प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर बीएचयू में हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। मधुबनी से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र मैथिल पुनर्जागरण प्रकाश के सम्पादकीय….

Prof. Ramagya Shashidhar

हिन्दी के प्रसिद्ध व्यङ्ग्यकार हरिशंकर परसाई ने ठीक ही कहा है-

 “हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसों के लिए किसी के साथ सो जाती है।”[1]

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य

लेकिन इससे भी भयंकर स्थिति तब होती है, जब हम इतिहास लिखने लगते हैं और विना सबूत दिये, सन्दर्भ दिये, बिना पूरा विवेचन किये आधी अधूरी बात लिखकर आरोप लगाकर निकल जाते हैं।

आरोप लगाना negative writing है। निषेधात्मक शोध की प्रक्रिया बहुत कठिन होती है। यदि हम निष्कर्ष निकालें कि ‘इस गाँव में कुँआ नहीं है’, तो हमें गाँव का चप्पा-चप्पा छान लेना होगा। हमें घर के आँङन में जाकर देखना होगा। हमें समझना चाहिए कि यदि किसी के घर में ही सही, एक भी कुँआ होगा, तो हमारा निष्कर्ष गलत होगा।

इसके विपरीत यदि हम यह कहते हैं कि “इस गाँव में कुँआ है”, तो अपने सर्वेक्षण के पहले दिन थोड़ी दूर जाने पर ही यदि हमें कुँआ दिखाई देता है और हम अपने रिपोर्ट में लिख देते हैं तो हमारा रिपोर्ट गलत नहीं होगा।

लेकिन यदि हम विना घूमे सीधे रिपोर्ट लिख देते हैं कि इस गाँव में कुँआ नहीं है तो यह रिपोर्ट के साथ बलात्कार होगा, अपनी लेखनी के साथ बलात्कार कहलायेगा।


मैं यहाँ चर्चा कर रहा हूँ मधुबनी से प्रकाशित मैथिल पुनर्जागरण प्रकाश के सम्पादकीय में दिनांक 30 जनवरी, 2022 ई. के आलेख का। इसके लेखक बीएचयू के प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर हैं। उनका यह आलेख पहले भी अंतिक प्रकाशन से प्रकाशित गौरीनाथ के द्वारा संकलित संकलन ‘किसान आन्दोलन आ मिथिला समाज’ में प्रकाशित हो चुका है।

मधुबनी, दिनांक 30 जनवरी, 2022ई.

सम्पादक ने विना कोई disclaimer लिखे इसे सम्पादकीय लेख के रूप में प्रकाशित किया है।

इस लेख में दरभंगा राज घराने के इतिहास का उल्लेख करते हुए वे लक्ष्मीश्वर सिंह से आरम्भ करते हैं और विना कोई सबूत दिये बिना कोई, विना ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करते हुए लेखक सीधे निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि दरभंगा के महाराज जोंक की तरह रैयतों का खून चूसते थे। आलंकारिक भाषा में वे जितना तक अपमानजनक शब्दों का प्रयोग वे कर पाते हैं, करने से चूकते नहीं।

सम्पादकीय का एक अंश

उन्हें नहीं मालूम कि 1873-74 में जब अकाल पड़ा था, तब दरभंगा राज से 3,00,000 पौंड धन लगाकर लोगों की जान बचायी गयी थी। उन दिनों कमला नहर का निर्माण हुआ था। किसानों के लगान माफ किये गये। फिर दुबारा 1897 में अकाल, प्लेग, हैजा का प्रकोप हुआ तो किंग नहर परियोजना बनाकर किसानों की फसल को बरबाद होने से बचा लिया गया।

इन सारे विषयों पर इतिहास की अनेक पुस्तकें हैं। डा. जटाशंकर झा ने भी लिखी है। ब्रिटिश काल के दस्ताबेज, यूरोप में प्रकाशित समाचार-पत्र हैं। बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना के जॉर्नल में अनेक आलेख हैं। किन्तु, इनमें से किसी भी सामग्री का अध्ययन किये बिना, अपनी बात का सन्दर्भ दिये विना दरभंगा के राजाओं को खून चूसने वाला जोंक कहना एक अपमानजनक, गैर-जिम्मेदाराना लेखन है। वह लेखक की अपनी लेखनी के साथ बलात्कार है।

लेखक एक जिम्मेदार अध्यापक हैं। पता नहीं वे विद्यार्थियों को क्या पढ़ाते होंगे? खासकर हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते समय तो महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान आदि को भी ऐसा ही शोषक, जोंक, बुर्जुआ आदि कहते होंगे। वामपंथी होने के कारण लेखक के मन में यहीं तो कौंधती रहती है कि ‘राजा हो तो जोंक होगा ही।’

मैं ऐसे इतिहास-लेखन का विरोध करता हूँ जिसमें सन्दर्भ नहीं है। इतिहास के लिए सन्दर्भ की होना जरूरी है, वरना वह इतिहास के साथ बलात्कार कहलायेगा। सन्दर्भ के विना कोई आलेख एक लाश की तरह होता है। यदि लेखक रामाज्ञा शशिधर ऐसा इतिहास-लेखन करते हैं तो एक प्रोफेसर के रूप में बीएचयू में शोध की गरिमा को ठेस पहुँचाते हैं।

अंतिका प्रकाशन को तो कभी किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं रही!

अतिका प्रकाशन तो अपनी वामपंथी विचारधारा के लिए स्थापित है ही; मैथिली का यह मैथिल पुनर्जागरण प्रकाश भी सम्पादकीय के रूप में इस आलेख को प्रकाशित कर वामपंथी विचारधारा के मुखपत्र की कोटि में आ गया है।


[1] हरिशंकर परसाई, चुनी हुई कहानियाँ, कमला प्रसाद एवं प्रकाश दुबे (सम्पादक), वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृ. 401

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