बढ़ल जाए। ओम्हर दण्डधर मिश्र बुझू जे सेनापतिक भूमिकामे रहथि। ओ जोरसँ घोषणा कएलनि- “जे सैनिक, श्रमण अथवा हुनक सहयोगी प्रतिरोध नै चाहैत छी से दूनू हाथ, दूनू ठेहुन आ मस्तककेँ भू-स्पर्श कराए समर्पण मुद्रामे आबि जाइ। जे ठाढ़ रहब हुनका भूलुंठित कएल जाएत।”

ओही मण्डपपर चारि टा वैदिक घेरि कए मण्डनमिश्रकेँ सुरक्षा प्रदान कएने रहथि। हुनके लग जाए दम्डधर मिश्र सेहो चारूकात होइत संघर्ष देखए लगलाह। संघाराम कोठलीसभसँ किछु युवा खड्ग लए सेहो निकललाह, मुदा सम्हरि नै सकलनि। ओहो खड्ग क्रमशः वैदिकेलोकनिक हाथ अबैत गेल। दण्डधर तखनि फेर घोषणा कएल- “रक्तपात नहिं हो, से ध्यान राखब।” हमरालोकनि माताक प्रांगणमे छी।

तखनहिँ बाहर हल्ला भेल। करमापा जोर-जोरसँ गरजि रहल छलाह- “तकै  की छी। ई चंडलबा वैदिक सभ मन्दिर तोड़ि रहल अछि। चलू भीतर प्रतिवाद करू।” मुदा थोड़बे कालमे फेर बपहारि कटबाक ध्वनि सेहो सुनलनि,जेना लोकक हेंज भागि रहल हो। चारूकात,जेना असंख्य लोककेँ डेंगाओल जा रहल हो। दण्डधर एकटा वैदिककेँ द्वारपर पठाए एहि आसमर्दक पुछारि करओलनि- “बाहर किए मारि बजरल? निरीह प्राणीक कोनो अवघात नै होएबाक चाही। ओसभ निरपराध अछि।”

एक वैदिक द्वार दिस दौड़लाह। द्वारहिँसँ देखि सभटा ज्ञान भए गेलनि। हिनकहिं संग आपणग्रामसँ आएल दूटा मल्लभृत्य द्वारपर सन्नद्ध भए चुकल छल। ओकरा भीतर चलैत द्वन्द्वयुद्धक भान भए गेल रहैक आ तें स्वयं प्रशिक्षित सैनिक जकाँ बुझू जे बाहर उपवनक सैकड़ो लोकक भीड़केँ नियंत्रित करबाक उत्तरदायित्व लए नेने रहए। जखनि करमापाक द्वारा पसारल गेल अपवाह सूनिकए उत्तेजित भेल ओ दर्शनार्थी आ भोजनार्थी सभ द्वारक भीतर प्रवेश करए लागल तँ ई दूनू मल्लक आदेशसँ हिनका संग आएल पाँचो टा हाथीक महथबार हाथीपर चढि ओहि भीड़ दिस हाथीकेँ उसकाए देलक। सोझाँ अबैत हाथी देखि सभ उपवनक द्वारसँ बाहर भागि रहल छल। ओही भगबाक आसम्मर्द दण्डधर सुनने रहथि। एसकर भेल करमापा गह्वरक आश्रय लए नुकाए अपन प्राण बचौने रहथि।

संघारामक प्रकोष्ठ सभक गवाक्षसँ बाहरक दृश्य देखैत महिलालोकनिकेँ देखि मण्डन मिश्र दण्डधरसँ कहल- “वैदिक लोकनिकेँ कहि दियनु जे कोनो परिस्थिति मेँ संघारामक प्रकोष्ठमे प्रवेश नै करथि। परिस्थिति आओत तँ हमरा संग जेताह। एहि प्रकोष्ठ सभमेँ एहन बहुत किछु दृश्य आ अदृश्य बस्तु हओएबाक चाही जेकर हुनकालोकनिकेँ ज्ञान नै छनि, तखनि अवघात होएतनि। हमरासंग जेताह तँ हम सावधान भए हानिकर वस्तुसँ दूर राखि सकबनि। हमरा गुरुपादक मुँहें सभटा सुनल ओहिना स्मरण अछि। मारण, मोहन उच्चाटन आदिक प्रयोगक अदृश्य शक्ति ओहि प्रकोष्ठ सभमे अवश्य होएत। संगहि अपनहिँ समाजसँ आनलि कारि कन्या सभ सेहो अवश्य होएत जकरा योगिनी बनाए ई लोकनि बताहि बनाए अपन अमुचरी बनौने होएताह। ओहीमे किछु ब्राह्मणक कन्याकेँ देवी बनाए सेहो रखने होएताह। अहाँकेँ मोन हएत किछु दिन पहिने भृत्यकुलसँ कतेक कन्याक बौरि जेबाक अपवाह उड़ल छल। ओ सभ एतहि होएतीह। ब्राह्मण कन्या तँ दूर प्रदेशसँ ई लोकनि अनैत छथि। कारण जे लगपासक लोक प्रतिशोध लए लेतनि।”

भगवान् सूर्यदेव मध्य आकाशमे चमकि रहल छलाह। गाछक छाहरि सेहो छाहरि तकबाक लेल जेना गाछक जड़िमे नुकाए गेल छल। एम्हर वैदिक लोकनि दण्डाघातसँ सभकेँ खसओने जा रहल छलाह। किछु किशोर लोकनि भूमिपर समर्पण कए देने रहथि। द्वारपर मात्र दूइए टा मल्ल सभकेँ भगाए चुकल छल। प्रतिरोधीक घटैत संख्या देखि शनैः शनैः वैदिक लोकनि मण्डप दिस छाहरिमे सुस्तएबाक लेल आबि रहल छलाह। थोड़बे कालमे सभ प्रतिरोधी श्रमण, मल्ल आ सैनिक भूमिक आश्रय लेलनि। तखनि फेर दण्डधर बजलाह- “जे सभ आत्मसमर्पण कए चुकल छी से सभ ऊठि मण्डपपर आबी। अहालोकनिकेँ अभय प्रदान करै छी।”

एखनि धरि महाश्रमण मण्डपेपर ओहिना भूलुंठित भेल रहथि। वस्तुतः असंज्ञ रहथि अथवा भगल कएने रहथि से नहिं जानि। मुदा जखनि शनैः शनैः वैदिक युवक लोकनि मण्डपपर पहुँचए लगलाह तँ महाश्रमण उठलाह आ ओहिना आँखि चमकाए बजलाह- आइ हमर पितृतर्पण पूर्ण भेल। हमर पितामह हमर पिताकेँ ई प्रतिशोध लेबाक भार देने रहथि। हमर पिता हमरासँ अंतिम शब्द यैह कहने रहथि जे कुमारिलक शिष्य मण्डनसँ प्रतिशोध ली। हम एही लेल नालंदा जाए गहन अध्ययन कएल जाहिसँ हमरा संघारामक महाश्रमणक पद भेटि सकए। हम अन्वेषण करैत-करैत एक संघारामसँ दोसर संघाराम घुमैत रहलहुँ। आइ हमरा प्रसन्नता अछि जे एक संगे दू काज भए गेल। आब युग-युग धरि लोक कहैत रहत जे शंकराचार्यसँ मण्डन हारि गेलाह। मण्डनक गार्हस्थ्य हारि गेल। भृत्यकुलक लोक सभटा जानि चुकल अछि। ओ सभ भागि तँ गेल, मुदा अहाँलोकनि एतहि रहू, आपणग्राममे सौंसे पसरि चुकल अछि जे शंकराचार्यसँ मण्डन मिश्र हारि गेलाह। एही आधारपर भविष्य कतेक-कतेक कथा बनाओत से हमहूँ नै जनै छी। भारतीक देल मालाक अलगे कथा बनत। जिनका मण्डनमिश्रक अलौकिक विद्वत्तासँ ईर्ष्या हेतनि ओ खिस्सा गढ़ताह- बारती स्वयं शास्त्रार्थक लेल प्रस्तुत भेलीह। जिनका हिनक गार्हस्थ्य धर्मकेँ दूषित करबाक रहतनि ओ ओहिमे जोड़ि देताह- ‘मण्डन संन्यास लेलनि।ʼ हमर समाज खिस्सा गढबामे निपुण अछि। पाणिनि, पतंजलि, कालिदास आदि जखनि खिस्सासँ अबंच नै रहलाह तखनि मण्डन किएक रहथु। मूर्ख कालिदास कालीक मुँहपर दीपकक कारिख पोति हुनक वरदानसँ विद्वान् भेलाह, अपने तँ महामूर्ख रहथि जे जाहि डारिपर बैसल रहथि ओकरे कटैत रहथि। कालिदासक खिस्सा प्रबल भए गेल, हुनक विद्वत्ता घटैत गेलनि। पतंजलि अपने तँ महामूर्ख रहथि! धन्य भगवान् शेषनाग जे हुनका महाभाष्य लिखा देलनि! अओ मण्डन मिश्र! हमहूँ आइ अहाँकेँ युगपुरुष बनाए देल। भृत्यकुल आपणग्राम मे सहस्रो स्वर्णमुद्रा एही काजक लेल बाँटि देल गेल अछि। अहाँकेँ पता नै होएत जे ई शंकराचार्यक शिष्य जनिका अहाँ एतेक फज्झति कएलियनि ओ काल्हिए आपणग्राममे प्रातःकाल शंकराचार्यक रूपमे कतोक वैश्यक घरमे पूजा पाबि चुकल छथि। हमरा आब अहाँलोकनि जँ हत्यो कए देब तँ कोनो अंतर नै होएत। हम जीति चुकल छी।”

मण्डनमिश्र अवाक् रहि गेलाह। हुनकहु सभ टा सुझाए लगलनि। संगहिं स्मरण अएलनि जे हुनकहु पत्नीक नाम तँ भारती थीक। ओ सन्न दए रहि गेलाह आ हड़बडाएले दण्डधरसँ कहल- “अहाँ सम्हारू आब हमरा मन्दिर जाए दियऽ माताक शरणमे ओएह टा हमर एहि अपवादक कलंककेँ धो सकैत छथि।” मात्र एकटा वैदिककेँ संग कए ओ सोझे मन्दिर पहुँचलाह आ ओतए देवीक चरणमे पयर रखलनि- “हे माँ अहाँ तारा छी, सरस्वती छी, भारती छी। हमर रक्षा करू।”

एम्हर वैदिकलोकनि परिसरकेँ निःशत्रु देखि ‘आब की कर्तव्यʼ से दण्डधरकेँ पुछल। बीचहिमे महाश्रमण टपकि पड़लाह- “जे इच्छा हो, हमरा यूपसँ बान्हि बलि दए सकैत छी। अहाँलोकनि मे तँ नरबलि सेहो अछिए। आहा हा, बेचारा शुनःशेपक खिस्सा रटने छी की नै अओ वैदिक महोदय! ऐतरेय ब्राह्मणक हरिश्चन्द्रोपाख्यान?” ओ अट्टहास करए लगलाह।

दण्डधर वैदिक छलाह मुदा मात्र कर्मकाण्डी, सेहो कर्मकाण्ड आब मात्र ब्रह्मा बनबाक काज धरि सीमित भए गेल रहनि। छोट-छोट एकदिना यज्ञ भेल तँ युवालोकनिकेँ लए जाए सभटा सम्पन्न कराबथि। स्वयं यज्ञकुण्डक दक्षिण भागमे बैसि पूजित होथि आ अग्निस्थापनक समय किछु सामगान कए अग्निक रक्षा आ यज्ञक निरीक्षण करैत जाथि। सभसँ वृद्ध रहबाक कारणें सभक आदरपात्र भेल रहथि आ जतय ओ जाति यजमानसँ प्रचुर दक्षिणा लेबाक अनुभव रहनि तें युवा वैदिक सभ सेहो हिनक विशेष आदर दैत रहथिन। तें ओ स्वयं महाश्रमणकेँ आ ‘आब की कर्तव्यʼ से पुछनिहार वैदिककेँ किछु कहबासँ असमर्थ रहथि। तें ओहो बजलाह- “आबए दियनु मण्डनमिश्रपादकेँ। हुनकहि आदेश शिरोधार्य अछि।”

मण्डनमिश्र मन्दिरसँ निकललाह तँ हुनक वेष बदलल छल। ओ मन्दिरहिमे राखल गैरिक वस्त्रकेँ देखि ओतहि ओकरा धारण कएलनि। जाहि भारतीकेँ ओ माँ ताराक रूपमे देखि चुकल छलाह, ओही समान नामक कारणें अपन पत्नीकेँ सेहो मातृबुद्ध्या देखबाक संकल्प लेलनि। नामरूपे तँ संसार थिक ओकर लय संसारक लय थीक। महाश्रमणक वक्र उक्ति हुनका बेर-बेर सालि रहल छल- ‘लोक कतेक कतेक ने खिस्सा गढ़त। भारतीक मध्यस्थतामे शास्त्रार्थ भेल, मण्डनक गरदनिक माला मौलाए गेल, मण्डन हारि गेलाह तखनि स्वयं भारती शास्त्रार्थ कएलनि लोक की की कने सोचत। मां तारा माँ भारतीक स्थानपर हमर पत्नीक नाम आओत, हमर यैह प्रायश्चित्त जे पत्नीकेँ सेहो मातृबुद्ध्या देखी। हुनकहि देल भिक्षान्न भेजन करी।ʼ

मण्डनमिश्रकेँ देखि सभ केओ चौकलाह मुदा महाश्रमकेँ कोनो आश्चर्य नै भेलनि- हँ. आइ मण्डनमिश्रपाद हमरहु लेल आदरणीय भए गेलाह। हुनका प्रति हमर सभ प्रतिरोध आइ समाप्त भए गेल। अपन श्रेष्ठ ज्ञानसँ आइ ओ देवतुल्य बनि चुकल छथि। ओ मन्दिरसँ घुरैत मण्डनमिश्रक दिस दौड़लाह आ हुनक पयरपर खसि पड़लाह। सभ वैदिकलोकनि स्तब्ध रहथि। ई की भए गेल? षडानन मिश्रक संन्यासकेँ रोकबाक लेल सन्नद्ध भेनिहार आइ स्वयं संन्यास लेलनि! सभक आँखिसँ नोर बहए लागल।

-“हमरालोकनि अनाथ भए जाएब मिश्र महोदय! अपनेक अनुपस्थितिमे महिषी आ आपणग्रामक वैदिक अनाथ भए जाएत!”

दण्डधरमिश्र टा दृढ़ रहथि- “मिश्रमहोदय जे कएलनि से लोककल्याणकारके होएत, एतबा विश्वास राखू। एखनि एक अश्वारोही शीघ्र हिनक घरपर जाउ आ ओतए सूचना दियनु जे पण्डिताइन भिक्षान्नक व्यवस्था करथि। हमरालोकनि आबि रहल छी। आब पहिल कर्तव्य यैह जे मिश्रमहोदय सभसँ पूर्व अपन गृहणीसँ भिक्षा लेथि।”

दण्डधर मिश्र ओहि अश्वारोहीकेँ प्रेषित कए शेष वैदिकलोकनिकेँ आदेश देल- “अहाँलोकनि एतहि रहू। महाश्रमणपर नजरि राखब। हमरालोकनि जाधरि घुरैत नै छी त धरि हिनका बलपूर्वक मण्डपेपर राखब। कोनो परिस्थिति मेँ ने तँ हिनका प्रकोष्ठक भीतर जाए देब ने अहाँलोकनिमेसँ केओ जाएब। हम मण्डनक संन्यासग्रहणक विधि सम्पन्न कराए शीघ्रहिं घुरि अबैत छी।”

दण्डधर मिश्र आ मण्डन मिश्र द्वार दिस बढि गेलाह।

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