वाल्मीकि-रामायण की सबसे पुरानी उपलब्ध प्रति मिथिला में लिखी गयी थी, जो आज काठमाण्डू में उपलब्ध है।
वाल्मीकि-रामायण के जो संस्करण बाजार में उपलब्ध है, वह बहुत पुराना नहीं है। छपी हुई पुस्तकों में से जो सबसे पुरानी है वह 1806 ई. की है। यानी आज से 214 वर्ष पुरानी है। उससे पहले की पुस्तक हाथ से लिखी मिलती हैं, क्योंकि उन दिनों छपाई की सुविधा नहीं थी। लोग हाथ से ही पुस्तक लिखते थे और उसकी बिक्री करते थे।
बाद में जब छपाई की सुविधा हुई तो इन्ही हाथ से लिखी पुरानी पुस्तकों से छपाई की गयी। इसलिए छपी हुई पुस्तकों के बारे यह देखा जाता है कि इसके संपादक ने कितनी पुरानी हस्तलिखित पुस्तक यानी पाण्डुलपि का व्यवहार किया है।
भारत में वाल्मीकि-रामायण की ये पाण्डुलिपियाँ हर जगह पायी जाती हैं,जिनके पाठ हर क्षेत्र में अलग अलग हैं। पाठ के आधार पर भारत में वाल्मीकि-रामायण के तीन पाठ मिलते हैं
- पूर्वोत्तर भारत का पाठ
- दक्षिण-पश्चिम भारत
- पश्चिम-उत्तर का पाठ
लेकिन यह पाठ जिन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के आधार पर प्रकाशित किया गया, वे पाण्डुलिपियाँ अधिक से अधिक 500 वर्ष पुरानी है। अतः उसमें बहुत सारे अंश बाद में लोगों ने जोड़ दिया है। जिससे श्लोक संख्या भी अधिक हो गयी है।
अभी सबसे पुरानी पाण्डुलिपि जो उपलब्ध है, वह नेपाल में उपलब्ध है। इसकी पाण्डुलिपि तिरहुत में आज से 1000 वर्ष पहले 1020 ई.मे लिखी गयी थी। इस पुस्तक के किष्किन्धाकाण्ड के अंत में लिखा हुआ है-
“संवत् 1076 आषाढ़ वदि 4, महाराजाधिराज पुण्यावलोक-सोमवंशोद्भव-गरुडध्वज-श्रीमद्गाङ्गेयदेवभुज्यमानतीरभुक्तौ कल्याणविजयराज्ये नेपालदेशीयभाण्डशालिकश्रीआनन्दस्य कृते पाटकावस्थितपण्डितकायस्थश्रीश्रीकरस्यात्मजश्रीगोपतिनालेखीदम्।”
“संवत् 1076 अर्थात् 1020 ई. में आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी तिथि को महाराजाधिराज, पुण्यावलोक, चन्द्रवंशी, गरुडध्वज उपाधिधारी राजा गांगेयदेव के द्वारा शासित तिरहुत में कल्याणविजय राज्य में, नेपाल देश के पुस्तकालयाध्यक्ष श्रीआनन्द के लिए गाँव के एक टोला में रहते हुए पण्डित कायस्थ श्री श्रीकर के पुत्र श्रीगोपति ने इसे लिखा।”
यह तालपत्र में लिखित 800 पत्रों का ग्रन्थ नेवारी लिपि में है, जिसमें सातों काण्ड हैं। यह काठमाण्डू के वीर पुस्तकालय (राजकीय अभिलेखागार) में है, जिसकी फोटोप्रति बड़ौदा में ग्रन्थ सं-14156 है। इसके किष्किन्धाकाण्ड के अन्तमें एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुष्पिका (समाप्तिसूचक लेखीय वाक्य) है।
इसक अर्थ हुआ- संवत् 1076=1020ई., आषाढ़ मास में कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि में महाराजाधिराज पुण्यावलोक (पुण्य दृष्टि वाला) चन्द्रवंश में उत्पन्न गरुडयुक्त ध्वजा वाले श्रीमान् गांगेयदेव के द्वारा भोग किये जाने वाले देश तिरहुत में, प्रजा के कल्याण के लिए विजित राज्य में, नेपालदेश के भाण्डागारिक (भण्डारपाल) श्रीआनन्दकर के लिए, पाटक नामक गाँव में स्थित पण्डित कायस्य श्री श्रीकर के पुत्र श्रीगोपति ने इसे लिखा।
लेखक ‘गोपति’ के इस वाक्य से बहुत महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आता है। 1020 ई- में महान् प्रतापी राजा गांगेयदेव तिरहुत (मिथिला) पर शासन करते थे और उन्होंने नेपाल की जनता का कल्याण करने हेतु उसे भी जीत लिया था, फलतः नेपाल तिरहुत का ‘कल्याणविजयराज्य’ था।
यह गांगेयदेव कलचुरि-वंशीय शासक था, जिसका राज्यकाल 1019-1040 ई- था, जिसने पालवंशीय राजा महीपाल प्रथम को परास्त कर तिरहुत पर अधिकार कर लिया था। इसका राज्य काशी, मगध, मिथिला और नेपाल के तराई भाग तक था।
इसका पुत्र लक्ष्मीकर्ण ने 1073 ई. तक तिरहुत पर शासन किया, किन्तु उसका पुत्र यशःकर्ण पालवंशीय महीपाल के पुत्र नयपाल और पौत्र विग्रहपाल से परास्त हो गया। अतः कलचुरिवंश का शासन तिरहुत पर 1019 से 1075 ई. तक रहा।
कलचुरियों की मूल राजधानी त्रिपुरी (वर्तमान तेवर, जबलपुर से पश्चिम) थी। उनमें दहल (बधेलखण्ड) के कलचुरी राजा गांगेयदेव ने पूर्वोत्तर की ओर विजययात्रा कर काशी और तिरहुत पर अधिकार कर लिया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की (भारतवर्ष का इतिहास- ईश्वरी प्रसाद)।
इसी लक्ष्मीकर्ण को हराकर नान्यदेव ने मिथिलापर शासन करना आरम्भ किया था।
इस प्रकार, वाल्मीकि-रामायण की सबसे पुरानी पाण्डुलिपि भी वर्तमान मिथिला में लिखी हुई नेपाल के राण्ट्रीय संग्रहालय काठमाण्डू में मिलती है।
हमे यह भी जानना चाहिए कि आज भी नेपाल, बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा मिथिला की पाण्डुलिपियों में बहुत समानता है तथा ठीक 24 हजार श्लोक मिलते हैं।
विशेष जानकारी के लिए पढ़ें- महावीर मन्दिर मन्दिर की पत्रिका धर्माय़ण का रामायण विशेषांक, अंक संख्या 99, आश्विन 2077 विक्रम संवत्, अक्टूबर, 2020 ई.