• पुस्तकक नाम- कीर्तिगाथा एवं कीर्तिपताका
  • (विशुद्ध मूलग्रन्थ, संस्कृत छायानुवाद एवं हिन्दी-मैथिली व्याख्या)
  • रचनाकार- कवि विद्यापति ठाकुर
  • सम्पादक व्याख्याकार छायानुवादक- डॉ. शशिनाथ झा, कुलपति, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा।
  • प्रकाशन वर्ष- 2020ई.
  • सर्वाधिकार- सम्पादक, डा. शशिनाथ झा
  • सम्पादक के आदेश से तत्काल पाठकों के हितमे अव्यावसायिक उपयोग हेतु ई-बुक के रूप में https://brahmipublication.com/ पर प्रकाशित।
  • प्रकाशक- ब्राह्मी प्रकाशन, द्वारा भवनाथ झा, ग्राम-पोस्ट हटाढ़ रुपौली, झंझारपुर, जिला मधुबनी। सम्पर्क

भूमिका

कीर्तिपताका का हस्तलेख

विद्यापतिकृत कीर्तिपताका का एकमात्र हस्तलेख मिथिलाक्षर में लिखित तालपत्र नेपाल राजकीय हस्तलेखागार, काठमाण्डू में है। इसमें ग्रन्थ पूर्ण नहीं है। परीक्षण करने पर इस हस्तलेख में छोटे-छोटे तीन स्वतन्त्र ग्रन्थ सिद्ध हुए हैं-

  1. भीषम कवि कृत एक प्रबन्धकाव्य जो संस्कृत एवं अवहट्ठ में है- यह तालपत्र का केवल प्रथम पृष्ठ है जिसे दूसरे पृष्ठ से कोई सम्बन्ध नहीं है। मंगलाचरण शिव, भारती एवं गणपति स्तुति, सज्जन प्रशंसा और दुर्जननिन्दा के आगे दो अक्षर ‘तद्द’ के बाद पत्र का अन्त हो जाता है और दूसरा पत्र एक संस्कृत श्लोक के अन्तिम अंश से शुरू होकर गणपति वन्दना प्रस्तुत करता है। अतः इस ग्रन्थ का आरम्भ मात्र उपलब्ध है। भीषम कवि के नाम का उल्लेख है।
  2. कीर्तिगाथा- तालपत्र के दूसरे पत्र से सातवें पत्र तक यह ग्रन्थ है जिसमें अर्जुन राए की यशोगाथा के साथ ‘हरिकेलि’ का वर्णन है।इस ग्रन्थ का  पहला पत्र एवं सातवें पत्र के बाद का अंश अनुपलब्ध है। इसमें संस्कृत एवं अवहट्ठ भाषा का प्रयोग हुआ है।इसके रचयिता नवजयदेव कवि विद्यापति हैं।
  3. कीर्तिपताका- तालपत्र के 30 से 38 पत्र तक विद्यापतिकृत कीर्तिपताका है जिसका आदि अंश खण्डित है।उपलब्ध अंश चतुर्थविलास मात्र है जिसमें भी आदि भाग नहीं है।इसमें राजा शिवसिंह की यशोगाथा है।उनका बंगाल के सुलतान से युद्ध में विजय का वर्णन इसमें है।

कीर्तिपताका के हस्तलेख के सम्पादन कार्य को पं. खुद्दी झा ने प्रारम्भ किया था, परन्तु अपने पाठोद्धार से वे स्वयं सन्तुष्ट नहीं थे। अतः उसका प्रकाशन नहीं हुआ किन्तु उनके संशोधन का उपयोग हमने 1992 में किया था।

इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन म. म. डॉ. उमेश मिश्र के सम्पादकत्व में इलाहाबाद से 1960 में हुआ था, परन्तु अपटु प्रतिलिपिकार से प्राप्त ग्रन्थ रहने के कारण इसका पाठ बहुत विकृत रह गया। 1973 में डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव ने इस के ताल पत्र 1 से 7 तक के पाठोद्धार का प्रयास किया था, फिर भी बहुत अंश गड़बड़ ही रह गये। 1987 में मान्य विद्वान् पं. गोविन्द झा के सहयोगी के रूप में मैंने पाठोद्धार का यत्न प्रारम्भ किया। इसके मूल तालपत्र ग्रन्थ की फोटो कापी दो स्थानों पर थी-

  1. विश्वविद्यालय मैथिली विभाग, दरभङ्गा में, जिसके विभागाध्यक्ष डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा थे।उन्होंने स्वयं इसके सम्पादनकार्य का भार उठाया था, इसलिये मेरे आग्रह पर भी ग्रन्थ के फोटोकापी का दर्शन न होने दिया।परस्पर सहयोग को भी उन्होंने अस्वीकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि आगे उनके सम्पादन में बहुत अशुद्धियाँ रह गयीं और कुछ मेरे संस्करण में भी पड़ी रहीं।
  2. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना में, जिसके हस्तलेख प्रभारी पं. हेमचन्द्र झा ने कीर्तिपताका के हस्तलेख की फोटो कापी देखने की सुविधा दी और हम बहुत अंश में पाठोद्धार करके विस्तृत भूमिका सहत 1992 में नाग प्रकाशक, जवाहर नगर, दिल्ली-7 से प्रकाशित करबाया।इसके सम्पादक पं. गोविन्द झा एवं अनुवादक मैं था।
  3. डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा द्वारा सम्पादित व्याख्यायित कीर्तिपताका 1998 में साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। यद्यपि इसमें बहुत पाठोद्धार नहीं हो सका, फिर भी पन्द्रह-बीस स्थल में हमें बहुत महत्त्वपूर्ण पाठोद्धार उसमें मिला, जो हमारे सम्पादित संस्करण में व्यवस्थित नहीं हो सका था। बाद के अध्ययन-मनन से भी कुछ पाठोद्धार का अनुगम मैंने किया। तदनुसार प्रस्तुत परिष्कृत संस्करण आवश्यक प्रतीत हुआ।

इस संस्करण में मैंने पाठभेद संग्रह को छोड़ दिया, क्योंकि सामान्य पाठक के लिए वह भारस्वरूप हो जाता है और उसके जिज्ञासु पूर्वोक्त दोनों संस्करणों को उसके लिये देख सकते हैं।

तीनों ग्रन्थों का सारांश

चूँकि यहाँ सन्दर्भित तालपत्र के तीनों ग्रन्थों को रखा गया है, अतः क्रमशः तीनों की विषयवस्तु को प्रस्तुत की जा रही है-

  • भीषम कवि कृत काव्य- इसका नाम अज्ञात है। शिव, भारती और गणपति की स्तुति, सज्जनप्रशंसा और दुर्जननिन्दा ही इसमें अवशिष्ट है।अतः इसके विषयवस्तु को कहना सम्भव नहीं हैं ।
  • कीर्तिगाथा- इसमें गणेशस्तुति के बाद विषय प्रस्ताव है जिसमें अर्जुन राए की गाथा गाने की चर्चा है।इसके बाद इस काव्य के कवि,  शृंगार रस और कथानायक जगत सिंह का उल्लेख है ।ज्ञातव्य है कि जगत सिंह और जगत खाण अर्जुन राय का ही नामान्तर है जिसे आचार्य रमानाथ झा ने ‘मिथिला मिहिर’- विद्यापति स्मृति अंक 1971 में स्पष्ट किया था।अर्जुन राए की सभा में एक सिद्ध पुरुष आता है और  शृंगार रस के वर्णन का प्रस्ताव देता है तथा गोपियों के साथ कृष्ण के विलास का वर्णन करता है।
  • कीर्तिपताका- इसमें बंगाल के किसी सुलतान के साथ शिवसिंह का घनघोर युद्ध चलता है।तुर्क सेना हार कर सुलतान के पास जाती है।कुपित सुलतान बड़ी सेना सहित आक्रमण करता है ।भयंकर लड़ाई में शिवसिंह के सिर पर एक बाण लगता है।किन्तु वे पीछे नहीं हटे, बल्कि डटे रहे।सुलतान घायल हो पीठ दिखाता है।उसकी सेना धन सम्पत्ति, अस्त्र-शस्त्र छोड़ कर भागती है।इस तरह शिवसिंह अपने पिता के वैरी को हरा कर वापस आते हैं।उनपर फूल की वर्षा होती है।वे वीरों को सम्मानित करते हैं और धन-रत्न आदि का प्रचुर दान कर विजेता के रूप में यशस्वी होते हैं।

कीर्तिगाथा और कीर्तिपताका की भाषा

इन ग्रन्थों की भाषा मुख्य रूप से अवहट्ठ (मिथिला का अपभ्रंस) है, किन्तु संस्कृत, प्राकृत एवं मैथिली भाषा का भी प्रयोग हुआ है। कीर्तिपताका एवं कीर्तिलता में अवहट्ठ के बीच कुछ फारसी शब्दों का प्रयोग हुआ है जहाँ यवनों का वर्णन आया है। कीर्तिपताका के बीच में अनुच्छेद सं. 13 से 16 एवं 30-31 संस्कृत में है, उसमें भी अनुच्छेद 15 एवं 31 सुललित प्रवाहमय लच्छादार गद्य है।कीर्तिपताका में केवल  अन्तिम पद्य संस्कृत में है।

कीर्तिगाथा के अनुच्छेद सं.- 2, 17 और 18 तथा कीर्तिपताका का 53 से 57 अनुच्छेद प्राकृत में है। कीर्तिगाथा के अनुच्छेद सं.-7, 27 और 28 तथा कीर्तिपताका के 20, 22 से 24, 50, 52, 57 और 58 से 66 तक मैथिली में हैं। जिनमें 20, 50, 52 एवं 57 लच्छादार गद्य में है। शेष अंश अवहट्ठ में है। ज्ञातव्य है कि पश्चिम भारत में जब प्राकृत के बाद अपभ्रंश का प्रचलन हुआ उसी समय मिथिला में प्राकृत के बाद सीधे अवहट्ठ का युग हुआ। अर्थात् अवहट्ठ मिथिला के अपभ्रंस का ही नाम है। इसका प्रयोग ‘डाक’ के (8वीं शती) प्राचीनस्रोत से प्राप्त वचनों में हुआ है जब कि अवहट्ठ नाम का प्रथम उल्लेख दसवीं शताब्दी के मैथिल विद्वान पहराज ने ‘पाउअकोस’ में किया है और चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में कविशेखर ज्योतिरीश्वर ने वर्णरत्नाकर में संस्कृत प्राकृत के बाद अवहट्ठ का ही उल्लेख किया है ।इस भाषा का कुछ झलक वर्णरत्नाकर में देखा जाता है जबकि इसका मानक प्रयोग विद्यापतिकृत कीर्तिगाथा, कीर्तिलता और कीर्तिपताका में देखा जाता है। बाद में उमापति के पारिजातहरण (1625 ई-), रामदास झाकृत आनन्दविजय (1640 ई-), देवानन्दकृत उषाहरण (1640 ई-), रमापतिकृत रुक्मिणीपरिणय (1750 ई-) इत्यादि ग्रन्थों में एक-दो गीत अवहट्ठ भाषा के प्राप्त होते हैं।

कीर्तिपताका में वर्णरत्नाकर के अनेक शब्द उसी सन्दर्भ में प्रयुक्त हुए हैंµ अओकी, अक्खउरि, अगहरिया, अत्थान, कुमर, खाति, चउदन्त, चन्देल, चाहुआन, चोरगाह, नगाढ़ि (नगारि), पसाहि, पाइक, पाखर, बउराअ (बउरिआ), विबन्ध, भण्डारि, मल्ल, महथ, मान, मुदहथ, रट्ठउर, राउत्त, राउतपति, राजवल्लभ, साचार, सुरबए, सुरुकि, सव्वा- अओसर (सर्वावसर) इत्यादि।

इसी तरह कीर्तिपताका में वर्णरत्नाकर एवं कीर्तिलता की कुछ पंक्तियाँ बहुत अंश में समान प्रतीत होती हैं।

कीर्तिपताका में समकालिक अस्सी से अधिक वीरों एवं विद्वानों के नामों का उल्लेख हुआ है जिससे इस काव्य की ऐतिहासिकता भी स्पष्ट ही है।

ऐतिहासिक विवरण

ओइनवार वंश के ब्राह्मण राजपण्डित कामेश्वर ठाकुर 1340 ई-में मिथिला के शासक नियुक्त किये गये।उनके निधन के बाद उनके पुत्रें में राज्याधिकार के लिए विवाद हो गया और राज्य दो भागों में विभक्त हो गया-

  • दक्षिणी मिथिला के राजा भोगीश्वर राए हुए जिनके पुत्र राए गणेश्वर एवं पौत्र राजा कीर्तिसिंह हुए।इन्हीं के विजय का वर्णन विद्यापति ने कीर्तिलता में किया।
  • उत्तरी मिथिला के राजा भवेश्वर सिंह हुए जिनके पुत्र देव सिंह और पौत्र शिवसिंह हुए। इन्हीं शिवसिंह का विजय विद्यापतिकृत कीर्तिपताका में वर्णित है।

भवेश्वर सिंह के अन्य पुत्रों में त्रिपुर सिंह हुए जिनके पुत्र अर्जुन राए ने देवसिंह से राज्य बाँट कर महान् सामन्त बन बैठे। इन्हीं अर्जुन राए की यशोगाथा विद्यापतिकृत कीर्तिगाथा में वर्णित है। इस प्रकार ओइनवार वंश की तीन शाखाओं का राज्य 1342 से 1400 ई- तक समानान्तर रूप से चलता रहा। इनमें परस्पर घोर विरोध था। एक राजा के दरबार में प्रवेश करने वाले दूसरे दरबार नहीं जा सकते थे जिसके प्रमाण के रूप में उपर्युक्त तीनों में चर्चित व्यक्ति सर्वथा भिन्न हैं। इसके अपवाद कविवर विद्यापति थे।वे अपने उदात्त व्यक्तित्व के कारण सभी दरबार में सम्मानित थे। इनकी तीनों अवहट्ठ कृतियों का काल 1396 से 1402 ई. के बीच रखा जा सकता है।

कीर्तिपताका के नायक शिवसिंह महान् वीर थे। इनके पिता के समय से ही मिथिला पर यवनों का आक्रमण होता रहा। गौडदेश (बंगाल) का शासक शम्शुद्दीन इलियास (1353-59) मिथिला को रौंदते हुए नेपाल तक गया।1956 ई- में उसने देवसिंह के पिता भवसिंह के ऊपर आक्रमण किया था और अपने नाम पर एक नगरक बसया- शम्शुद्दीनपुर जो आज समस्तीपुर नाम से जाना जाता है।उसके पुत्र सिकन्दर खाँ से भी देवसिंह की शत्रुता बनी रही और उसके पुत्र ग्यासुद्दीन आजम शाह (1396 से 98) के द्वारा भी उनपर आक्रमण होता रहा।इस प्रकार गौडेश इल्यासवंश तो स्पष्ट ही शिव सिंह के पिता एवं पितामह का शत्रु होने से पितृकुलवैरी हुआ।यद्यपि शिवसिंह का युद्ध गौडेश सुलतान से  हुआ था एवं वह इनके पिता का वैरी था इसका उल्लेख है, पर सुलतान के नाम का उल्लेख नहीं है।उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वह गौडेश आजमशाह था, जिसे हराकर शिवसिंह ने वप्पावैर चुकाया था।कीर्तिपताका में निसिपा खाँ के रण से भागने का वर्णन है।वह दिल्ली में फीरोज तुगलक शाह का पुत्र नासिरुद्दीन नसरत शाह (1388-1405) था।फीरोज शाह तुगलक ने देवसिंह को हराकर शिवसिंह को नजरबन्द कर रखा था, जिन्हें कवि विद्यापति ने अपने काव्य कौशल से छुड़ाया था ।अतः निशिपा खाँ से भी इन्हें वंशगत विरोध था, जिसे हराकर वप्पावैर चुकाया गया।

ग्रन्थकार का परिचय

(1) भीषम कवि-

प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम ग्रन्थ का नाम तो अज्ञात है किन्तु इससे स्पष्ट लिखा है कि इसके प्रवक्ता भीषम कवि हैं। ये प्राचीन मैथिली साहित्य में प्रसिद्ध कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके अनेक गीत प्राप्त हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उर्वशीचरित नाटक इनका था, जो उपलब्ध नहीं है। ये मोरंग (नेपाल) के राजा नरनारायण के आश्रित थे। तदनुसार इनका समय 1550-1625 ई- सिद्ध होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ‘भीषम कीर मुहेन’ का अर्थ ‘बड़े सूगे के मुख से’ ऐसा करना उचित नहीं है क्योंकि भीषम शब्द का ‘बड़ा’ अर्थ नहीं होता है।फिर ‘भीष्मसदृश’ अर्थ करना भी उचित नहीं है क्योंकि यहाँ सदृशवाचक शब्द ही नहीं है। समास से ‘भीषमरूपी कीर’ ऐसा ही अर्थ होता है।

यह ग्रन्थ तालपत्र पर एक पत्र मात्र है जिसका दूसरे पत्र से सम्बन्ध ही नहीं है। अतः आगे नवजयदेव का नाम रहने पर भी इसके लेखक के रूप में उन्हें लिया नहीं जा सकता है। डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा ने पहले पत्र के अंश को दूसरे पत्र के अंश के बीच में डालकर भ्रम उत्पन्न कर दिया है, अतः वह प्रमाण नहीं है।

कीर्तिपताका के अन्तिम पत्र पर जो समय का उल्लेख है उसका प्रभाव इस प्रथम पत्र पर नहीं पड़ सकता है क्योंकि इस पत्र का सम्बन्ध अन्तिम पत्र से है ही नहीं, यह तो दूसरे ग्रन्थ का है, लिपि भी भिन्न है ।

(2) विद्यापति कवि-

दूसरा ग्रन्थ कीर्तिगाथा है जिसमें ग्रन्थकार का नाम नवजयदेव कवि लिखा हुआ है जो विद्यापति का ही नाम है।तीसरा ग्रन्थ कीर्तिपताका के अन्त में विद्यापति का नाम है जो कीर्तिलता एवं मैथिली गीतों के प्रख्यात रचयिता कवि थे। ये विसैवार विसपी मूलग्राम के विस्फी ग्राम निवासी थे जो गाँव विहार राज्य के मधुबनी जिले में पड़ता है। इनके पिता महामहोपाध्याय गणपति ठाकुर राजपण्डित थे।इनका समय 1350 ई- से 1440 ई- के मध्य पड़ता है। ये बचपन से ही पिता के साथ राजदरबार जाते थे। ये व्याकरण, साहित्य, धर्मशास्त्र, पुराण, ज्योतिष, तन्त्र, कर्मकाण्ड, नीतिशास्त्र एवं राजनीति के मर्मज्ञ विद्वान थे और फारसी भाषा की भी जानकारी रखते थे।गद्य-पद्य रचना-चातुरी के कारण ये जनजन में प्रसिद्ध थे।इन्होंने नैमिषारण्य (उ. प्र.) एवं दिल्ली की यात्रा कर अपने कवित्व के द्वारा शाहीकारागार से राजा शिवसिंह को मुक्त कराया था और अपने मधुरगीतों के द्वारा अनेक राजाओं के नाम को अमर बना दिया।इनके धर्मशास्त्रीय निर्णय को मान्य आचार्यों ने अपने ग्रन्थ में उद्धृत किया है-

  • म.म. केशव मिश्र ने (1500 ई-) द्वैतपरिशिष्ट में,
  • म.म. गणपति (1500 ई-) ने गंगाभक्तितरंगिणी में,
  • म.म. कमलाकर भट्ट ने निर्णयसिन्धु में।

इनके मैथिली गीतों का अनुसरण गोविन्द कवि, विष्णुपुरी, भीषम, गोविन्ददास झा, उमापति आदि के क्रम से बीसवीं शती के मध्य भाग तक होता रहा। ये राजकवि से लेकर जन-जन के कवि हो गये और आज उनकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी है। इनकी जीवनी ‘साहित्य अकादेमी’, नई दिल्ली से अंग्रेजी, हिन्दी और मैथिली में प्रकाशित है जिसके मूल लेखक प्रो. रमानाथ झा थे। इनकी कृतियाँ निम्नांकित हैं-

  • मैथिली- विद्यापति गीतावली, गोरक्षविजयनाटक (संस्कृत, प्राकृत के साथ मैथिली गीत की प्रधानता)।
  • अवहट्ठ- कीर्तिलता, कीर्तिगाथा, कीर्तिपताका।
  • संस्कृत- भूपरिक्रमण (यात्रवृत्तान्त), पुरुषपरीक्षा (गद्य-पद्यात्मक नीति-दण्डनीति से मण्डित रोचक कथाएँ), मणिमञ्जरी नाटिका, लिखनावली (राजकीय पत्र लेखन सम्बन्धी गद्यात्मक), विभागसार (धन बँटवारा सम्बन्धी), शैवसर्वस्वसार, शैवसर्वस्वसारप्रमाणभूत प्रमाणवचन संग्रह (शैवसर्वस्वसार का पूरक), दानवाक्यावली (दान के संकल्प-वाक्य), गंगावाक्यावली (गंगा की आराधना से सम्बद्ध), दुर्गाभक्तितरंगिणी (प्रमाण सहित दुर्गापूजन), व्याड़ीभक्ति-तरंगिणी (सर्पपूजन), गयापत्तलक (संक्षिप्त गयाकृत्य), वर्षकृत्य, प्रश्नोत्तरमालिका (पद्यात्मक उपदेशप्रद प्रश्न एवं उत्तर) एवं ज्योतिषसारसमुच्चय (ज्योतिषग्रन्थ, इसका हस्तलेख खण्डित मिथिलाक्षर में दरभंगा के मिथिला संस्कृत शोध संस्थान में है ।)।

पुस्तक में संक्षेपाक्षर का प्रयोग

संकेत- ‘ए ऐ’ ओ औ’ इन वर्णों का जहाँ ”स्व उच्चारण होता है वहाँ मूलग्रन्थ में इन वर्णों के नीचे रेखा दे दी गयी है। की. गा. = कीर्तिगाथा। की. प.  = कीर्तिपताका।

कृतज्ञता ज्ञापन

इस पुस्तक के सम्पादन एवं व्याख्या करने में जिन विद्वानों से साक्षात् या उनके ग्रन्थ द्वारा सहायता प्राप्त हुई हैं उन सबों के प्रति हम कृतज्ञ रहेंगे। पूज्य गुरुवर पं. गोविन्द झा से अनेक परामर्श होता रहा है और उनके सम्पादित 1992 में प्रकाशित कीर्तिपताका इस संस्करण का मूल आधार बना। सम्मान्य डॉ. रामदेव झा ने मेरे कीर्तिपताका के मेरे एवं पं. गोविन्द झा द्वारा किये पाठोद्धार की समीक्षा के साथ कुछ संशोधन का परामर्श देते हुए एक निबन्ध प्रकाशित किया था जो मेरे इस प्रस्तुत कार्य का प्रेरणास्रोत बना। आदरणीय प्रो. शैलेन्द्र मोहन झा द्वारा सम्पादित कीर्तिपताका से कुछ महत्त्वपूर्ण पाठ संशोधन का आधार  प्राप्त हुआ। डॉ. रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’ एवं श्री चन्द्रेश इसके मैथिली अनुवाद हेतु प्रेरित करते रहे। इन सभी विद्वानों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।

अन्त में अपनी त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी होते हुए विद्वज्जनों से निवेदित करता हूँ कि इसका अध्ययन-मनन कर अपना सुझाव / मन्तव्य प्रेषित करने की कृपा करेंगे।

दीप गाम                         

गुरुपूर्णिमा शाके 194, 16-7-2019                                         

कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा

निवेदक

पं. शशिनाथ झा

पूर्व प्राचार्य, व्याकरण विभाग

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