15
एम्हर अश्वारोहीसँ समाचार पाबि भारती तँ बुझू जे हतसंज्ञ भए गेलीह। हुका पुतोहु सभ कोनों प्रकारें सम्हारलनि। अस्सीसँ ऊपर वयस भए सेहो गेल रहनि तखनहुँ अपन सम्पूर्ण अतीतकेँ ध्वस्त होइत सुनि ओकरा सम्हारि नै सकलीह। मण्डनमिश्रपाद संन्यास लेलनि! हुनके मुँहें सुनल अछि जे वानप्रस्थमे पत्नीक मृत्युक उपरान्त गृहाग्निकेँ मिझाए संन्यास लेबाक विधान अछि। तँ की हमरा ओ मृत बूझि लेलनि!
पुतोहु सभक द्वारापरबोधल गेलापर उठलीह आ बजलीह- “अएँ, आइ हमरा हुनक कोनो कार्यपर प्रश्नचिह्न किएक उठल? एतेक टा जीवन बीति गेल कहियो हम हुनक कोनो काजपर आंगुर नै उठौलहुँ। सभ दिन देखैत रहलहुँ जे ओ जे निर्णय लेलनि से सभक कल्याणक लेल लेलनि। हमरा आइ कोन दुर्बुद्धि आएल?” आ फेर पुतोहुकेँ आदेश देलनि- हमर पटोर लाउ। हमर पसाहिन करू झट दए। भगवान् शंकरकेँ अन्न देबाक काल भगवती अन्नपूर्णाक जाहि सौन्दर्यक अहाँ कल्पना कए सकैत ओहने सुन्दर हमरा बनाउ। पयरमे अलक्तक राग लगाए दिय। आ हे एक गोटे शीघ्र जाउ, मेँहदीक पात तोड़ि आनू, हमर कानक जड़िमे आ हाथमे शीघ्र विशेषकक रचना करू। एक दियादनी जल्दीसँ हमर कनतोड़ी तँ आनि दियʼ। आइ हमरा सभ आभूषणसँ छाड़ि दियʼ। संसारातीत सौन्दर्यक अपेक्षा अछि हमरा। हम आइ अन्नपूर्णा छी। जल्दी करू, अबितहिं होएताह।
पुतोहु आ नातिन सभ व्यस्त भए गेलीह। भारतीक मुखमण्डलपर सत्ते दिव्य सौन्दर्यक छटा पसरि गेलनि। शीघ्रे हुनक अढ़ाओल सभटा सामान आबि गेलनि। एक पुतोहु पयरमे महावर लगाबए लगलीह दोसर हाथ आ कपोलपर मेँहदीक लेप कए विशेषकक रचना कएल। नातिन सभ तँ बुढ़ीक देह लागि गेलनि। ओ पटोर पहिरलनि माथपर पियौरीक रचना करओलनि आ सभ प्रकारें डालीमे सजि-धजि चूड़ा आ फल आदि लए द्वारपर ठाढ़ि भेलीह।
दण्डधरक संग मण्डनमिश्रपाद अएलाह सोझे द्वारापर- “भवति भिक्षां देहि।” अपन कन्हपर टाँगल भिक्षापात्र आगाँ बढ़ओलनि। भारतीक मुखमण्डलक आभा चमकल आ डाली हुनक भिक्षापात्रमे उझीलि देलनि। दण्डधर मिश्र हालहिमे सुनल पद गाबि उठलाह-
प्रालेयाचलवंशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी।।
भारती कहए लगलीह -“आइसँ हमरे देल भिक्षान्न ग्रहण करी। यैह भेल अहाँक संन्यास। जँ हमरा अहाँ मातृबुद्ध्या देखबाक लेल ई संन्यास ग्रहण कएल अछि तँ हमर ई आदेश स्वीकार्य होएबाक चाही। आइसँ एहि घरक दायित्वसँ अहाँकेँ मुक्त करैत छी। हम आब कहियो नै पूछब जे आइ भोजन की बनतैक? हम बनब अन्नपूर्णा। अहाँ धर्मक ध्वज उन्नत करबाक लेल सम्पूर्ण दिनचर्या समर्पित कए सकैत छी।”
-“जे आज्ञा अन्नपूर्णे।” “हम आइ धन्य भेलहुँ। पतिकेँ भिक्षान्न दए धर्मध्वजक रक्षाक लेल समर्पित करबाक ई परिपाटी अहाँ आरम्भ कए नारीक एक आदर्श स्वरूप उपस्थापित कएल। अन्नपूर्णाक रूपमे नारी धराधामपर उतरि भविष्योमे अहाँक अनुसरण करए वाली होएतीह। हम एखनि चलैत छी। जा धरि हमरा लेल गृहपरिधिसँ बाहर आवासक व्यवस्था नहि होइत अछि ता धरि हम संघाराममे रहब। आब संघाराम एहि दण्डधर मिश्रक अधिकारमे आबि चुकाल अछि। बौद्धलोकनि परास्त भए चुकल छथि। आइए सन्ध्यासँ पूर्व ओखर सभ प्रकोष्ठक शुद्धीकरण सेहो करबाक अछि। कतेको योगिनी सभ ओहिमे बंदी बनाए लेल छथि तकर ठेकान नै। ओहिठाम अनेक कुमारि कन्या बंदिनीक रूपमे होएतीह, हुनकासभक मुक्तिक अवसर आबि गेल अछि।”
-“तँ की हमहूँ चली? ओतए नारीक उपस्थितिक आवश्यकता होएत। ओहि योगिनीसभकेँ आश्वस्त करबाक लेल किछु नारीक उपस्थिति आवश्यक।” भारती अपन पुतोहु सभकेँ सेहो संग कएलनि आ सभ केओ संघाराम पहुँचलीह।
ओहिठाम ताधरि दोसरे घटना घटि चुकल छल। वैदिक लोकनिक द्वारा कएल गेल आघातसँ जे सभ हतसंज्ञ भेल रहथि से सभ संज्ञा पाबि मण्डपपर जुटलाह आ वैदिकलोकनिक हाथसँ महाश्रमणकेँ छोड़ाए हुनके संकेतपर द्वार देने बाहर पलायन कए चुकल छलाह। वैदिक लोकनि हुनका सभकेँ रोकि नहिं सकलाह। एहिबेर दण्डधर मिश्रक सेनापतित्वक अभावमे ओ सभ बलिष्ठ रहितो हतप्रभ जकाँ श्रमण सभक संग महाश्रमणक पलायनकेँ रोकबामेँ समर्थ भए गेलाह। एतबे टा कए सकलाह जे कोनो परिस्थितिमे हुनकालोकनिकेँ पुनः प्रकोष्ठमे नै जाए देलनि। आदेशोसँ ततबे भेटल रहनि जेकर पालन करबामे लागि गेलाह आ तें हुनका द्वारक मार्गसँ पलायनक करबासँ रोकल नै भेलनि। जा धरि हाथीक दल हुनका रोकबाक लेल सावधान हो जाधरि पहिने सभ अलग अलग भए कदली वन मे नुकएलाह आ तखनि चारूदिस छिड़िआए भागि पड़एलाह।
दण्डधर मिश्रकेँ अबैत देखि सभ केओ कननसुख भेल हुनका दिस ताकए लगलाह। मण्डनमिसरकेँ बात बुझबामे कोनो भाङठ नै रहलनि तँ ओएह कहलनि- “की हेतैक, जाए दियनु! हुनकहु जे बिगाड़बाक छलनि से कए चुकलाह। हमरहुलोकनिकेँ बहुत काज भए गेल। आब शेष अछि एकर प्रकोष्ठ सभक शुद्धीकरण। अनेक बंदिनी सभकेँ मुक्त करब पहिल काज अछि। जाउ, अहाँक गुरुआइनि अहाँक संग रहतीह। हिनक आदेशसँ महिलालोकनिकेँ उन्मुक्त करू।”
संघारामक भीतर एहि नारी-मण्डलीकेँ घुमैत देखि प्रांगणक उत्तर दिशाक प्रकोष्ठक एकटा द्वार खुजल आ एकटा वृद्धा कही वा अधवयसू हिनका सभ दिस दौड़लीह- “जे जतए छी से रुकि जाउ। हमर गप्प पुनि लियʼ तखनि जे करबाक हो से करब।” ई छलीह बुधग्रामक रानी, जे किछुए दिन पहिने अपन एकमात्र पुतोहुक द्वादशाह कर्म कराए वैराग्य भावसँ शान्तिक अन्वेषण करैत एतए आएल रहथि आ अपन सम्पूर्ण राज्यक आय एही संघारामकेँ दान कए देने रहथि। महाश्रमणक वाग्जालमे फँसि साधनाक लाथें हुमका एतहि एकटा प्रकोष्ठ दए देल गेल रहनि। मुदा एहि संघारामक साधना आ कटु-मधु एतबे दिनमे चीखि नेने रहथि। रानीक सहज स्वाभाविक उदात्तता हुनका आशंका उत्पन्न कए देने रहनि जे इहोलोकनि कहीं हमरहि जकाँ जालमे फँसबाक लेल तँ नै आबि गेल छथि!
ओ काषाय वस्त्रकेँ कहुनासँभारैत दौड़ि गेलीह। इहोलोकनि हुनके दिस बढ़लीह- ‘हमसभ अहीं लग आबि रहल छी।ʼ बुधग्रामक ओ रानी अपन परिचय देलनि आ बताहि जकाँ चिचियाइत सोझे पूछि देलनि- “भागि जो एतएसँ। कतए आएल छें, ओही चण्डलबाक जालमे फँसए। महाश्रमण, हँ हँ ओएह करिलुठवा, राक्षस छौ, सोझे राक्षस छौ, हमरा खा गेल, हमरा सभटा धन लूटि लेलक। हमर जनताकेँ उछन्नर लगाए देलक एतबे दिनमे। नातिनक वयसक छौंड़ी सभकेँ पकड़ि, घीचि चण्डलबाक हेंजक बीच धकेलल हेतौ तोरासभसँ। तोरो सभकेँ खा जेतौ।?”
हिनका सभकेँ कोनो टा बात बुझबामे भाङठ नै रहलनि। वृद्धा भारती हुनका अपन बेटी जकाँ भरिपाँज कए पकड़लनि आ मुँहपर हाथ फेरैत भरोस देलनि- “आब कतए ओ महाश्रमण! केओ नहिं रहल, सभ भगाए देल गेल। बेटी, रानीजी, चिन्ता नै करू। हमसभ आब आबि गेल छी। एहि संघारामपर वैदिक लोकनिक अधिकार भए चुकल अछि। चलू, हुनकहि लोकनिक लग। आश्वस्त होउ।”
एम्हर मण्डन मिश्र आ दण्डधर मिश्रक मन्त्रणा भए रहल छल- “अधिकारमे तँ आबि गेल, मुदा कर्तव्यक बोझ ततेक प्रबल अछि जे एखनहिसँ चिन्ताक विषय बनल अछि। कोनो वैदिक संघारामक देखरेख नहिं करताह। सभकेँ अपन-अपन गृहस्थी छनि। श्रमण सभ तँ भागि गेलाह, मुदा महिलालोकनि कए जेतीह? की हुनका अपन-अपन परिवार स्वीकार करतनि। ओ लोकनि श्रमणा बनि चुकल छथि। एकर बाद गार्हस्थ्य जीवनक दुआरि सदाक लेल बमद भए गेल छनि। हुनक आश्रय तँ आब यैह संघारामे रहत। रातुक भोजने कोना बनत तेकरे पहिल चिन्ता आबि तुला गेल अछि। संगारामक भाण्डागार कतए अछि ताहूसँ हमरालोकनि अपरिचित छी। सूपकार के अछि?, की ओहो भागि गेल अथवा कतहु नुकाएल अछि? कतेक महिलालोकनि एखनि धरि नुकाएल छथि तकर संख्यो नहिं बुझि सकल छी। द्वन्द्वयुद्धसँ भयाक्रान्त कतेको किशोर श्रमण सेहो भए सम्भव थिक जे एखनि धरि अपन-अपन प्रकोष्ठमे नुकाएले हेताह। की ओ लोकनि राति अभुक्ते रहताह?”- मण्डनमिश्रकेँ सभटा कर्तव्य बोध सोझाँ नाचि रहल छलनि।
प्रकोष्ठसभक निरीक्षण करबाक लेल पठाओल ओहि नारीदलकेँ एक अपरिचिताक संग घुरैत देखि इहो लोकनि साकांक्ष भेलाह- ‘ई के थिकीह, जे भारतीक कण्ठलागल चलि रहल छथि। रूप आ लावण्यसँ तँ कोनो रानी बुझाइत छथि, जे श्रमणा बनि चुकल छथि। आ ई लोकनि एटा नारीकेँ लए एना किएक घुरलीह? हुनकालोकनिकेँ तँ सभ प्रकोष्ठसँ सभकेँ निकालि लएबाक संकेत कएल गेल रहनि।ʼ
ता धरि रानीकेँ संग नेने सभकेओ मण्डपपर पहुँचलीह। रानी अभिवादन कए मण्डनमिश्रक सोझाँ बैसलीह आ अपन परिचय देलनि। सभटा तथ्य कहि सुनौलनि। दण्डधर जे एतेक कालस चुप्प रहथि बाजि उठलाह- माँ तारा सभटा व्यवस्था अपनहिं कए लैत छथि। ओएह बुधगामक एहि रानीकेँ पहिनहिसँ एतए पठाए हमरालोकनिक भार उतारि चुकल छथि। जय माँ तारे!”
रानीजी सेहो मन्दिर दिस घुमि- “जय माँ तारे, तारे तारे तुत्तारे स्वाहा।” भगवान् बुद्धक जन्मदिवसक दिन जखनि हमर परिवार अन्तिम सदस्य हमर पुतोहुक द्वाहशाह सम्पन्न भए गेल तखनि हम रथपर चढि एतए अएलहुँ शान्तिक अन्वेषणमे। श्रमणलोकनिक माध्यमसँ महाश्रमसँ भेंट कराओल गेल। हम बुधगामक राजकीय अंश संघारामकेँ दान करबाक संकल्प लेलहुँ। महाश्रमण अति आदर देखबैत हमरा एकटा पृथक् प्रकोष्ठ देलनि आ पटसाधनाक लेल सभटा व्यवस्था कए देलनि। दू दिनक बाद हमरा बजाए कहल गेल जे अहाँक साधना चरमपर आबि गेल। आब अहाँकेँ एहि संघारामक योगिनीलोकनिक उत्तरदायित्व दैत छी। ई सभकेओ अहींक आज्ञा पालन करतीह। हमरा बेर बेर कहथि जे अहाँमे शासन करबाक सहज गुण अछि, दीप्ति अछि, अहाँ एही लेल उपयुक्त छी। सभ योगिनी आ कुमारीलोकनिकेँ एकत्र कए महाश्रमण ई आदेश देलथिन. ताहि दिनसँ बुझू जे संघारामक सभ व्यवस्थाक भार हमरापर आबि तुलाएल। हमरा सभटा स्थान देखाए देल गेल। कोन योगिनी कोन चक्र-साधनाक लेल उपयुक्त होएतीह तकर निर्णय सेहो करबाक भार हमरेपर आबि बिसाएल। हुनकालोकनिक दिनचर्या सेहो हमरे ऊपर छल। हम आएल रही साधना करबाक लेल मुदा एतहु हमरा राज्यसासन पिंड नै छोड़लक। मध्यरात्रिमे साधनाक काल योगिनीसभकेँ आदेश दए सभ प्रकोष्ठमे पटाएब हमर काज रहि गेल छल पुनः प्रातःकाल ओसभ जखनि घुरि अपन प्रकोष्ठ अबैत छलीह तँ हुनक टुटैत देह आ भसियाइत मोनकेँ सेहो आश्वस्त करब हमरे काज छल। हमर मोन घृणासँ भरि चुकल अछि। हम पीड़ाक अथाह सागरक बीच डूबि रहल छी।”
-“कतेक नारी छथि एहि संघाराममे?” भारती पुछलथिन।
-“बीस टा योगिनी आ पाँच टा कुमारी। योगिनीसभमे अधिकांश अधबयसू छथि, हमरासँ सभ छोटे होएतीह। दू टा युवती छथि, जनिका यक्षिणी कहल जाइत छनि। ओ हमर अधिकारमे कहियो नै रहलीह, सोझे महाश्रमणसँ शासित रहलीह।”- रानी उत्तर देलनि।
मण्डन मिश्र बजलाह- “आइ महाश्रमण आ श्रमणलोकनि दण्डाघातसँ भगाए देल गेल छथि। आब पूरा संघारामक भार अहींक कान्हपर दए हमरालोकनि निश्चिन्त होमए चाहैत छी। अहाँक सहायताक लेल पर्याप्त भृत्य रहत सुरक्षाक लेल मल्लसभ रहत, जे एहि संघारामक सुरक्षा करत। कोनो विषय परिस्थिति अएलापर हमरालेकनिकेँ सूचित कए सकैत छी। मुदा, एखनितँ पहिल कर्तव्य ई जे प्रकोष्ठ सभमे बटुकलोकनि नुकाएल तँ नै छथि से देखल जाए।”
बुधगामक रानीजीकेँ ई एकाएक अपना ऊपर पड़ल भार अचम्भित कएलक- “हम तँ अपन राज-पाट सभटा त्याग कए श्रमणा बनि चुकल छी, तखनि फेरसँ ई शासन हमरा लेल असहज बुझए रहल अछि। राजाजीक मुइलाक बाद अनेक वर्ष धरि अपन अबोध बच्चाकेँ पोसैत सांकेतिक रूपसँ राज्यक भार लैत रहलहुँ। सभटा काज हमर गुरुदेव करैत रहलाह। पुत्र जखनि समर्थ भेल तँ विवाह कराए देलियै आ सभटा भार ओकरपर दए राजमाता बनि पूजा-पाठमे लागि गेलहुँ। मुदा ओ सुख बेसी दिन नै रहि सकल, पुत्रकेँ ईश्वर बजाए लेलनि। पुतोहु गर्भिणा छलीह तें एकटा फेर आशा छल, मुदा ओहो नै रहल। ओही पुतोहुक द्वादशाह दिन वैराग्य भेल आ एतए आबि गेलहुँ। आब फेर शासन करब हमरा लेल कठिनतर काज अछि।”
मण्डनमिश्र हुनक भावनाकेँ बुझैत हुनका बुझओलनि- “शासन आ शास्यक भावना व्यर्थ थीक। एतए शासनक कोन प्रसंग? बुझू जे माँ ताराक एहि मठक व्यवस्थाक भार लए एखरा चलएबाक छैक। अहाँ छोड़ि आर केओ एहि काजमे समर्थ नहि छथि।”
अंतमे रानी बजलीह- “अपनेलोकनिक आज्ञा शिरोधार्य अछि। हमरा कोनो परिस्थिति अज्ञात नै रहल। हम तत्काल दायित्व लेब स्वीकार करैत छी। अपनेलोकनिक आशीर्वाद आ माँ ताराक कृपासँ हम सम्हारि लेब सेहो आशा अछि।”– हुनक क्षत्रियोचित तेज आ रक्त स्वस्थ भए चुकल छल। सभ केओ प्रसन्न भेलाह। वैदिकलोकनि पाठ आरम्भ कएल- “स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा….।” संघारामक भीतर वेदमन्त्र प्रतिष्ठित भेल। रानी अपन खूटमे बाँधल एकटा स्वर्णमुद्रा दीनार निकाललनि आ वैदिकलोकनिकेँ दक्षिणा देल।
रानी मण्डपपर ठाढ़ भए उच्चस्वरसँ घोषणा कएलनि- “सभ अपन-अपन प्रकोष्ठसँ निकलि मण्डपपर आबी। जँ कोनो बटुक होथि तँ हुनकहु नेने आबी। कोनो भय नै करी।”
-सूपकार भागि चुकल अछि, मुदा भाण्डागार हमरा देखल अछि, भोजनशाला तँ सभकेँ देखल छनि। हमरालोकनि भोजनक व्यवस्था कए लेब। सैनिक आ भृत्यक लेल अलग पाकशाला छैक, ओहिमे सामग्री पठाओल जाइत छैक। अपनेलोकनिक द्वारा नियुक्त प्रहरी आ मल्ललोकनि भोजन बनाए लेत।”
अपन अपन प्रकोष्ठसँ नारीलोकनिक झुण्ड निकलल। संगहि चारि टा बटुक सेहो एक-एकटा नारीकेँ धेने निकललाह। दल मण्डपपर आएल तँ रानी संदेश सुनौलनि- “आइ धरि जे हम कुकृत्य कएल ताहि लेल क्षमा चाहैत छी। एखनहिसँ अहाँलोकनि योगिनी नै, साधिका बनि गेलहुँ। महाश्रमण आ अन्य श्रमण सभ आब नै रहलाह। माँ तारा विराजमान छथि, हुनक आराधना अहाँलोकनिक कर्तव्य भेल। सभटा दुःखकेँ त्यागि माँ ताराक ध्यान करू। आउ पहिने वैदिकप्रवर मण्डनमिश्रसँ आशीर्वाद लिय। संगहिं माँ भारतीक मूर्तरूप देवीस्वरूपा भारतीक चरण-स्पर्श करू।ʼ
ओ सभ नारी मण्डनमिश्रक सोझाँ दण्डवत् होमए लगलीह कि मण्डन रोकि देलनि- “नारीकेँ भूमिपर दण्डवत् प्रणामक आवश्यकता नै। वैदिकपरम्परामे एकर निषेध अछि। एहि मुद्रामे नारीक शरीरक भार ई सर्वंसहा पृथ्वी सेहो सहन नै कए पबैत छथि। नारी स्वयं देवीस्वरूपा होइत छथि। हमरालोकनि हुनका की आशीर्वाद देबनि, तखनि तँ वयसें वृद्ध छी, सभ केओ हमर पौत्रीक वयसक छथि, तें शुभकामना तँ अवश्य देबनि। माँ तारा अपन सौम्य दृष्टिसँ सभक मार्ग प्रशस्त करथि। ॐ स्वस्ति।”
सभ आह्लादित भेलीह। दू टा युवती, जनिका महाश्रमण यक्षिणी कहि अपन साधनाक क्रममे बजबैत रहथिन्ह, ओ आगाँ भए प्रश्न कएल- “हमरा की आदेश भेटैत छैक?
रानी कहल- “अहाँ दूनू गोटेकेँ एहि संघाराममे सभ ठाम अबाध गतिसँ जेबाक अनुमति छल। तें सभटा गुप्त स्थान सेहो अहाँकेँ देखल होएत। हमरासँ बहुत पहिनहिं अहाँ एतए आएल छी तें अहाँ दूनू गोटे शीघ्र गतिसँ जाउ आ सभठाम जाए ताकि लियʼ जे आर के सभ नुकाएल छथि। एकटा कुमारि नहिं भेटि रहल छथि, से हुनका ताकि लाउ। आ सुनू घुरबाकाल हमर प्रकोष्ठसँ पोथीक ओ कोथरी सेहो नेने आएब जकर प्रतिलिपि हम करैत रहैत छी।”
मण्डनमिश्र पोथीक नाम सुनि चौंकलाह- “कोन एहन ग्रन्थ छै जे विशेष अछि, आ एहि व्यग्रताक अवस्थामे हमरा देखाबए चाहैत छी?”
-ई ग्रन्थ विशेष द्रष्टव्य अछि पण्डितप्रवर। हमरा पिता बाल्यावस्थामे आयासपूर्वक पढाए पण्डिता बनौलनि। बाल्यावस्थामे कोष, व्याकरण, दण्डनीति आ धर्मशास्त्रक पर्याप्त अध्ययन कराओल गेल। हमर हस्तलेख अत्यन्त स्पष्ट आ सुन्दर होइत अछि। हमर पिता कहल करथि जे हिनक विवाह तँ कोनो राजासँ होएतनि ने, तखनि दण्डनीति आ धर्मशास्त्रक ज्ञान आवश्यक हेतनि आ जीवन भरि संग देतनि। तें हमरा देवभाषाक व्याकरणक ज्ञान अपन काज चलएबा योग्य अछि। विवाह भेल तँ ओतए राजाजी स्वयं आयास कए हमरा काव्य पढबाक लेल प्रवृत्त कएलनि अपनहुँ कवि छलाह तें विशेष रुचि रहलनि। एतए ओ ज्ञान हमरा काज देलक। ई बात जखनि महाश्रमणकेँ पता चललनि तँ आइसँ करीब एक मास पहिने हमरा बजाए ओ एकटा ग्रन्थ देलनि आ कहलनि जे एकरा नव तालीपत्रपर सम्पूर्ण रूपसँ प्रतिलिपि कए दिय। ई प्रतिलिपि करब हमर साधनाक एकटा अंग भए गेल। पोथी प्रतिलिपि करबाक क्रममे हमरा आभास भेल जे कोनो प्राचीन ग्रन्थ मे किछु अंश ई महाश्रमण स्वयं लीखि बीच-बीचमे घोंसिआए रहल छथि। नव आ पुरान लेख आ तालीपत्र स्पष्ट छैक। एकर प्रतिलिपि कए प्रत्येक दिन हुनका समर्पित करबाक आदेश छल। हम जतेक लिखने जाइ से हुनका अर्पित कएल करी। लगभग सभटा अंश पूर्ण भए गेल अछि। मूल ग्रन्थ हमरहि लग अछि, मुदा हमर प्रतिलिपि कएल अंश महाश्रमणक प्रकोष्ठमे होएत। एहिमे विशेष बात ई छैक जे जे अंश नवपर जोड़ल गेल छैक ओ असहज अछि। ओहिमे साधनाक वीभत्स रूप छैक। मारण मोहन उच्चाटनादिक तेहन तेहन विधि छैक जकर वर्णन हम मुँहसँ उच्चरित नै कए सकब। आकर्षणक साधनामे पशुक माँस, अस्थि आदिसँ होम करबाक प्रक्रिया देल गेल अछि। ओहिना चक्रसाधनाक स्वरूप सेहो बीच-बीचमे देल अछि जेकर बीभत्स रूपसँ एहिठामक समस्त योगिनीगण सीदित छथि। ई हम अपनेकेँ पढबाक लेल दए रहल छी।”
– “अहाँक हस्तलेखमे जे पोथी अछि से देखब आवश्यक जे ओ अपन स्थानपर अछि अथवा नहिं। कारण भविष्य ओकरा देखि भ्रम करत। ओ समस्त अंशकेँ मूल बूझि लेत। तें ओकर अन्वेषण करू।”
एहि बेर रानी स्वयं महाश्रमणक प्रकोष्ठ दिस बढलीह। केबाड़ लग पहुचले रहथि की प्रकोष्ठमे ककरो उपस्थितिक भान भेलनि। के अछि प्रकोष्ठमे? पहिने हुनक भेलनि जे ई दूनू यशक्षिणी होएतीह। ओ केबाड़पर धक्का देलनि, तँ केबाड़ खूजि गेलैक। भीतर जाए देखलनि तँ ओ पोती अपन स्थानपर नहि रहए। ओ चिचिअएलीह आ चारूकात तकलनि तँ बुझएलनि जे महाश्रमणक प्रकोष्ठसँ गह्वर दिस जेबाक मार्गपर एकटा वृद्ध हाथमे ओ ग्रन्थ लेने भागि रहल अछि, ओकरा लग एकटा आरो मोटरी छैक। हुनका शंका भेलनि जे कहीं संघारामक निधि तँ ने चोराए भागल जा रहल अछि। ओ ओतहिसँ चिचिअएलीह- “चोर, चोर। दौड़ै जाउ।”
सत्ते, दैनिक राशिक जे निधि छल तकर मंजूषा खाली भेल उलटल छल। दू टा बलिष्ठ युवक प्रकोष्ठ दिस दौड़लाह। हुनका रानी सुरंग दिस संकेत कएलनि तँ ओहि देने ओहो दूनू दोड़ि गेलाह। ओ सुरंग एकटा पैघ प्रकोष्ठमे समाप्त होइत छल, जकर बाद एकटा संकीर्ण द्वार रहए। द्वारकेँ खोलि आगाँ बढबाक प्रयास कएल तँ ओ बाहरसँ बंद कएल गेल छल। हिनकालोकनिक लेल ओ स्थान सर्वथा अपरिचित रहनि तें चोर पकड़ा नै सकल। बुझएलनि जेना गह्वरक बाहरी द्वार यैह थीक। चोर एही बाटें आबि महाश्रमणक प्रकोष्ठसँ ओ पोथी आ बाहरमे जे निधि भेटलैक तकरा लए भागि चुकल छल।
रानी कहलनि- अनकर नै करमापाक काज थीक। भगैत काल पीठक दिससँ ओएह बुझाएल। एहन वृद्ध जे दुब्बर-पातर आ कारी होअए ओएह टा अछि जे महाश्रमणक प्रकोष्ठमे आएल-गेल करैए। ई एकटा पैघ चिन्ताक विषय उत्पन्न कए चुकल छल। अस्तु, दण्डधरमिश्रक लेल ओ ओतेक चिन्ताक विषय नै, मुदा मण्डनमिश्रकेँ दशो दिशा सुझाए लागल रहनि।
चोरक पाँछा करैत-करैत ओ यूनू युवा वैदिक बाहर निकलबाक जखनि कोनो उपाय नै देखलनि तँ जाहि मार्गें गेल रहथि ओही मार्गें घूरि फेर महाश्रमणक प्रकोष्ठमे अएलाह। तखनि रानीजी ओहि मार्गक द्वारकेँ नीक जकाँ कीलित कए, ओकर दोसरो द्वारकेँ अपनगि हाथें ताली लगाए मण्डपपर अएलीह। ता धरि ओ दूनू यक्षिणी रानीजीक प्रकोष्ठसँ ओ कोथरी नि मण्डनमिश्रक हाथ मेँ दए चुकल रहथि। मण्डनमिश्र विशेष नहि पढि केवल प्रक्षिप्त अंशक पुष्पिका बाँचए लगलाह- “इति धर्मकीर्तिमहाविहारे धर्ममूलायां माहिष्मतीनगरे…।” मण्डनमिश्रकेँ सभटा स्पष्ट भए गेलनि। भविष्यमे जँ कहियो बौद्धलोकनिक हाथ ई संघाराम फेरसँ आओत तँ एहि ठाम स्थानीयपरम्पराक अनुव्रजन करैत फेरसँ आरम्भ भए जाएत उपासनाक वीभत्स स्वरूप साधनाक नामपर वीभत्स यौनाचार, फेरसँ अनेक परिवार नारी लोकनियोगिनी बनाए देल जेतीह, युवती सभ यक्षिणी बनि साधनाक चक्रमे पिसाइत रहतीह। हमरालोकनिक ई प्रयास स्थायी नै रहि सकत।
ता धरि रानी सेहो पहुँचि गेलीह आ सूचित कएलनि जे हमरा पूर्ण विश्वास अछि जे करमापा लए गेल। दैनिक व्ययक लेल जे अतिरिक्त निधि रहैत अछि, ओहो चोराए लेल गेल! दण्डधर मिश्र बजलाह- “करमापाक तँ मरम्मति भए जेतैक। प्रयास करैत छी जे ओ ग्रन्थ हाथ आबि जाए।” ओ अपन युवा पुत्रक संग अन्य तीन युवा वैदिककेँ कहलनि- “बात बुझिए गेलियैक। उचित कार्य करी। जाउ अश्व, हस्ति, रथ जे लए जेबाक हो लए जाउ आ शीघ्र करमापाक अन्वेषण करू। हमर समस्त धन-सम्पत्ति जँ एहि कार्यक लेल खर्च भए जाए तँ संकोच नै करब।” ओ चारू युवक बाहर निकलि घोड़ापर चढि करमापाक पछोड़ कएलनि।
एम्हर ओ दूनू यक्षिणी आबि सूचित कएल जे दू टा आरो बटुक नुकाएल भेटलाह, जनिका हम नेन अएलहुँ। माने अठारह योगिनी, दू यक्षिणी, पाँच कुमारी आ चारि बटुक ई एतेक संघाराममे बचि गेल रहथि। हिनकालोकनिक भार लए रानी सभकेँ आश्वस्त कए देने रहथि।
एकटा वृद्धा होइत योगिनी जे सभसँ अधिक दिनसँ एतए छलीह, ओ सोझाँ आबि बजलीह- “सभसँ महत्त्वपूर्ण अछि जे काल्हिसँ माँ ताराक उपासना कोन विधिसँ होएत? एखनि धरि जे विधि हम जनैत रहलहुँ से तँ आब नहिं रहबाक चाही। ओहिमे कनैलक कलीकेँ आ अपराजिताक बीचमे राखि चढाओल जाइत छल तखनि तँ वेदोक्त विधान सुनिश्चित होअए। नैवेद्य की की होएत, कोन फूलसँ पूजन होएत, अन्य की की अर्पित कएल जाएत आ की नहि से निश्चित होएबाक चाही। पद्धति बनाओल जाए। एखनि धरि जे पूजन होइत रहल अछि से ततेक बीभत्स छैक जे कहबा मे संकोच होइत अछि।
रानी कहलनि- अहाँ सभसँ पुरान योगिनी छी। महाश्रमणक निर्देशनमे की की होइत छल तकर ज्ञान तँ हमरहु नै अछि, कारण चक्रपूजाक बेरमे मन्दिरमे केवल युवा साधक, योगिनी आ यक्षिणीकेँ रहबाक प्रावधान छलनि। महाश्रमण स्वयं अपन निर्देशनमे सभटा करबैत छलाह। हमरा सन्ध्याक आरतीक बाद अवकाश भेटि जाइत छल।
ओ योगिनी बजलीह- “धुर, ओ महाश्रमण की निर्देशन करताह। हुनका तँ अपना महायानक मन्त्र- ये धर्मा हेतुप्रभवा इत्यादि सेहो शुद्ध-शुद्ध बाँचल नै होइत छलनि। हमही हुनक बदलामे पढ़ि दैत रहियनि।”
मण्डन मिश्र फेर चौंकलाह- “अएँ, ओ तँ कहात रहथि जे नालंदामे पढने छथि।”
-“देखू तँ भला! कतेक मिथ्या बजलाह। हुनका तँ नालंदामे प्रवेशो लेबाक योग्यता नहिं छलनि। द्वार-परीक्षे कालमे छाँटि देल जैतथि। ओ कोनो ठक छल, ठक। आइसँ छओ-सात वर्ष पहिने पहिलुका महाश्रमणकेँ महाराज बजाए एकटा नव संघाराम बनएबाक लेल कहलनि। तखनि एतए खाली जगहकेँ भरबाक लेल एक दिन सुनलहुँ जे नवका महाश्रमणकेँ महाराज अपनहिं ताकि पठा चुकल छलि। एक राति ओ जा धरि पहुँचथि ता धरि राति भए गेल रहै। कदलीवन टपि कए ओ उपवनमे तँ प्रवेश कए लेलनि मुदा ओकर बाद द्वार बंद भए चुकल छल। शीतकाल रहैक, से द्वारपालो सभ चल गेल छल। तखनि हुनका उपवनक पर्णमय कुटीरमे रहए पड़लनि। सुनलहुँ जे अगिला दिन एकटा श्रमणक शव धर्ममूलामे देखल गेल। पहिने तँ लोककेँ भेलैक जे रातिमे जे श्रमण एतए महाश्रमणक पदपर रातिकेँ आएल रहथि हुनके हत्या भेल, मुदा ओ तँ प्रातः द्वारपालक अएलापर द्वार खोलबाए संघाराम मेँ आबि गेल रहथि। हुनका सदेह पाबि सभ निश्चिन्त भए गेल जे केओ आन श्रमण होएताह, बाघ आदि खाए गेल हेतनि। मुदा जखनि हम किछु दिनक बाद हिनक रंग-ढंग देखल तँ आशंका भेल जे असली महाश्रमणक हत्या कए ई केओ छद्मवेषी आबि गेल अछि। युवा साधक सभ एकरा प्रति वेशी आकृष्ट रहैक आ आगाँ-पाछाँ करए। एहि छद्मवेषी महाश्रमक आदेशक उल्लंघन करबाक केकरो साहस नै होइ। जेकरा महायान मन्त्र अभ्यास नै हो से जँ महाश्रमण बनए तँ की होए।”
रानीजी फेर पुछलनि- “मध्य रात्रिक चक्रार्चन मे की सभ होइत छलै?”
चक्रार्चनक प्राचीन विधि मेँ चौंसठि योगिनीक पूजन होइत छल। चारिकेलक जल ताम्रपात्रमे लए चढाओल जाइत छल। सभ साधक एतेक काल बैसि समाधि मुद्रामे जप करैत छलाह। करीब दू घंटाक इ जप हइत छल। हमरालोकनि जडतेक योगिनी रही सेहो देवी गाँ बैसि साधना करी। किनको सम्पूर्ण मन्दिर निःशब्द भए जाइत छल। अलौकिक आनंद भेटैत छलै। सभक शरीरक कान्ति बढल जाइत छल। बादमे जखनि ई महाश्रमण आएल तँ घोषना कएलक जे एकटा एहि संघारामक संस्थापक वाङ्-शि-त्सांग माने वशिष्ठक लिखल एकटा सूत्र ग्रन्थ राजा महाचीनसँ मङओलनि जकर प्रतिलिपि आबि गेल अछि। ओहिमे जे साधनाक वविधि छैक तकरे अनुपालन कएल जाए। एहि नवीन विधि मे चक्रार्चनक मुख्य दू भाग छल- “अमृतार्चन आ पुष्पार्चन। अमृतार्चनक काल एहि दूनू यक्षिणीक विशेष प्रयोजन छल। स्वर्ण घटमे मदिरा लए ओकर किछु विन्दु देवीपर चढ़ाए ओ अपनहि हाथें सभकेँ मदिरापान करबैत छल। योगिनी आ साधक सभक लेल एक एक चषक मदिरा प्रसादक रूपमे पान करब आवश्यक रहए। तकर बाद पुष्पार्चनक प्रक्रिया आरम्भ होइत छल. सभ साधकक हाथमे एकटा अपराजिता पुष्प आ एकटा कर्णिकारक कली रहैत छलैक अपराजितामे ओहि कर्णिकारक कलीकेँ राखि मन्त्र पढल जाइत छलै- लिङ्गपुष्पसहितयोनिपुष्पं समर्पयामि। सभ साधक आ योगिनी ई प्रकिया करैत रहथि आ तकर बाद युवासाधक योगिनी आ युवा साधक सभ एकरे भौतिक प्रदर्शन सेहो करैत छलाह। मन्दिरक कपाट बंद रहैत छल मुदा भीतर आसमर्द्दसँ लगैत छलैक जे शिकऱ उड़ि जाएत।”
सभ केओ अपन कान मुनलनि- “आः शान्तं पापम्। छिः एतेक भ्रष्टता! माताक सोंझाँ एहन कुकृत्य!!”
ओ योगिनी चुप्प भए गेलीह। मण्डनमिश्र बजलाह- “तत्काल काल्हिसँ बौधायनक गृह्यसूत्रमे वर्णित उपासना आरम्भ होएत। एकटा केओ वैदिक आबि प्रातःकाल ई पूजा कराए देताह। हम तकर व्यवस्था कए देब। ओना आइ रातिमे तँ हमहूँ एही मण्डपपर रहब। तें प्रातःकाल हमही कराए देब। ई चारि टा बटुक शीघ्रे प्रशिक्षित कए देल देताह। आब सन्ध्या सेहो आबि रहल अछि। सभकेँ सान्ध्यकृत्यक समय भेल जा रहल छनि तें आब अहाँ सभक लेल भोजनादिक व्यवस्था करी। दण्डधर आदिकेँ कनेक दूर जेबाक छनि। तें हिनकालोकनिकेँ अवकाश देल जाए। हम जे प्रथम भिक्षा लए आएल छी सैह भेल हमर भोजन। ई चारू बटुक हमरा लेल अभीष्ट काज कए देताह।”
मण्डनमिश्र ऊठि ठाढ- भेलाह तँ सभ केओ एकरे सभा विसर्जन बुझलनि। दण्डधर कहलनि जे ‘हमरालोकनिक संग कुल 10 टा मल्ल आएल अछि, तकरा हम रातिमे एतहि छोड़ने जाए रहल छी। रथपर तरुआरि राखल छैक। ई दसो टा असिधर मल्ल कोनो परिस्थितिकेँ सम्हारि लेत। आब अगिला काज कालिहि देखल जेतैक। हम अहाँक लेल ग्रामसीमासँ बाहर एकटा आवास काल्हि बनबाए दैत छी। खाली रानीजी कृपा करथि जे एहू मल्ल सभक भोजनक आइ एके संग बनबाए देथु।ʼ
रानीजीक स्वस्ति लए सभ निकलि गेलाह। मण्डनमिश्र सेहो सान्ध्यकृत्यक लेल उपवनमे बनल पुष्करिणी दिस बढ़ि गेलाह।
16
सभ केओ चल गेलाह आ तखनहि 10 मल्ल रानीजीक समक्ष उपस्थित भेल। सभक हाथमे भयंकर तरुआरि छल। रानीजी पहिने तँ चौकलीह मुदा 10क संख्या मन पड़लनि। संगहि ओ मल्लसभ आबि अभिवादन कए आज्ञाक प्रतीक्षामे ठाढ़ भए गेल। रानीजी दू टा मल्लकेँ आदेश देलनि- “आइ राति बड़ सावधान रहबाक आवश्यकता अछि। सम्भव थीक जे रातिमे आक्रमण हो आ फेरसँ महाश्रमण एहिपर अधिकार कए लेथि। अहाँ दू गेटे हमर अनुसरऩ करू आ शेष एतहि प्रतीक्षा करू। अहाँ दूनू अपन-अपन तरुआरि एतहि राखि दियौक।”
ओ दूनू आज्ञाक पालन कए रानीजीक अनुसरण कएल। रानीजी संघारामक द्वारक दहिनाकातक एकटा प्रकोष्ठ मे ओहि दूनू मल्लक संग प्रवेश कएलनि आ ओहिमेसँ बीस टा तरुआरि आ किछु छुरा निकालि ओहि दूनू मल्लकेँ उठाए मण्डपपर लए जेबाक आदेश देलनि। अपना लेल एकटा श्रेष्ठ तरुआरि चुनलनि आ ओकरा माथ लगाए कसि कए धारण कएलनि।
दूनू मल्ल ओ सभ तरुआरि आनि मण्डपपर राखल आ तखनि रानीजी मल्ल सभकेँ आदेश देल- “एहि संघाराममे बाहरसँ अएबाक मात्र दू टा मार्ग अछि- मुख्यद्वार आ गह्वरक मार्ग। मुख्यमार्ग हमरालोकनि भीतरसँ बंद कए लेब तें ओतए बाहर अधिक बलक आवश्यकता नहि। मात्र दू योद्धा ओतए बनल प्रकोष्ठमे रहब। चारि योद्धा गह्वरक कातमे बनल मण्डपपर रहब आ शेष चारि योद्धा उपवनमे बेराबेरी घुमैत पहरा देब आ बीच-बीचमे आबि मुख्यद्वार आ गह्वरक प्रहरीकेँ सूचना देब। मुख्य द्वारपर एकटा डोरी बाँधल छैक जकरा खिंचलापर मण्डपक घंटा बाजत। कोनो प्रकारक आपात स्थितिमे ओ घंटा शीघ्र बजाओल जाए, जाहिसँ हमरालोकनि साकांक्ष भए सकी।”
मल्ललोकनि रानीजीकेँ अभिवादन कए गेलाह तखनि ओ घंटापर चोट देलनि। सभ सभ नारी आ बटुक मण्डपेपर उपस्थित भेलाह। तखनि रानीजी सामूहिक संबोधन करैत बजलीह- “अहाँलोकनिकेँ असहज लागत जे आइ हम सभकेँ एक-एक टा तरुआरि पकड़ाए रहल छी। मुदा, ई आवश्यक अछि। बेर पड़लापर माता सीता सेहो अस्त्र-शस्त्र धारण कएने रहथि। माता दुर्गा तँ शस्त्रास्त्र धारण करिते छथि। अहूँलोकनि आइ दिनसँ एक-एक शस्त्र धारण करू। आइ राति तँ विशेष आवश्यकता अछिए, सदिखन अहाँक कक्षमे ई रहबाक चाही। आइसँ बूझू जे अहाँलोकनिक पुनर्जन्म भेल अछि। साधनाक नामपर छद्मवेषी साधक द्वारा अहाँसभ ठकल गेल रही। अहाँसभकेँ जाहि साधनामे झोंकि देल गेल छल ओ वास्तविक नै छलै ओ भ्रष्ट साधक पुरुषलोकनिक उद्दाम वासनाक पूर्तिक लेल रचल गेल आ साधनाक मौलिक स्वरूपकेँ सेहो भ्रष्ट करैत रचल गेल षड्यंत्र रहैक। बौद्ध महायानक तंत्रक धाराक विपरीत अहाँलोकनिकेँ एकटा पाँक मे धकेलि देल गेल छळ। आइसँ अहाँ सभ वास्तविक साधनाक दिस बढब। बिसरि जाउ अपन काल्हि धरि गप्पकेँ आ माता ताराक कृपादृष्टिसँ आरम्भ करू अपन नवजीवन।” हुनक आदेशपर सभ केओ एक एक टा तरुआरि पकड़लनि आ ओकरा माथ लगाए धारण कएलनि।
रातुक भोजन बनल। सभ महिलालोकनि आइ कतोक वर्षक बाद भनसाघर गेल रहथि। एतए पाकशालामे सूपकार छल जे सभक लेल भोजनक व्यवस्था करैत छल। मुदा आइ जखनि एतए अएलीह तँ जे सभ एतए अएबासँ पूर्व गार्हस्थ्यक सुख भोगने रहथि तनिक आँखिसँ दहो-बहो नोर खसए लागल। रानीजी स्वयं वस्त्रकेँसँभारने सभसँ आगाँ रहथि। दूनू यक्षिणी दौड़ि दौड़ि काज करथि- “गे यक्षिणी, एतए पानि ला, एतए कने ओ बरतन दे तँ।”
रानीजी कहलनि- सभसँ पहिने एकर दूनूक नाम बदलए पड़त। अपन पुरना नाम नहि राखि एहि ठामक नाम राखए पड़त।
-“अहीं राखि दियौ नै।” दूनू बाजलि।
– “नै नै, हम नै रखबौ। सभसँ बूढ़ जे छथुन्ह हुनका कहुन।”
– “हमरा एकर लूरि नै अछि। हम तँ बुच्ची, लुच्ची, खुरलुच्ची सैह रखबौ ने, रानीजीसँ निकहा नाम रखा ले।” बूढ़ी योगिनीश्रेष्ठा अपन मुँह झँपैत आ मुसकियाइत बजलीह।
-“बेस तँ एकटाक नाम ललिता आ दोसरक नाम मालती। अपना अपना लेʼ चुनि ले।” रानीजी हँसिते कहलनि।
-“ हम रहब ललिता। एक टा बाजलि।
– “नै, हमर रहब। बड़ नीक नाम छै, ल लि ता।” दोसर पयर पटकि ठुनकल।
दोसरो ठुनकलि आ सभकेओ ठहक्का मारलनि।
आजुक दिव्य भोजन तैयार भेल। आने दिन जकाँ थार लगाए पहिलुक मन्दिरमे भोग लगाओल गेल। भोगक कालमे आने दिन जकाँ पट बंद कए सभ केओ दारिपर बैसलीह आ पातरिक गीत गओलनि। आरती भेल, सभटा सन्ध्याकृत्य सम्पन्न कए रानीजीक आदेशसँ मन्दिरक पट बन्द भए गेल- मध्यरात्रिक पूजा आइसँ नहि होएत, माँसँ क्षमा माँगि ली।
ताबत धरि मण्डनमिश्र सेहो सान्ध्यकृत्य सम्पन्न कए मण्डपपर आबि चुकल एकसरे बैसल गहन निन्तममे मग्न रहथि। रानीजी सभसँ पहिने जाए हुनक पुछारि कएल। मण्डनमिश्रक संन्यासक आइ पहिल रात्रि छल।
-“अपनेक लेल की अभीष्ट कएल जाए?
-“किछु नहिं. हमर तँ सभ चिन्ता अहाँ दूर कए देल। अहाँक द्वारा कएल गेल रात्रिक लेल सुरक्षा व्यवस्थासँ अत्यन्त आह्लादित छी। हम ओहि माता-पिताकेँ धन्यवाद दैत छियनि जे अहाँसन क्षत्रियकन्याकेँ जन्म देलनि। हमरा एहि बात अत्यन्त प्रसन्नता अछि जे हम उपयुक्त व्यक्तिकेँ आपातकालमे एहन गुरुतर कार्यक भार देलहुँ। हम सान्ध्यकृत्य कए भोजन कए लेल आ आब उपवनक एक मण्डपमे जाए विश्राम करब। अहूँलोकनि भोजन कए विश्राम करू। बाहर 10टा भृत्य अछिए कोनो आवश्यकता होएत तँ ओ सभसँभारि लेत।
सभकेओ पाकशाला गेलीह। रानीजी आदेश देलनि- सभसँ पहिने चारू बटुक आ पाँचो कुमारिकेँ बैसाउ। हमरालोकनि परोसि आइ हुनकासभकेँ खुआबी। पाकशालाक बरंडापर व्यवस्था भेल, सन लागल। आन दिन श्रमणसभकेँ भोजन करबाक लेल काठक बनल छोट चौकी रहैत छल, जाहिपर थारी राखि भोजन करैत छलाह। मुदा आइ रानीजीक देशसँ ओकरा हटाओल गेल आ कम्बलक आसनपर एहि नवो गोटेकेँ बैसाए भूमिपर छारी राखल गेल। चारू बटुक आने दिन जकाँ ऊर्ध्ववस्त्र खोलि बैसलाह आ नारीलोकनि पूछि-पूछि खुआबए लगलीह।
-“आरो खो ने बौआ! देखू तँ कतेक दिनपर ई भाग जागल अछि जे नेनाकेँ खुआए रहल छी! नारीदल अपन-अपन आँखिक नोरकेँ झँपैत रहलीह। “एते दिन तँ भनसीया थारीमेपरसि दए दैत रहै, बच्चाकेँ पेट भरलै कि नै तकर कोनो पुछारि नै रहैत छलै।”
-“अहाँके तँ दूनू बेटा आब जबान भए गेल होएत”?- एक महिला दोसरसँ पुछलनि।
-“हँ। जहिया हम घर छोड़ने रही तहिये एते टा रहै। आब तँ बियाहो-दान भेल हेतै।”
-“घर किए छोड़ने रहियै?” रानीजी पुछलनि।
– “कहबनि कखनो निचेनसँ। कोन दुरमतिया लागल जे दबाइ मँगै ले एतए आबि गेलियै।” हुनका अपनहिपर जेना आकरोस भए रहल छलनि।
सभ केओ भोजन कए अपन अपन प्रकोष्ठमे जाए लगलीह तँ रानीजी आदेश देलनि- “आइ ई चारू बटुक आ पाँचो कुमारि अलग प्रकोष्ठमे नहि सुतताह। एक-एक टाकेँ एक-एक योगिनी अपन-अपन कक्षमे राखि लियनु। आ हमरा संगे सेहो एक कुमारि रहतीह। आर बाँकी जे जेना रहैत छी, तेना रहि सकैत छी। आइ सावधानेसँ सुतबाक छै। जँ कखनो रातिमे मण्डपक घंटा बाजए तँ सभ अपन अपन कक्षसँ तरुआरि लेनहि निकलब। सम्भव थीक जे रातुक अन्हारक लाभ लैत ओ श्रमण सभ आक्रमण करत आ फेर एतए अधिकार कए लेत। एहिसँ बाँचब आ संघारामकेँ बचाएब आवश्यक अछि। काल्हि हम स्वयं पत्र लीखि दूतक हाथें महाराज धरि ई संदेश पठाएब जे केना एक धूर्त असली श्रमणक हत्या कए स्वयं एतए एतेक दिनसँ रचि-बसि बौद्धधर्मक साधना-परम्पराकेँ दूषित कएलक। महाराज बुधगाममे कएल गेल स्वागतकेँ किन्नहुँ नहि बिसरने होएताह।
सभ अपन-अपन कक्ष गेलीह। महारानी स्वयं ओहि दूनू यक्षिणी जकर नाम ओ ललिता आ मालती रखने रहनि ओकरा संग कए प्रांगणक मुख्य द्वार बन्द कए नीक जकाँ कीलित कएलनि आ अपन प्रकोष्ठ मे एकटा सभसँ अधिक वयसवाली कुमारिकेँ बजाए हुनका संग एकहि श्यायपर शयन कएल। एते दिनसँ मध्यरात्रिधरि जागरणक दिनचर्या बनि जेबाक कारणें ने तँ हिनके निंद आबि रहल आ ने ओहि कुमारिएकेँ। हुनक वयस करीब 12 वर्ष छल होएत। अनिन्द्य सुन्दरी कहल जाए तँ कोनो हर्ज नै। साक्षात् देवीक प्रतिरूप छलीह।
आइ रानीजीमे फेर मातृत्वक भाव समुद्रमे आएल जुआरि जकाँ जागि रहल छलनि। पूर्णचन्द्र सन लावण्यमयी कुमारिक सान्निध्य हुनका अपन अतीतमे लए जाए फेंकि देने छल। हुनकर कुल-पुरोहितक बेटी सेहो ठीक एहने रहथि, जनिका ओ तिनिए वर्षक अवस्थासँ आश्विनक नवरात्रमे प्रतिदिन कुमारि खुअबैत छलीह आ हुनक पयरमे अलक्तक राग लगबैत छलीह। अपना बेटीक सौख जे लागल रहिए गेलनि तकर क्षतिपूर्ति ओहि कुमारिसँ करैत छलीह। जखनि ओ कनेक आर पैघ भेल रहथि तँ पुरोहितकेँ कहि हुनका अपन पूजाक सहायिका बनाए नेने रहथि आ कहियो काल हुनका अंकमे भरि अपन शय्यापर सेहो सुताए लैत रहथि। आइयो फेरसँ ओ अपन अतीतमे हेरा गेलीह। कतेक सुखद ओ दिन छल जहिया ओ कुमारि विवाहक योग्य भेल रहथि तँ रानीजी इच्छा व्यक्त कएने रहथिन- “एकर बियाह हम अपन बेटी जकाँ करएबै।” राजाजी सेहो हिनक प्रसन्नताक लेल घोषणा कए देने रहथि- “ठीक छै। कोनो ब्राह्मण, सुशील राजाक खोज करै छी।” आ से ठीके मनक अनुरूप वर सेहो भेटि गेलाह। राजमहलेसँ विवाह भेल रहै आ विदाइक काल सभ बेटिए क विदाइ जकाँ कानल रहथि।
आइ रानीजीकेँ ओएह मन पड़ि गेलनि। कुमारिकेँ भरि पाज पकड़ि लेलनि। ओहो सुधि-बुधि बिसारि लेपटाए गेलि। मायक आकृतियो तँ आब बिसरा गेलै। मुदा, जन्मक कालहिसँ जे अचेतन मनमे जे आस्था सुरक्षित छलैक से कोना बिसरेतै! रानीजी ओकर माँथ हँसोथैत पुछलथिन- “अहाँ कतेक दिनसँ एतए छी?”
-“हमरा एना करीब पाँच वर्ष भेल होएत।”
-“घर कतए छल से मन अछि? केना अएलहुँ”?
– घर कतए अछि से मन नै अछि. खाली एतबे टा मन अछि जे हमर घरक आगाँ एखटा विशाल पोखरि छल आ ओकर दहिनाकात खूब ऊँच पहाड़ जकाँ माँटिक ढिमका छलै। खूब पैघ ढिमका, जाहिपर जंगल भरल छल। हमसभ अपन संगी संगे ओकर कातमे खेलएबाक लेल जाइत रही। पोखरिक पानि निकलै के एकटा नाला छलै जकर ओहि पार चढाइपर एखटा पैघ पीपरक गाछ छलै। बस, एतबे टा स्मरण अछि। हमर घरक कातमे एकटा मंदिर रहै, जकर फुलबारीमेसँ हमसभ फूल तोड़ि खेलाइ। एखटा इनारो छलै। हमरा माए ओही इनारपर लए जाए नहाबति। इनारक कातमे छोटे छिन घर हरै, ओही मे हम माय लग सुतैत रहियै। आर बेसी ने मन अछि।”
-“एतए केना एलहुँ से मन अछि?”
-कनेक कनेक मन पड़ैए। एक दिन हम सभ खेलाइत खेलाइत पोखरिक दछिनवरिया भिंडापर ओहि ढिमकापर चढि गेलहुँ। हम रही आ एकटा हमरासँ कुछ जेठ हमर संगी। जखनि ऊपर गेलहुँ तँ ओतए एकटा कुटी छलै आ एकटा बाबाजी एसकरे रहैत रहथि। गर्मीक मास रहै तैयो ओ सोझाँमे आगि पजारने बैसल रहथि। हमरा दूनूकेँ अबैत देखलनि तँ सोझे ऊठि हमरा लग एलाह आ हमर पयर पकड़ि कानए लगलाह- देवी आबि गेलीह, देवी आवि गेलीह! हमरा डर भेल तँ हम दूनू सोझे पाछाँ मुँहे भगलहुँ आ मन्दिरपर बैसल बाबूजी लग चल अएलहुँ। ओ बाबाजी तैयो हमर पठोड़ नै छोड़लनि आ मन्दिरेपर आबि गेलाह। हुनका देखि हमर बाबूजी ऊठि ठाढ भेलाह आ हुनका बैसौलनि। तकर बाद ओ बाबाजी कहलथिन- “ई कन्या तँ साक्षात् देवी छथि। आइ हमर कुटिया धरि पहुँचि रहथि, मुदा फेर भागि गेलीह। हम हिनकर पयर पूजए चाहैत छी।”
बाबूजी हमरा मन्दिरेपर चुपचाप बैसए कहलनि। हुनके कहलापर ओ बाबाजी हमर पयरपर माथ राखि बड़ी काल धरि किछु पढ़ैत रहलाह आ तकर बाद ऊठि हमर पयरपर एकटा चमचमाइत सन छोटे छिन गोल वस्तु रखलनि आ फेर पयरपर माँथ राखि चल गेलाह। ओहि दिन हमर पिताजी अत्यधिक प्रसन्न रहथि। हमर पयरपर रखलहा वस्तु उठाए ओकरा माथसँ लगौलनि आ सोझे हमरा लए आँगन गेलाह, हमर मायकेँ देखौलनि। माय सेहो खुशीसँ हमरा कोराकेँ उठा लेलनि। आब बुझै छियै जे ओ स्वर्ण-मुद्रा रहैक दीनार। तकर बादे हमरा घरमे एकटा गाय सेहो आबि गेल आ खेबाक वस्तुजात नीक-निकुत होमए लागल। ओकर बाद तँ कतेक दिन ओ बाबाजी हमरहि घरपर आबथि आ हमरहि आँगन मे बैसाए हमरे माय हाथक रान्हल खीर अपने परोसि खुआबथि। जतेक काल हम खीर खाइ हमर सौझाँमे बैसल कर जोड़ि ओ किछु पढथि। अन्तमे हुनके कहलापर अपन पातपरसँ थोड़ेक खीर हुनका खुआए दियनि। ओ अपनहि हाथें हमर ऐंठ हाथ धोथि। हमर दहिना हाथ मे अक्षत देथि जकरा हम हुनक माथ मर छीटि दियनि। तकर बाद ओ हमर पयरपर ओएह दीनार राखि माथ धए देथि। एहन काज कमसँ कम 10 दिन अवश्य भेल हेतै।
करीब एक सालक बाद हमहूँ कने पैघ भेलहुँ, तँ एक दिन ओ आबि हमर पिताजीकेँ कहलनि- “हमर कुटीक स्थानपर राजाक आदेशसँ माँ ताराक मन्दिर बनि रहल अछि।” ओकर पहिल ईंटा रखबाक लेल ओ हमरे लए जाए चाहैत छलाह। हमर पिताजीकेँ सेहो हमरा लए अएबाक ले कहि देलनि। ओ दिन हमरा खूब मोन अछि। पिताजीक संग गेलहुँ तँ ओतए खूब लोक रहै। ढिमकापर जेबाक लेल रास्ता खूब चाकर बना देल गेल रहए। हमरा पिताजी लए गेलाह तँ सभटा काज भैए रहल छलै। सभ केओ एहने काषाय वस्त्र पहिरने रहथि। हमर पिताजी सेहो बेस काल बैसलाह मुदा पहिल ईंटा रखबाक मुहूर्त नै आएल रहै। ताबत पिताजीकेँ मन्दिरमे भोग लगएबाक बेर भए गेलि तँ ओएह बाबाजी कहलथिन- “अहाँ जाउ, हिनका रहए दियनु, काज भए जेतै तँ हम अपनहिं लए पहुँचा देबनि।”
“हमर पिताजी घुरि गेलाह। तकर बैस कालक बाद हमरा फूक मालासँ सजि-धजि कए ओ बाबाजी एकटा खाधि लग लए गेलाह आ ईटा रखबौलनि। एकर बाद हमरा एकटा मण्डपपर बैसाए एकटा लड्डू खएबाक लेल देल गेल। ओ लड्डू खेलाक बाद हमरा नींद आबए लाग तँ ओतहि हम सूति रहलहुँ। तक बाद की भेलै से हम नै बुझलियै। जखनि होश आएल तँ एही आँगनक मण्डपपर हम छा आ हमरा सभ घेरने अछि। तकर बादसँ तँ एतहि छी। घर मन पड़ए तँ अपनहिं कानी आ फेर अपनहिं भूख लगलापर खाए लागी।”
रानीजीकेँ बुझबामे कोनो भाङठ नै रहलनि। संगहि इहो धक् दए मन पड़लनि जे एहन पोखरि, ओकर पछबरिया महारमे मन्दिर आ दछिनबरिया महारपर पुरान ऊँच डीह, ओहिपर आइसँ पाँच साल पहिने तारा मन्दिरक निर्माण- ई सभटा तँ हुनके बुधगामक दछिनबारि टोलक वर्णन बुझाइए। ओहि मन्दिरक शिलान्यासमे तँ ओहो अपन पुत्रक संग गेल रहथि! तँ की ई कुमारि ओही गामक थिकीह। पोखरिक पछबरिया महारपर हुनके पूर्वजक बनाओल मन्दिरक पुजेगरीक बेटी थिकीह! आह, ओहि पुजेगरीपर की बितैत हेतनि। रानीक मोन बेचैन भए गेलनि।
-“की अहाँ अपन पिताजी आ माँकेँ चिन्हबनि?
-“हम तँ चिन्हिए जेबनि, ओ सभ चिन्हियो कए हमरा चिन्हथि वा नै। आ आब हम ई घृणित शरीर लए कोन मुँहें जाएब? आब तँ जीवन आ मृत्यु एतहि।” ओ हिचुकए लगलीह। परिस्थिति हुनका सभ किछु बुझि जेबाक लेल बाध्य कए देने रहनि। रानीजी सेहो कनैत-कनैत कखनि सुति रहलीह से पता नै चललनि।
17
मध्याह्न भोजनक बाद फेर आपणग्राम आ महिषीक विद्वान् लोकनि एतहि प्रांगणमे मण्डपपर विशेष सभा कएलनि। आजुक सभामे षडानन मिश्र आ विश्वेश्वर भट्ट आदि सभ मूर्द्धन्य विद्वान् बजाओल गेल रहथि। आपणग्राममे शाक्त तन्त्रक विशेष अधीतीलोकनि छलाह जिनका मण्डनमिश्र द्वारा विशेष रूपसँ आमन्त्रित कएल गेल छल। एम्हर भृत्यकुलकेँ सूचना भेटि गेल रहैक जे कदलीवन मे जे सुखाएल खसल गाछ अछि तकरा सभकेँ हटाए ओकरा सुन्दर उपवन बनएबाक छै। दण्डधरमिश्रक स्पष्ट निर्देश रहनि जे आइ साँझ धरि जे परिवार जतेक दूर धरि सफाइ कए ओकर भूमिकेँ तामि-कोड़ि चिक्कन बनाए लेत ओतेक भूमिक कदलीक फल ओ दू वर्ष धरि भोगि सकत। तकर बादो जे परिवार जतेक नीक सेवा ओकरा ओतेक दिन धरि ओतेक अंश रहए देल जेतैक। तें सभ केओ कोदाड़ि आ अन्य उपकरण लए भोरहिसँ लागि गेल छल। दण्डधर मिश्रकेँ शीघ्र ओहि कदलीवनक दुर्गमताकेँ हटाएब आवश्यक रहनि।
मण्डनमिश्र सेहो समयपर अपन घर जाए ओतए भारतीसँ भिक्षान्न पाबि निश्चिन्त भए गेल रहथि। आदुक एहि बैसारक दू टा मुख्य उद्देश्य छल- मण्डन मिश्रक संन्यासजीवनक लेल विधि-निषेधपर निर्णय आ माता तारक पूजनपद्धतिक निर्णय। आइ भिनुसरक पूजन तँ ओहि वृद्धायोगिनीक निर्देशपर अपन घरक गोसाउनिक पूजा जकाँ सम्पन्न कए लेल गेल छल। दशमी मे जेना गोसाउनिकेँ पातरि देल जाइत छनि तहिना भोग सेहो लगाए देल गेल छल मुदा भवि,यक लेल पद्धतिक निर्णय आवश्यक छल, तें विशेष रूपसँ शाक्ततन्त्रक विद्वानसभ सेहो जुमल रहथि।
रात्रि निर्विघ्नपूर्वक बीति गेलाक कारणें संघारामक सभ उपासिका प्रसन्न रहथि। आइ भोरेसँ हुनकालोकनिकेँ पुनर्जन्मक बोध होमए लाग रहनि। पण्डितमण्डली स्वयं बैसबाक तेहन व्यवस्था कएल जे सम्मुखमे राजसभा जकाँ विशिष्ट आसन लगाए ओहिपर रानीजींकेँ बजाए आदेश दए बैसाओल। हुनक पाछाँ सभ उपासिका बैसलीह। ललिता आ मालती रानीजीक दूनूकात आसन लेलनि।
आइ धर्मशास्त्री विश्वेश्वर भट्ट एहि सभाक अध्यक्ष बनाओल गेल रहथि। मण्डनमिश्रक आदेश हुनका लेल सद्यः देवगुरु बृहस्पतिक आदेशसँ एको रत्ती कम नै छल आ तें हुनकर चरणवंदना करैत सभापतित्व स्वीकार कए नेने छलाह तें ओएह सर्वप्रथम बजलाह-
-“ओना तँ मण्डनमिश्र स्वयं देवगुरु बृहस्पतिक अवतार छथि, हुनक सोझाँमे हमरालोकनि बालक जकाँ छी, मुदा हुनक आदेश शिरोधार्य कए सर्वप्रथम हुमक संन्यासक प्रसंग विधि-निषेधपर विमर्श करी। संन्यास सम्बन्धमे तँ ओना सूत्र सभमे बहुत विस्तृत व्याख्या अछि मुदा सभसँ महत्तपूर्ऴ बात मनु कहने छथि-
इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।
इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्॥
वेदक नामसँ प्रसिद्ध जे ब्रह्म छथि से पाठमात्रहुँसँ गति प्रदान करैत छथि आ वास्तविक वेदार्थ माने ब्रह्मज्ञानसँ युक्त व्यक्तिकेँ सेहो शऱण दैत छथि। एतेक दिन मण्डनमिश्रपाद वेदमन्त्रक पाठकए शरणागति भेलाह आब ओकर ज्ञानप्रतिपादक अर्थक अनुसंधानमे लागि जाथि सैह हुनक संन्यासक मूल लक्ष्य होएबाक चाही। हम निवेदन करबनि जे मनुक एहि निर्देशक पालन करैत आब ब्रह्मतत्त्वक निरूपण कए हमरालोकनिकेँ अनुगृहीत करथि। हिनक आवास आ भोजनक सम्बन्धमे सेहो मनुए व्यवस्था कए गेल छथि जे संन्यासी निर्जन प्रदेशमे आवास करथि आ दिनमे एके बेर भिक्षाटन करथि आ कर्मकेँ त्यागि ज्ञानमार्गक अनुसरण करथि। हम जें कि एही गामक लोक छी आ सभटा देखल अछि तें हमर प्रस्ताव जे एहि संघारामक कदलीवनमे जे पिप्पलवृक्ष अछि ओ सर्वथा निर्जन अछि, मुख्यद्वारसँ किछु हटल सेहो अछि तें ओतहि हिनका लेल आवास बनाए देल जाए। ई स्वयं एके बेर अपन घरपर जाए ओतए भिक्षा मे जे किछु भेटतनि से भोजन ग्रहण कए पुनः अपन आवास आवि ब्रह्मतत्त्वसमीक्षापर ग्रन्थक लेखनमे लागि जाथि। हिनक पूर्वलिखित ग्रन्थ सभ हमरालोकनिक लेल अद्भुत उपहार थीक तकर संरक्षण आ प्रचार-प्रसार हमरालोकनि अपन कर्तव्य बुझी। आब मण्डनमिश्रक स्वीकारोक्तिक अपेक्षा रहत।”
विश्वेश्वर भट्टक एहि कथनपर सभ अति प्रसन्नताक संग ओकर समर्थन कएल। मण्डनमिश्र सेहो हुनक प्रस्ताव स्वीकार कएल। दण्डधरमिश्र सेहो विश्वेश्वर भट्टक उक्तिक समर्थ कएल- “विश्वेश्वर हमरासँ छथि तँ बड़ छोट मुदा हिनक निर्णय बड़ श्रेष्ठ होइत अछि। केहनो जटिल समस्या किएक ने हो एकदम शास्त्रोचित, त्वरित आ सर्वजनमान्य निर्णय देब हिनक विशेषता रहल अछि। आइ तँ हिनक निर्णय सकललोककल्याणार्थ भेल अछि। याज्ञवल्क्यक बाद वेदान्तविषयक काज जे मिथिलामे बन्द छल से फेर आरम्भ होएत एकर प्रसन्नता अछि। मुदा अहाँ जे आवासक लेल स्थान प्रस्तावित कएल से संघारामक थीक तें ओहिपर हमरालोकनिक सम्मुखे बैसल रानीजीक सम्मति लए ली।
रानीजी अस्तव्यस्त भए गेलीह। कोन शब्दमे एकर उत्तर देल जाए से फुरा नहि रहल छलनि। जँ शीघ्र उत्तर नहि देल जाए तँ ओकरा असहमतिक संकेत ने बूझि लेथि तें एक दिस उत्तर देबाक आतुरता दोसर दिस भाषाक चयन आ तेसर दिस एहि प्रस्तावक प्रति आन्तरिक हर्षातिरेक हुनका कनेक असहज बना देलकनि। मुदा हुनक काव्यानुशीलन काज देलकनि- “सम्पूर्ण पृथ्वी जकाँ इहो कदलीवन माँ ताराक थीक। हुनक आँचर सभ ठाम पसरल अछि तें गिरि, वन, कन्दरा, नदीतट आदि प्रदेश जकाँ इहो कदलीवन हुनके बुझल जाए आ ओतए हुनक सभ सन्तानकेँ वास करबाक अधिकार छनि। हमरालोकनिकेँ तँ एहि बातक निर्देश चाही जे एहिठाम आवास बनाए संन्यासधर्मक पालन कएनिहार मिश्रपाद महोदयक सेवा करबाक अधिकार कतेक सीमा धरि भेटत?
-“शिष्यकेँ सभ प्रकारक सेवाक अधिकार देल गेलैए।” भट्ट महोदय बजलाह।
-“कृतकृत्य छी।” रानीजी बजबाक संगहि ओहि चारू बटुककेँ संकेत कएल- “तकै की छी। धरू गुरुक पयर। ओएह अहाँसभक शरण थीक।”
ओ चारू मिश्रमहोदयक पयरपर प्रणिपात कएल आ हुनक मुखसँ “ॐ स्वति” वचन सुनलाक बादे पयर छोड़ि मूड़ी उठाओल। दण्डधर मिश्र सेहो एक गोटेंकेँ पठाए शीघ्रातिशीघ्र पीपरक गाछ तर आवासनिर्माणक प्रक्रिया आरम्भ करा देल।
आब मण्डनमिश्रक प्रस्तावपर माता ताराक उपासना-विधिक निर्धारणपर विचार-विमर्श आरम्भ भेल। एहि विषयपर विमर्शक लेल किछु शक्त्युपासक तान्त्रिकलोकनि आएल रहथि। हुनका सभकेँ आगाँ कएल गेल। ओहीमेसँ एकटा वृद्ध विद्वान् बजलाह- “शक्ति उपासनाक अनेकपरम्परा आइ धरि प्रचलनमे आबि चुकल अछि। ई साधनाजनित उपासना थीक तें जतेक साधक, ओतेक शाखा आ ओतेक पद्धति। काल्हि धरि हिनक उपासना बौद्धतन्त्रक प्रक्रियासँ होइत रहल अछि। बौद्ध उपासना-पद्धति सेहो कनेके न्यून नहि। शाक्त-पद्धति आ बौद्ध-पद्धतिमे केवल मन्त्रभेद अछि, शेष प्रक्रिया समाने बुझल जाए। एतए देवीमूर्तिक ध्यान आ मुद्राक अनुरूप पद्धति होइत अछि सैह हमरोलोकनिक तन्त्रमे अछि। तें हमरालोकनिकेँ ई सर्वप्रथम अन्वेषण करबाक चाही जे एहि स्थलक मूल उपासना-पद्धति की छल। एम्हर छओ-सात-वर्षसँ ने एकटा छद्मवेषी आततायी महाश्रमण आबि सभटाकेँ भ्रष्ट कए देल, मुदा एहिसँ पहिने कोन पद्धति छल से अन्वेष्टव्य अछि। हमरा जतए धरि अनुमान अछि जे एहि संघाराममे एखटा पुस्तकालय अवश्य होएबाक चाही। कारण जे आइसँ तीस-चालीस वर्ष पूर्व जे महाश्रमण रहथि ओ विद्वान् छलाह। हुनकासँ हमरा स्वयं कतोक बेर भेंट भेल अछि, शास्त्र-चर्चा भेल अछि। हमरा इहो स्मरण भए रहल अछि जे अपना गामक कमारक पिता कहैत रहथि जे संघारामसँ लकड़ीक छादन आ तालपत्रक व्यवस्था करबाक भार भेटल अछि। एकर अर्थ जे ओहि कालमे एतए पठन-पाठनकपरम्परा अक्षुण्ण छल। तें हमरालोकनिकेँ एतए ग्रन्थागारक अनवेषण करबाक चाही। ओहिमे मूल पद्धति अवश्य होएत।”
सभकेओ रानीजी दिस तकलनि। रानीजीकेँ कोनो सूचना नहि रहनि जे एतए पुस्तकालय कोठ प्रकोष्ठमे छैक। छेहो वा नहि। हुनका केवल एकमात्र ग्रन्थक ज्ञान रहनि जकरा सम्बन्धमे ओ काल्हिए मिश्रमहोदयकेँ कहि सुनौने रहथि। ओग्रन्थ प्रक्षेप सहित मण्डनमिश्रेक संग सुरक्षित छल। आ संगहि सभकेँ ई बुझल भए गेल रहनि जे रानीजीक द्वारा कराओल गेल प्रतिलिपि करमापाक द्वार चोरीसँ हस्तगत कए गायब कए देल गेल छल।
मण्डनमिश्रकेँ ओहि ग्रन्थक सम्बन्धमे कहब आवश्यक बुझएलनि- “हम काल्हि एहि ग्रन्थक पातसभ उलटाए गेलहुँ। ई आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प थीक। एहिमे साधना प्रक्रियाक अनेक विधि देल गेल अछि। मुदा बीच-बीचमे किछु पटल छद्म तान्त्रिकक द्वारा सेहो प्रक्षिप्त कएल गेल अछि। स्पष्ट बुझाइत अछि जे नवीन तालपत्रपर कामकारतः साधनाक विकृत रूप लीखि घोसिया देल गेलैक आ रानीजीक हस्तलेखमे ओकरा लिखाओल गेल जे भविष्यक पाठक भ्रमित भए ओहि प्रक्षिप्त अंशकेँ सेहो मौलिक बूझि लेथु। चिन्ताक विषय ई जे हिनक हाथक प्रतिलिपि कएल ग्रन्थ आब जानि-बूझि कए प्रचारित कएल जाएत जाहिसँ ई प्रक्षिप्त अंश समाजमे विकृति उत्पन्न करत।”
एतेक काल सभ योगिनी चुप रहथि मुदा सभसँ वृद्धा योगिनी बजलीह- “एकटा प्रकोष्ठ मे किछु एहने डंटा जकाँ लाल कपड़ामे बाँधि राखल अछि। हमरा देखल अछि। एहि महाश्रमणसँ पहिने जे महाश्रमण रहथि ओ हमरा कहि सभटा ओ बँधलहा मोटरी रौदमे देने रहथिन। हम भरिदिन ओकरा सुखाए फेर साँझमे ओहिना राखि देने रहियैक। हुनका हमरापर बेसी विश्वसा रहनि। मुदा एहि पाँच-छओ वर्षसँ ओखरा कहियो खोलल नै गेलैए। दू गोटे जँ हमरा समग चलथि तँ हम देखाए देबनि।”
सभकेँ आश्चर्य लगलनि। सभटा प्रकोष्ठमे सभ घुमि चुकल रहथि मुदा एको टा बंद प्रकोष्ठ एहन नहि देखने रहथि जाहिमे पुस्तकालय हो। ललिता आ मालती सेहो आश्चर्य व्यक्त कएल, जे हमतँ काल्हियो सांसे घूमि आएल छी, कोन कक्षमे ग्रन्थागार छैक?
एहिपर ओ वृद्धा योगिनी स्पष्ट कएलनि। पूर्व-दक्षिण दिशामे ओहि प्रकोष्ठक चारूकात एक-एक टा प्रकोष्ठ अछि। आ ओकर बीचमे एकटा छोट प्रकोष्ठ छैक, जकर द्वार पछबारी कातक प्रकोष्ठमे खुजैत छै। ओहि द्वारपर एकटा विशाल पट टाँगि साधनाक लेल व्यवहार कएल जाइत छै तें अनका ओतए पाछाँ द्वार होएबाक कोनो संदेह नै होइत छनि। मुदा हमरा बुझल अछि। एहिसँ पहिलुक महाश्रमण एकरा गुप्त रखैत रहथि। चलू तँ हम देखाए दैत छी।
एहि बेर मण्डनमिश्र विश्वम्भर भट्टकेँ कहलनि- “जाउ अहाँक आँखि नव अछि। देखियौ जे की छै, कतेक छै।”
ओ वृद्धा योगिनी अपना संग ललिता आ मालतीकेँ संग लेलनि आ एकटा झाडू लए विश्वेश्वरभट्टक संग ओतए गेलीह। द्वारपरसँ आदरपूर्वक पट समेटलनि तँ ठीके ओकर पाछाँ एकटा द्वार छलै। अर्गला खोलि सभ एकसरे विश्वेश्वर भट्ट भीतर गेलाह। सौंसे झोल लटकल छल मुदा आश्चर्यक बात जे सभटा ग्रऩ्त पूरणतः सुरक्षित छल कनेको भीजल नै रहै। प्रकोष्ठक चारू दिवाल आ ऊपरमीचाँ मे काठक पटरा तेना ने बिछाओल रहैक जे सम्पूर्ण प्रकोष्ठ काष्ठनिर्मिते बुजाइत छल। ग्रन्थ सुरक्षा लेल कएल गेल ई अद्भुत उपाय हुनका नीक लगलनि। ओहि प्रकोष्ठमे काठक खोलसभ बनल छल आ ताहिसभ खोलमे लालरंगक वस्त्रमे लपेटि सैकड़ो ग्रन्थ छल। एक-दू टा ग्रन्थ खोलि ओ देखलनि तँ एकटाक लिपि ओ नहि जनैत रहथि मुदा दोसर ग्रन्थ हुनके लिपिमे छलैक। भीतरमे ततेक गर्मी लगलनि जे ओ बेसी काल नहि रहि सकलाह, शीघ्रे बाहर भए गेलाह। एहन ग्रन्थागार देखि ओ अवाक् रहथि।
बाहर मण्डपमे आबि सभटा सूचित कएलनि- पहिने तँ किछु दिन लगतैक जे ओहि ग्रन्थकेँ निकालि-निकालि ओकर सूचीकरण कएल जाए, तखनि ने ओहिमे की छैक, कोन ग्रन्थ छैक, तकर पता लागत। किछु ग्रन्थक लिपि वैदेशिक सेहो बुझाइत अछि जे हमरा लेल ओकर वाचन सम्भव नहि। ओहि प्रकोष्ठमे थोड़बो काल रहब कठिन छैक।
मण्डनमिश्रकेँ सभटा स्पष्ट भए चुकल छल। ओ तान्त्रिकलोकनिसँ कहल जे ‘परिस्थिति देखिए रहलिए-ए। तखनि तत्काल देवीसँ क्षमा माँगि हुनक उपासनाविधिक अहाँ जे निर्धारण कए देबैक से मान्य हेतैक। जखनहि हमरालोकनि पार्थिव शरीर धएलहुँ तखनहि अज्ञानी छी। उपासनाक रहस्य गहन अछि। तखनि जे जनैत छी, जेना जनैत छी तेना मायक सेवा करी।ʼ
हुनक आदेश पाबि एकटा तान्त्रिक कहलनि- “बेश तँ हम श्रीमती ताराक उपासनापद्धति लीखि दू दिनमे प्रस्तुत कए देब। ता धरि ई लोकनि अपन कुलदेवीक उपासना गार्हस्थ्य जीवन मे जेना करैत रहथि ओहिना करथि।”
ई गप्प चलित चल कि बाहर हल्ला मचल- “भूत, भूत, भगै जो, भगै जो, चलै चल मिश्रपादक लग।” भृत्यकुलक जे पुरुष कोदारि लए कदलीवन तामि रहल छल ओ सभ कोदारि फेंकि संघारामक द्वार दिस खसैत-पड़ैत जुमल। सभा अस्तव्यस्त भए गेल। सभ केओ शीघ्रे ओम्हर बढलाह। द्वारपर लोक सभ हाकरोस कए रहल छल- नै चाही हमरा एहन कदली वन। जीयबतँ कहुना गुजर कए लेब। मण्डनमिश्रक इसारापर ओ चारू तान्त्रिक आगाँ बढ़लाह कहलनि- “कतए छै भूत, चलि देखाबह तँ! झुट्ठे भूत-भूत हल्ला मचौने छह!!”
ओ चारू आगाँ-आगाँ बढलाह आ कदलीवनमे जाए देखलनि तँ बहुत ठाम माँटि तमलापर अस्थिपंजर सभ निकलि रहल छल, जे विभिन्न प्राणीक छल। किछु मनुक्खक छोट बच्चाक सेहो अस्थि छल। ओकरे देखि सभ केओ भागि गेल रहए। ओ कहलनि- “ई भूत थोड़बे छियै। कहियो कतौ मरकी भेल हेतै, तँ गाड़ा एतहि बना देल गेलै। जतए ई हड्डी भेटै छौ, तकरा झाँपि ओहि स्थानकेँ छोड़ि दहिन। कोनो डरक बात नै।” ओ तान्त्रिक श्वेत सर्षप मङाए मन्त्र पढ़ैत कदली वनमे घूमि-घूमि छीटि देलनि आ कहलनि- “जे भूत छलै से भागि गेल। आब कोनो डर नै।” सभकेँ ओहि चारू तान्त्रिकपर पूरा भरोस रहै तें ओ सभ फेर निडर भए काजमे लागि गेल। मुदा ई चारू स्वयं वास्तविकतासँ अपरिचित नै रहलाह। एतए गुप्त-साधनाक क्रममे विभिन्न प्राणीक बलि आ ओकर मांस-मज्जा आदिसँ हवनक गतिविधि हुनका सभसँ छुपल नै रहि सकल। ओ जाए मण्डन मिश्रकेँ सूचित कएलनि।
एम्हर दण्डधर मिश्र स्वयं अपन निरीक्षणमे मण्डनमिश्रपादक लेल आवासक व्यवस्था कराए रहल छलाह। विशाल पीपरक गाछक तरमे कमार आ भृत्यसभ अपन-अपन क्षमताक चरम उपयोग कए रहल छल। सभकेँ एक तँ मण्डनमिश्रक प्रति असीम श्रद्धा रहबै करै, दोसर जे दण्डधरमिश्र पारिश्रमिकक संग पुरस्कारक सेहो घोषणा कए चुकल रहथि। समस्त ग्रामवासी- की ब्राह्मण कुल, आ की भृत्यकुल, एकस्वरें आबि ओहि कार्मिक सभकेँ एके ठाम कहि चुकल रहथि जे जतए जे अपेक्षित सामग्री रहए से मङाए सकैत छी। आइ भृत्यकुल सेहो अत्यन्त उत्साहमे छल। कदलीवनक एहन उर्वर भूमि भेटि रहल छलै।
विष्णुमिश्र सेहो आबि एम्हर-ओमहर घूमि रहल छलाह, मुदा किछुए दिन पूर्व अपन असहज व्यवहारक कारणें लज्जित रहथि। एहि गाममे सभसँ निर्धन ब्राह्मण ओएह रहथि, तें संघारामक नवीन व्यवस्थामे कोनो वृत्तिक लेल आह्वानक प्रतीक्षामे छलाह। लज्जावश किनकहु किछु कहबाक साहस नै होइत रहनि। हुनका एना घुमैत देखि मण्डनमिश्र हुनका लग बजाए पुछलथिन्ह- “अहाँकेँ एकटा काजक भार दी तँ करबैक।”
-“हमरासँ जे सम्भव होएत से अवश्य करबैक अपनेक आदेश कतहु व्यर्थ जाए।”
-“हम अहाँक योग्यतासँ पूर्ण परिचित छी तें ओहने काज देब जे अहाँ कुशलतापूर्वक सम्पन्न कए सकी। चलू हमरा संग।”
ओ विष्णुमिश्रकेँ लए संघारामक द्वार दिस उन्मुख भेले रहथि कि तावत देखलनि जे रानीजी ललिता, मालती आ चारू बटुकक संग स्वयं बाहर दिस आबि रहल छथि। हुनका अबैत देखि ई सभ ओतहि मार्गपर प्रतीक्षा करए लगलाह। जखनि ओ लग अएलीह तँ मण्डन मिश्र चारू बटुककेँ देखबैत विष्णुमिश्रकेँ कहलनि- “ओ चारू बटुककेँ देखैत छियै, ओकरे यजुर्वेदक अभ्यास अहाँकेँ करएबाक अछि। संघारामसँ अहाँकेँ स्वर्णमुद्रा नियमित रूपसँ भेटि जाएत।”
-“पहिने तँ चारूक उपनयन करएबाक हेतैक।” विष्णुमिश्र बजलाह।
-“तँ कराए दियौ। आइ दिनसँ अहाँक ओ शिष्य भेल। जे कराबक हो से अहाँक अधिकार। अहाँ योग्य व्यक्ति छी। रानीजीकेँ हम कहि दैत छियनि। जे कहबनि से व्यवस्था कराए देतीह।”
रानीजी सेहो लग आबि मण्डनमिश्रक आदेश सुनलनि आ शिरोधार्य कए विष्णुमिश्रकेँ प्रणाम कएल- “शुभ दिन देखि उपनयन करा देल जाए।” विष्णुमिश्रक पयर धरतीसँ ऊपर उठैत जकाँ बुझएलनि। फेर मूड़ी गाड़ने गोंगिएलाह- “जँ अनुमति हो तँ एकटा प्रस्ताव राखी।”
-“अवश्य। कहल जाए।”
-“हमरहु बालक एतबे वयसक अबण्ड भेल जा रहल अछि। जँ अनुमति हो तँ संगहि ओकरा वेदाभ्यास कराबी।”
रानीजी एहि विषयपर स्वयं किछु नहि कहि मण्डनमिश्र दिस उन्मुख भेलीह।
-“कोनो हर्ज नै। एहि चारूकेँ सेहो शिक्षा-ग्रन्थ सहिते पढ़ाबए पड़तनि, तें जँ संग-संग हिनको बालक पढ़ लैत अछि तँ कोनो बेजाए नै।।”
ई गप्प चलिते छल कि दण्डधरमिश्रक जे पुत्र अपनासँग तीन गोटेकेँ लए करमापाक अन्वेषणमे काल्हिए निकलल रहथि ओ चारू अश्वपर संघारामक मार्गमे प्रवेश कएलनि आ सोझे आबि मण्डन मिश्र लग आबि रुकलाह। घोड़ासँ उतरि तीनूकेँ अभिवादन कए कहलनि- “करमापाक तँ कोनो पता नै लागल। ओ अपन घरपर सेहो नै अछि। मुदा एकटा सूत्र भेटल जे महाश्रमण स्वयं बुधगामक तारामन्दिरमे आश्रय नेने छथि। शेष श्रमण सभ कतए गेला, श्रमणक वेष त्यागि सामान्य जन बनि गेलाह से कोनो भाँज ने लागल। हमरा जखनि पता लागल तखनि हम चारू गोटे बुधगामक बाट धएल। सन्ध्या होइत ओतए पहुँचलहुँ। ओहि तारामन्दिरक कातक विशाल पोखरिक पछबरिया महारपर एकटा मन्दिर अछि, ओतहि रुकि पता लगौलहुँ तँ भाँज लागि गेल जो तारामन्दिरमे काल्हि भिनसरमे एकटा महाश्रमण आएल छथि। ओहि मन्दिरक पुजारी कहलनि जे ओ महिषीक संघारामक महाश्रमणकेँ खूब चिन्हैत छथिन्ह। हुनक दहिना आँखिक ऊपर गम्भीर व्रणक दाग एखनहुँ छन्हि। ओही दागसँ ओ पुजारी चिन्हने रहथिन। जखनि ओ एतेक अभिधान कहि देलनि तखनि हमरो उत्सुकता बढ़ल। रातिमे ओतहि मन्दिरपर विश्राम कए आइ भोरे दर्शनक लाथें हम सभ गेलहुँ तँ ठीक ओएह छलाह। मुदा करमापा ओतए नहि अछि।”
रानीजीकेँ सभटा स्पष्ट भए गेलनि। ओ कहलनि जे ‘आइ नै तँ काल्हि करमापा ओतए अवश्य पहुँचत। आइ एखनहिँ अहाँ दू गोटे केओ घुरि फेर एहि मन्दिरक पुजारी लग जाउ। हम एकटा पत्र दैत छी। ओ पत्र हुनका दए देबनि तकर बाद अहाँक कोनो कर्तव्य नै रहि जाएत। अहाँ सभकेँ मार्ग देखल अछि तें पुनः ई चारि योजन जएबाक भार दए रहल छी, नै तँ केओ अन्य व्यक्ति सेहो जाए सकैत छथि।ʼ
-“कोनो बात नै। हमरालोकनि श्रान्त नै छी। केवल अश्व बदलि लैत छी। अहाँ पत्र लीखि देल जाए। हम दू गोटे एकनहि प्रस्थान करब।”
-“ ओतए पुजारीजी हमर अत्यन्त विश्वासपात्र छथि ओ रातिएमे हमर सेनापतिकेँ सूचित कए देथिन। तकर बाद ओहि गामक लोक सभ व्यवस्था कए लेत। आ पुजारीजीक पत्नीकेँ चुपचाप हमर नाम कहबनि जे हुनक पुत्री हमरा लग छनि, कोनो चिन्ता नहिं करथि। मुदा एखनि एहि बातकेँ गुप्त राखथि। समय अएलापर सभटा सूचना भेटि जएतनि। पुत्रीक बात पुजारीजीके अहाँ नै कहबनि। नै तँ काजमे व्यवधान भए जाएत।”
मण्डनमिश्र सहित सभ केओ अचम्भित भेलाह। मुदा रानीजीक प्रशासन चातुर्यसँ अभिभूत भेल हुनका मनहि मन आशीर्वाद दैत चुपे रहलाह। ओ चाहैत रहथि जे जतेक जल्दी सम्भव हो, मन्दिरक सभटा व्यवस्था धराए निश्चिन्तसँ संन्यास धर्मक पालन करैत ब्रह्मतत्त्वक विवेचनमे लागि जाथि। तें किछु दूरपर ठाढ ओहि चारू तान्त्रिककेँ लग अएबाक इसारा कएलनि आ हुनका सुनाए आदेश दैत कहलनि- “अहाँ चारू गोटे लागि-भीड़ि एहि ठामक लेल एकटा उपासना-पद्धति बनाए ली। मुदा हमर विचार जे ओ पद्धिति निर्धारण करबासँ पूर्व एकर ग्रन्थागारमे जे पोथी अछि तकरा अवश्य एक बेर देखी। एहिमे अनेक ग्रन्थ त्रिविष्टपक भए सकैत अछि, से जँ पढल नहि होए तँ ओकरा छोड़ि देबैक। ओना कनेक ध्यान देबैक तँ ओहो हमरेलोकनिक मिथिलाक्षरे जकाँ होइत अछि। अस्तु जे ग्रन्थ पठनीय अछि तकरा एकबेर देखि ली। ग्रन्थक वाचनमे षडानन मिश्र बड़ पटु छथि, हुनक सहयोग लए सकैत छी। दुःखेभ्यः तारयतीति तारा। ओएह भारती सेहो कहल गेल छथि। महाचीनमे हुनका तुत्तारा कहल गेल छनि- तुद्भ्यः तारयतीति। तें ओ दुःखनिवारिणी अवश्य छथि।”
क्रमशः